बडौदा,
ता. २५ नवंबर, १९४०
ज्योति स्वरूप,
मेरी उम्र १९ साल की है ।
आज से तीन साल पहले मेरी विचार-वृत्ति में परिवर्तन का प्रारंभ हुआ । मुझे अपनी सत्वसंशुद्धि करने की तथा अपूर्णताओं को दूर करने की अदम्य इच्छा हुई । मेरे हृदय में भावनाओं का समंदर उछलने लगा । मेरी नींद और चैन गायब हो गया । मैं सभी जगह चैतन्य का अनुभव करने लगा । आत्मतत्व के साथ एक होने की तीव्र इच्छा ने मुझे घेर लिया । फलतः मैं कभी कभी रो देता । कविता के प्रति मेरा जो लगाव था, वो माँ की भक्ति में तबदील हो गया । माँ के दर्शन के लिये मन बाँवला होने लगा । मैं उसको अपने आसपास महसूस करता था मगर उसे हुबहु देखने के लिये मन तडपने लगा । मेरी रातें माँ के दर्शन की प्रार्थना में व्यतीत होने लगी ।
दो साल पहले उसकी प्रबलता इतनी हो गयी की शरीर में दाह होने लगा । रात को वस्त्र पहनना मेरे लिये मुश्कील हो गया । पिछले साल, कुछ रातें एसी भी गई जहाँ मैं निर्वस्त्र होकर खुले आसमान के तले सोता रहा ।
मेरी दशा का वर्णन कैसे करुँ? दिन में समंदरतट पर टहलते हुए या कहीं और, मेरा मन भावनाओं के प्रवाह में डूब जाता और रात होते ही ‘आज माँ के दर्शन नहीं हुए’ एसा सोचकर भावुक हो जाता । मैं सोचता की ‘मेरा जीवन निरर्थक है क्योंकि अभी मुझे माँ के दर्शन नहीं हुए’ । पिछले साल से, चलते-फिरते या अन्य कोई प्रवृत्ति करते हुए, भीतर से ओहम् का ध्वनि सुनाई देने लगा । अब भी यह अनुभव जारी है । दर्शन की बेचैनी में मेरी रातें आसानी से नहीं कटती ।
योगमार्ग पर श्रद्धा होने के कारण मैं यहाँके एक योगाश्रम में जाने लगा । मगर वहाँ जो आसन इत्यादि सिखाते थे उसमें मुझे ज्यादा दिलचस्पी नहीं हुई । मेरे मन-अंतर में तो ‘माँ, तुम कब आओगी, कब मुझे दर्शन दोगी ?’ चलता रहता था । इसलिये मैंने योगाश्रम जाना बन्द कर दिया । यहाँ बडौदा में एक योगाश्रम है, वहाँ जाने का क्रम बनाया है मगर इससे मैं पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हूँ । जो खुद पूर्ण नहीं है वो दूसरों को कैसे पूर्णता का मार्ग दिखायेगा ? एसे योगाश्रम साधकों को सिर्फ आसन सिखा सकते है । मैंने यहाँ जो आसन सिखे है, इसका तथा ध्यान का मैं नियमित अभ्यास करता हूँ । मैं हररोज सुबह एक घण्टा और शामको आधे से एक घण्टा ध्यान करता हूँ ।
मगर जैसे की मैंने पहले बताया, मुझे आत्मसाक्षात्कार करना है, और वो भी जितना हो सके इतना जल्दी । मेरा मार्गदर्शन करनेवाला यहाँ कोई नहीं है । जो है, वो खुद उस अवस्था तक पहूँचे नहीं है ।
कहा जाता है की जब व्यक्ति को ये ज्ञात होता है की वो मुक्त है, पूर्ण है, तो उसका काम संपन्न हो गया । एसी अवस्था का अनुभव तो मैं कई बार कर चुका हूँ । मगर जब तक आत्मदर्शन, पूर्ण साक्षात्कार या निर्विकल्प समाधि का अनुभव नहीं हो जाता, ये कैसे कहूँ की मेरा कार्य संपन्न हो गया ?
मैं मानता हूँ की मैं शांति और आनंद स्वरूप हूँ । मैं मुक्त हूँ, मुझे मोहमाया के कोई बंधन नहीं है । मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा हूँ । क्या मुझे आपके पास आने की अनुमति मिलेगी ? माँ ने ही मुझे आपको खत लिखने के लिये प्रेरित किया है । मुझे इससे अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं लगती । मुझे यकीन है की मेरे बारे में जो कुछ जानना है, वो आप अपनी शक्ति से जान लेंगे ।
अगर रामकृष्ण परमहंस इसी समय कोलकता होते तो मैं उनको मिलने फौरन चला जाता । मैं किसी एसे-ही सिद्ध पुरुष की तलाश में हूँ । क्या आप मुझे अपने पास रख सकते है ? कृपया, प्रत्युत्तर देने का कष्ट करें । साथ में आश्रम के बारे में आवश्यक जानकारी भी भेजें । प्रत्युत्तर के लिये डाक-टिकट भेज रहा हूँ ।