प्रश्न – आपने कहा है कि सख्य भक्ति में भक्त भगवान को अपना सखा या मित्र मानता है । तो क्या इस तरह भगवान को सखा मानना उचित है ॽ
उत्तर – हाँ, इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । भक्ति के उस प्रकार में मानवस्वभाव प्रतिबिंबित होता है । मनुष्य के अति प्रिय और मधुर संबंध होते हैं उन्हीं की भावना भक्ति में सम्मिलित की जाती है और ईश्वर से वैसा नाता जोड़ा जाता है, उसको दृढ़ बनाया जाता है और उसके द्वारा भक्त ईश्वर के रसप्रदायक, सुखदायक, सतत सान्निध्य की कामना करता है । सुदीर्घकालीन अभ्यास के परिणामस्वरूप ऐसी भावना उसके लिए सहज बन जाती है । यह भावना विशाल होती है और प्रेम के पवित्र स्वरूप को अधिकाधिक उद्बुद्ध करनेवाली होती है, अतएव वह बाधक नहीं अपितु साधक सिद्ध होती है । आपको साधना पथ की किसी भी पद्धति या भावना से नफरत नहीं करनी है और यह भी नहीं मानना है कि भावना नितांत बुरी है और इसलिए वर्ज्य है । उन भावनाओं को सहज भावनाओं के रूप में स्वीकृत करके उसे उन्नत बनाने का और अपने अनुकूल बनाने का यत्न करना है । ऐसा करने से जीवन उर्ध्वगामी बन जाएगा, ऐसा भक्तिमार्ग के आचार्य मानते हैं और इसमें शंका करने का कोई कारण नहीं है ।
प्रश्न – दास्य व सख्य भक्ति का अवलम्बन लेना क्या सबके लिए जरूरी है ॽ
उत्तर – सभी को उसका सहारा लेना ही चाहिए ऐसा मत मानिए । इसके लिए कोई एक-सा नियम नहीं है । यह तो अपनी-अपनी इच्छा, रुचि और पसंदगी का प्रश्न है । जिसे उसका सहारा लेना हो वह ले सकता है । इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है । जिसे उसका आधार लेने की आवश्यकता महसूस न हो वह उसका आधार लिये बिना भी आगे बढ़ सकता है । आप किसका आश्रय लेते हैं उसका इतना महत्व नहीं है । किन्तु इसके आधार के द्वारा आप आगे बढ़ते हैं या नहीं इसका महत्व है । आगे बढ़ने का महत्त्व साधना में सबसे विशेष है । किसी भी उदात्त या सात्विक भावना अगर आपके आत्मिक विकास में सहायक सिद्ध होती है, तो आप उसका आधार ले सकते हैं । याद रखें, भक्तिमार्ग में ये भावनाएँ अनिवार्य नहीं हैं फिर भी हृदय को ईश्वर-प्रेम से अधिकाधिक भरने के लिए आवश्यक है और उसका हेतु आखिरकार ईश्वर-साक्षात्कार करके जीवन को कृतार्थ बनाना है । अगर इस महत्वपूर्ण बात का विस्मरण होगा तो भारी नुकसान होगा । भक्त केवल भावमें ही व्यर्थ भटकता रह जाएगा और उस भावका फायदा नहीं उठ़ा सकेगा । भावकी कीमत ज्यादा है किंतु ईश्वर-साक्षात्कार का मूल्य इससे भी अधिक है, यह हमेंशा याद रखें ।
प्रश्न – सख्य भक्ति करनेवाला साधक अपने आपको ईश्वर के समान मान ले ऐसा खतरा उपस्थित हो सकता है ॽ ईश्वर को अपना सखा माननेवाला ईश्वर की विशेष महिमा को समझ सकता है क्या ॽ
उत्तर – अवश्य समझ सकता है । ईश्वर की सख्य भक्ति करनेवाला व्यक्ति अपने आपको ईश्वर नहीं मान सकता क्योंकि ऐसा मानें तो उससे भक्ति नहीं हो सकती । ईश्वर हमारी अपेक्षा उत्कृष्ट या श्रेष्ठ है ऐसा समझकर ही भक्त भक्ति करता है । अतएव आप कहते हैं वैसा भय रखने की कोई जरूरत नहीं है । आप जानते है कि संसार में दो मित्रों के बीच भी इस तरह की समानता नहीं होती, फिर भी उनकी दोस्ती बनी रहती है और बढ़ती भी है । भक्त के बारे में भी वही समझ लीजिए । सख्य भक्ति का आश्रय लेनेवाला अपने आपको ईश्वरतुल्य नहीं मान लेता । हरग़िज नहीं मानता ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)