प्रश्न – आत्मा का स्वरूप कैसा है ?
उत्तर – आत्मा जड़ नहीं अपितु चेतन है, यह तो सभी जानते हैं । तदुपरांत यह ज्योतिर्मय एवं विशुद्ध है । इसमें अज्ञानरूपी अंधकार बिलकुल नहीं है । यह अमृतमय एवं अमर है । सभी प्रकार के विकारों से रहित है, शांति स्वरूप है, मंगलता की मूर्ति तथा आनन्दमय है । उपनिषद में उसे अंगुष्ठमात्र अर्थात् अंगुष्ठ के आकार का एवं भूत, भावि और वर्तमान का ज्ञाता भी कहा गया है । परन्तु वह ऐसा ही है अथवा उतना ही है ऐसा कैसे कहा जाय ? सही रीति से कहा जाय तो आत्मा का कोई निश्चित स्वरूप नहीं है अपितु सब इसके ही रूप हैं । जिनको साधना के द्वारा जैसा अनुभव हुआ है, उन्होंने उसी रूपका उल्लेख किया है । ये सभी उल्लेख अपने रूप से सत्य हैं । विशाल सागर का कोई एक रूप थोडा ही है ? यह तो अरूपी है । फिर भी यदि आप एक दिशा में खड़े रहकर तसवीर लें और कहे कि यह सागर की तसवीर है तो आपका यह कथन सत्य ही कहा जाएगा । इसी तरह दूसरी, तीसरी या चौथी दिशामें से तसवीर खींची जाय तो वे तसवीरें भिन्न भिन्न होते हुए भी सागर की ही मानी जायेगी । फिर भी हम ऐसा दावा थोडे ही कर सकते हैं कि इन तसवीरों में समग्र सागर का संपूर्ण स्वरूप समाहित हो गया है ? ऐसे दावे को कौन स्वीकारेगा ? ऐसी तसवीरें तो अनेक ली जा सकती है । आत्मा के बारे में भी यही समझना है । इसके स्वरूप का अनेक रीतियों से वर्णन किया गया है फिर भी यह अनंत होने से यह अनेक गुना महान, विराट व वर्णनातीत है ऐसा अवश्य कह सकते हैं ।
प्रश्न – ईश्वर-कृपा के लिये क्या एकान्त आवश्यक है ॽ
उत्तर – एकान्तवास यदि समझपूर्वक, विकास के निर्धारित कार्यक्रम के साथ, जरूरी चित्तशुद्धि की भूमिका हासिल करने के पश्चात् अनिवार्य साधन के रूप में किया जाए तो ईश्वर की कृपा की प्राप्ति में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है । इसका आश्रय विवेक एवं वैराग्य से सम्पन्न साधकों के लिए अत्यन्त आशिर्वादरूप साबित होता है ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)