प्रश्न – मैं कितने वर्षों से नियमित एवम् निरंतर रुप से नामजप और ध्यान की साधना करता था, उससे मेरी श्रद्धा बहुत बढ़ गई थी । मुझे शांति, सुख एवम् आनंद की अनुभूति एवम् अलग अलग प्रकार की अनुभूति भी हुई थी । परन्तु कुछ समय से मेरे मन की अवदशा हुई है, मेरी श्रद्धा ड़गमगाने लगी है । ईश्वर नामस्मरण, जाप, ध्यान में मुझे अब कोई रुचि नहीं रही, ना ही मुझे किसी प्रकार का आनन्द आता है । ना ही ध्यान जैसी किसी अन्य साधना में मेरा मन लगता है । मैं बहुत निराश हो चुका हूँ । मानसिक रुप से टूट चूका हूँ । मेरा जीवन व्यर्थ व्यतीत हो रहा है । मुझे अपने जीवन के प्रति कोई रस-रुचि नहीं रही । मुझे क्या करना चाहिए ॽ किसी संत महात्मा से साक्षात्कार करने की भी इच्छा नहीं हो रही । परन्तु आज दोपहर तीन बजकर दस मिनट पर आपके दर्शन हुए और मुझे प्रेरणा मिली की मुझे आपके पास पहुँचना ही चाहिए अतः मन न होते हुए भी बगैर किसी श्रद्धा भक्ति लिए मैं आपके पास आया हूँ । कोई उपाय बताएँगे तो हम पर कृपा होगी ।
उत्तर – आपकी श्रद्धा टूट गई है, अनास्था से आपका मन घिर गया है ॽ क्या इस स्थिति के लिए कुछ हुआ है क्या ॽ
प्रश्न – नहीं । मुझे कुछ भी पता नहीं है कि क्या हुआ है ।
उत्तर – कोई बात नहीं । परन्तु अपने जीवन को यदि पुनः रसिक या सुख, शांति एवम् श्रद्धा से महेकाना हो और उज्जवल बनाना हो तो पहेले की तरह पुनः एक बार फिर नामजप की साधना को प्रार्थना के साथ आरंभ कर देना चाहिए ।
प्रश्न – प्रार्थना के साथ ॽ
उत्तर – हाँ, प्रार्थना की शक्ति असीम है, अनन्त है । प्रार्थना का आश्रय लेकर ईश्वर के पादपद्मों में आत्मनिवेदन करते हुए सात्विक सच्चे मन से प्रतिदिन यह कहते रहो कि हे प्रभु ! मेरे जीवन में सुखशांति प्रदान करो, श्रद्धा का दिपक मेरे अंतर मन में जलाओ, जीवन रस जगाओ । परिणाम यह होगा कि परम कृपालु परमात्मा की कृपा होगी ही. जीवन उज्जवल होगा, धन्य हो जाएगा । प्रार्थना तो जीवन की संजीवनी औषधि है । प्रार्थना का आश्रय लेकर उसके साथ पुनः ईश्वर नामस्मरण जाप करना आरंभ कर दो ।
प्रश्न – परन्तु मुझे उस बात में किसी प्रकार की रुचि ही नहीं है और ना ही ऐसा कुछ करने की मुझे इच्छा होती है तो मैं क्या करुं ॽ
उत्तर – मन हो या न हो किन्तु साधना का आरंभ कर दो । रोगी को हरवक्त उसकी औषधि लेना पसंद ही हो ऐसा नहीं होता । फिर भी उसे औषधि का आश्रय लेना ही पड़ता है । कभी कभी उनकी भलाई के लिए जबरदस्ती भी करनी पड़ती है । साधना आरंभ करते ही जीवन रसमय हो जाए ऐसा नहीं हो पाता । परंतु साधना करते करते जीवनरस आ ही जाएगा, यह निश्चित है । अतः रस हो या न हो, रुचि हो या न हो साधना तो करनी ही चाहिए ।
प्रश्न – मेरी अधूरी ईश्वर नाम स्मरण की साधना को पुनः कब से आरंभ करुँ ॽ आरंभ करने के लिए कौन-सा दिन शुभ होगा ॽ यह देखकर ही आरंभ करना चाहता हूँ ।
उत्तर – आप इतने दिनों तक निष्क्रिय बैठे रहे । अब ओर अधिक समय इस तरह बिना किसी वजह निष्क्रिय होकर बैठे रहना उचित न होगा । जीवन अत्यंत गतिमान है । जल के प्रवाह की तरह जीवन प्रतिक्षण आगे बढ़ता रहता है । अपने जीवन में यदि कुछ प्राप्त करना चाहते हो तो पुरुषार्थ करने में क्षणमात्र का भी विलंब नहीं करना चाहिए । आप किस प्रकार के शुभ दिन की अपेक्षा कर रहे हैं ॽ हर दिन शुभ होता है । आपके अंतरमन में उत्साह भरकर आप ही शक्ति एवम् क्षमता के अनुरूप आज से, इसी क्षण से साधना का शुभारंभ कीजिए । आप साधनारुपी पवित्र सत्कर्म करेंगे तो आपका पूरा दिन और आपका समस्त समय शुभ व अच्छा ही जाएगा । उसके लिए किसी शुभ मूहुर्त देखने की आवश्यकता नहीं है और ना ही किसी प्रकार का इन्तजार करने की आवश्यकता होनी चाहिए ।
प्रश्न – यदि मैं मेरी साधना को पुनः आरंभ करुँ तो क्या उससे मुझे मानसिक स्थिरता, शांति और प्रसन्नता की प्राप्ति होगी ॽ
उत्तर – अवश्य होगी । उसमें किसी भी प्रकार का संदेह करने की आवश्यकता नहीं है । वह उस बात पर निर्भर होगा कि आपके नियमित और निरंतर अथक प्रयास हो । वह अथक प्रयास, पुरुषार्थ ही आपको मनवांछित फल प्रदान कर सकता है ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)
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समाप्त
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