लोहाणा बोर्डिंग, बडौदा
ता. १८ अक्तूबर, १९४०
भाई नारायण,
तेरा खत मिला । छुट्टीओं में तुने जो करने का सोचा है वो अच्छा है । शुद्धि की भावना को हमेशा मन में रहती है, यह जानकर आनंद हुआ । मुझे यकीन है की तुम हमेशा जाग्रत रहोगे और उसे कभी नहीं भूलोगे ।
तुम्हें खत लिखे एक अरसा हो गया । इस दौरान कुछ नोंधपात्र घटनाएँ घटी है, जिसके बारे में तूझे बताना चाहता हूँ । कोलेज में मुझे दो दफा बोलने का मौका मिला; एक दफा ‘हमारी नैतिक शिथिलता के लिये कौन जिम्मेदार ?’ और दूसरी दफा ‘वीर नर्मद की कविता’ पर । मेरा व्यक्तव्य सुनकर प्रो. मंजुभाई तथा प्रो. चतुरभाई बडे प्रसन्न हुए । गाँधी जयंति के अवसर पर विद्यार्थी मंडळ द्वारा वक्तृत्व स्पर्धा रखी गई थी । उसमें ‘मेरी दृष्टि में गाँधीजी’ विषय पर मैंने वक्तव्य दिया और मुझे प्रथम पारितोषिक मिला । उसी संस्था द्वारा आयोजित पादपूर्ति स्पर्धा में भी मुझे पारितोषिक मिला । विल्सन कोलेज की तरफ से मुझे पंद्रह रूपये की कुल मिलाकर बारह किताबें भेंट दी गई । मैंने उन सबको पढ़ लिया है ।
और एक बात । यहाँ एक योगाश्रम है, जहाँ मैं ध्यानयोग (राजयोग) सीख रहा हूँ । ज्ञानयोग और भक्तियोग की तरह इसका अभ्यास करने से बहुत प्रसन्नता मिलती है । रामकृष्ण परमहंस ने तीनों योग का अभ्यास किया था । यहाँ जो स्वामीजी हमें सिखाते है उनको, मेरे हिसाब से, आत्मसाक्षात्कर नहीं हुआ है । मगर इससे मुझे कोई फर्क नहीं पडता । मेरा ध्यान का अभ्यास जारी है । मैं मानता हूँ की केवल हठयोग या राजयोग से जीवन उन्नति की साधन सफल नहीं होती । उसके लिये हृदय-शुद्धि तथा इश्वरदर्शन की आकांक्षा, या यूँ कहो की भक्तियोग भी आवश्यक है ।
विविध मान-सम्मान या पारितोषिक मिलने पर भी मैं अपने जीवन ध्येय से चलित नहीं हुआ हूँ । मेरा जीवनप्रवाह वैसा ही है, और वैसा ही रहेगा । यह सब माँ की कृपा का परिणाम है ।