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आध्यात्मिक साधना के मार्ग में बाह्य शिक्षा की आवश्यकता क्या अनिवार्य है ? बाह्य शिक्षा आध्यात्मिक साधना में बाधक नहीं है परंतु इसके बिना भी साधना हो सकती है । अर्थात् साधना मार्ग में बाह्य शिक्षा अनिवार्य नहीं है । इस बात की प्रतीति आपको बाबा बच्चीदास के जीवन से होगी ।

बाबा बच्चीदास नितांत अशिक्षित थे । आधुनिक पाठशाला में उन्होंने अभ्यास नहीं किया था फिर भी साधना के मार्गे में वे आगे बढे थे । उनके मुख से जब अनुभवजन्य ज्ञान की बातें निःसृत होती तब सुननेवाले दंग रह जाते थे । वे सोच में पड जाते थे की इन महात्मा में एसा सर्वोत्तम ज्ञान कहाँ से आया ? किन्तु वह ज्ञान तो दीर्घ समय की सतत साधना और स्वानुभव प्राप्ति के फलस्वरूप प्रादुर्भूत हुआ था, इस सत्य की जानकारी भी उन्हें आसानी से हो जाती थी ।

भारत के धर्मशास्त्र-रचयिताओं ने गुरु की महिमा की भूरि भूरि प्रसंशा की है । अपने परम ज्ञानरूपी प्रकाश से शरणागत शिष्य के हृदयांधकार को सदा के लिए दूर करनेवाले और उसे दिव्य चक्षु प्रदान करनेवाले गुरु को शास्त्रों ने ब्रह्मा कहा है, विष्णु और महेश कहा है । इतना कहकर भी वे रुक न गये अपितु उन्हें परब्रह्म कहने के पश्चात् ही संतोष की साँस ली । इसके पीछे केवल अंधश्रद्धा, अतिशयोक्ति या भावुकता नहीं है परंतु यथार्थता है । द्वंद्वातीत, परमानंद स्वरूप, परमात्मदर्शी सदगुरू की शक्ति का जिन्होंने अपने जीवन में अनुभव किया है उन्होंने गुरू की महिमा का गान किया है - वह भी उनको अंजलि देने के लिए और अल्प मात्रा में । बाबा बच्चीदास को ऐसे ज्ञानमूर्ति, दिव्यात्मा और योगसिद्ध सदगुरू का समागम हुआ था ।

जब ये हिमालय के देवप्रयाग स्थान में रहते थे, तब बंगालीबाबा नामक एक सिद्ध पुरुष से उनकी मुलाकात हुई, जो बदरीनाथ की यात्रा करके लौटते हुए वहाँ आ पहूँचे थे । बच्चीदास उस वक्त एक छोटी-सी गुफा में रहते थे जो अलकनंदा और भागीरथी के सुंदर संगम पर स्थित थी । पहली मुलाकात में ही बंगाली बाबा ने उनके सुषुप्त संस्कारो को ताड़ लिया और उनके प्रति प्रेम प्रदर्शित किया । फिर तो बच्चीदासजी ने बडी श्रद्धा से और सोत्साह बंगाली बाबा की सेवा की । परिणामतः बंगाली बाबा प्रसन्न हुए और उन्होंने बच्चीदासजी को मंत्र दीक्षा-साधना की क्रिया बताई । बाद में गुरु की आज्ञानुसार बच्चीदासजी बदरीनाथ गये और वहाँ रहकर साधना करने लगे । उनका दिल साफ था । वे बड़ी श्रद्धा व लगन से साधना में जुट गये ।

बदरीनाथ की ठंडी असह्य होती है । नर और नारायण पर्वत के बीच फैली हुई इस भूमि में मनुष्य ज्यादा वक्त नहीं रह सकता, फिर भी बरसों तक बच्चीदासजी ने लगातार निवास किया । उसका कारण उनकी तीव्र वैराग्यवृति, नितांत एकांतप्रियता, प्रखर साधनापरायणता एवं तीव्र तितिक्षा को माना जा सकता है ।

इन विशिष्ट गुणों के बगैर वो शायद ही वहाँ रह सके होते । उस एकांत, शांत, सुंदर, स्वर्गीय प्रदेश में रहकर उन्होंने लगातार साधना की और अंत में शांति और सिद्धि प्राप्त की ।

