प्रश्न – इस संसार में प्राप्य वस्तु क्या है ॽ
उत्तर – केवल ईश्वर ही प्राप्त करने योग्य है । स्वरूप ही दर्शनीय है । जीवन का परम एवं आवश्यक ध्येय वही है ।
प्रश्न – वह कैसे मिल सकता है ॽ
उत्तर – दृढ निश्चय करके उसके लिए आवश्यक पुरुषार्थ करने से ।
प्रश्न – किंतु खाने पीने की और दूसरी आवश्यकताओं का क्या ॽ
उत्तर – ईश्वर की शरण में जाने से आपको कोई चिंता नहीं करनी पडेगी । आप केवल ईश्वर की चिंता करें, ईश्वर के लिये तडपें, देखिये फिर वे कैसे आपकी सभी चिंता अपने उपर ले लेते हैं । बालक जैसे माँ माँ करता है, उसी तरह आप भी ईश्वर को जगज्जननी मानें, उनका आश्रय ग्रहण करें, उनको पुकारें । वे आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे ।
प्रश्न – त्याग करना अच्छा है या बुरा ॽ
उत्तर – त्याग का अर्थ यदि काम, क्रोध आदि बुरी वस्तुओं का त्याग हो, मन की चंचलता, अहंता ममता या अशांति का त्याग हो तो ऐसा त्याग करने का काम बहुत अच्छा है, उपयोगी है । किंतु त्याग का अर्थ बाह्य त्याग हो तो वह अच्छा होगा या बुरा यह नहीं कहा जा सकता । उसका आधार त्यागी की योग्यता पर है ।
त्याग की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है वैराग्य । वैराग्य के बिना त्याग नहीं हो सकता और अगर होता है तो टिकता नहीं है । विवेक के द्वारा मनुष्य जानता है कि इस असार संसार में ईश्वर के सिवा सबकुछ नश्वर है । केवल ईश्वर ही प्राप्तव्य है । उसे प्राप्त करने से ही जीवन में सुख व शांति मिल सकती है । ईश्वर में ही प्रीति हो और दुन्यवी पदार्थो में से आसक्ति दूर हो जाये इसका नाम ही वैराग्य । इन्द्रियों के विषयों में एवं सांसारिक पदार्थों में जहाँ तक आपको ममता या दिलचस्पी है, वहाँ तक आप वैराग्य से कोसों दूर हैं यह निश्चित है । वैराग्य होगा तभी ईश्वर प्राप्ति की आपको लगन लगेगी, एकांत में ईश्वर की आराधना करने की इच्छा होगी और सांसारिक पदार्थ प्यारे नहीं लगेंगे । ज्ञानी की भी यही अवस्था है । इसकी प्राप्ति होने पर त्याग भी हो जाएगा । ऐसा क्रमिक त्याग उत्तम है, इससे लाभ होगा । किंतु जो त्याग वैराग्य के बिना किसीकी देखादेखी से या किसी अन्य कारण से किया जाय तो वह उत्तम त्याग नहीं है, उसकी प्रसंशा नहीं की जा सकती ।
इस बारे में मुझे एक प्रसंग याद आता है ।
देवप्रयाग में मेरे पास एक संन्यासी आये और बोले, ‘आपके पास रहकर आपकी सेवा करना चाहता हूँ ।’
मैंने उत्तर दिया, ‘आप यहाँ नहीं रह सकते और मेरा माने तो आप घर जाइए और अपना व्यवसाय करके मौज-मजा उजाइए । आप संन्यास को जारी नहीं रख सकेंगे ।’
मेरी बात सुनकर उन्हें बुरा लगा और दूसरे ही दिन वे बिना मुझसे कुछ कहे कहीं चले गये ।
इसके अनन्तर जब एक बार मैं संगम पर घूमने गया उस वक्त एक युवानने मेरे पैर छूकर मुझसे प्रणाम किये । कोट पतलून में सज्ज उस युवान को मैं पहचान गया । यह वही संन्यासी था जो मुझे पहले मिला था ।
मैंने कहा, ‘क्यों ॽ अब तो मजे में हैं न आप ॽ’
उसने उत्तर दिया, ‘हाँ, अब तो अच्छा लगता है । घर पर ही रहता हूँ और मौज उडाता हूँ । यात्रियों को लेकर अभी बदरीनाथ जा रहा हूँ । फिर आपके दर्शन करने आश्रम पर आउँगा ।’
मैंने कहा, ‘मैं अब बहुत प्रसन्न हूँ । जिसे इच्छा हो आये उसे फौरन त्याग करके भगवा वस्त्र धारण करने की जरूरत नहीं । बहुत कुछ सोचने के बाद और अनुभव के पश्चात् ही त्याग करना चाहिए । त्याग किया इसलिए इतिश्री हो गई ऐसा मत समझें । त्यागी के रूप में विशुद्ध जीवन गुजारा जाये इसके लिये जागृत रहना है । इसके अतिरिक्त जिस हेतु से त्याग किया हो उसकी प्राप्ति के लिए रातदिन दिल लगाकर पुरुषार्थ करना है । जीवन का आदर्श त्याग नहीं किंतु ईश्वर-प्राप्ति है । इसे अच्छी तरह ध्यान में रखकर त्याग का उपयोग दूसरी चीज में नहीं किंतु ईश्वर-प्राप्ति में ही हो यह देखना होगा । जहाँ तक ऐसा मनोबल हासिल न हो वहाँ तक बाह्य त्याग करने के बजाय संसार में रहकर अंतरंग त्याग करने की ओर ध्यान देना चाहिए ।’
इसके बाद वह युवक चला गया । कहने का तात्पर्य यह है कि बिना समझे जो त्याग किया जाता है वह टिकता नहीं । त्याग सदैव समझदारी से हो यही अच्छा है ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)