उनके कारण बदरीनाथ की महिमा बढ़ गई । बदरीनाथ की यात्रा पर आनेवाले श्रद्धालु नरनारी उनके दर्शन को जाते और उनके सत्संग का लाभ लेते थे । अंतिम वर्षो में तो वे ज़ाडे में भी बदरीनाथ के आसपास ही रहते । वहाँ ऋषिगंगा एवं अलकनंदा के संगम के पास कुटिया में निवास करते थे ।

१९४४ में मैंने उसी कुटिया में उनकी मुलाकात ली । मैंने देखा की उनके मुख पर असीम शांति एवं आँखो में असाधारण दीप्ति और कृतार्थता की छाया थी । इससे लगता था की उन्होंने जीवन का ध्येय सिद्ध कर दिया हो । हमारे सामने वे शांतिपूर्वक बैठे थे । आत्मश्रद्धा, गुरुश्रद्धा एवं अनवरत पुरुषार्थ से साधक (इश्वरकृपा से) मानवजीवन की सार्थकता की कितनी उच्च कक्षा पर पहूँच सकता है इसकी प्रतीति उन्हें देखकर होती थी ।

उन्हें देखकर मेरे मन में उनके प्रति अत्यधिक आदर पैदा हुआ ।

‘नर यदि करणी करे तो नारायण हो जाय’ - यह बात संपूर्ण सत्य है, परंतु नर यदि पूर्ण श्रद्धाभक्ति से दिल खोलकर करणी करे तब न ? हजारों-लाखों लोग ऐसे हैं जो नारायण होने की बात तो जाने दीजिए, मानव होने का भी पुरुषार्थ सच्चे अर्थ में नहीं करते । अगर वे जीवन की महत्ता को समझकर बच्चीदासजी की भाँति प्रबल पुरुषार्थ करे तो अवश्य नारायण बन सके ।

कई संतपुरुष भक्तों या दूसरों को प्रभावित करने के लिए चमत्कार दिखाते हैं । मानव का एक वर्ग – बहुत बडा वर्ग – ऐसा है जो संतो के बाह्य चमत्कारों से चकाचौंध हो जाता है और उनसे प्रभावित हो जाता हैं । ऐसे चमत्कारप्रिय लोग पूछेंगे, ‘बाबा बच्चीदासजी कोई चमत्कार करके दिखाते थे क्या ?’ उनकी जिज्ञासावृति के जवाब में स्पष्टता कर दूँ की वे कोई चमत्कार नहीं करते । चमत्कार केवल आध्यात्मिक विकास के परिणामस्वरूप ही पैदा होता है, ऐसा नहीं है । इसके पीछे हस्तकौशल, तंत्रोपासना और अन्य विद्याएँ भी काम करती है । इसलिए ऐसे चमत्कारों से दंग रह जाने की आवश्यकता नहीं है ।

चमत्कार करने की शक्ति कोई बाजारू चीज या जादू-टोने के खेलों की तरह तमाशा दिखाने की या व्यापार करने की वस्तु नहीं है, की उसका प्रयोग जहाँ-तहाँ और जब-तब हो सके । जिनमें चमत्कार करने की सच्ची शक्ति होती है वे भी जहाँ-तहाँ उसका प्रदर्शन नहीं किया करते । ये तो कभी, अति अनिवार्य हो तब, सहज ही हो जाते है । सच देखा जाय तो यह पूरा जगत चमत्कार-रूप है ।

मानवशरीर ही सबसे बडा चमत्कार है । यह शरीर धारण करके जो काम, क्रोध, राग, द्वेष और अपनी प्रकृति के अन्य मलिन तत्वों के साथ लडकर विजयी बनते हैं, संसार के विषयों की मोहिनी में से मन को प्रतिनिवृत करके इश्वर के स्वरूप में जोड़ते है, मन व इन्द्रियों पर संयम स्थापित करते है और इस तरह ईश्वर-साक्षात्कार का अनुभव कर अज्ञान एवं अशांति में से छुटकारा प्राप्त कर धन्य बनते हैं, उनके द्वारा किया हुआ चमत्कार निराला, अमूल्य एवं आशीर्वाद स्वरूप है । यह चमत्कार ही अनुकरणीय व वांछनीय है । जीवन का श्रेय रूपी साधन के इस महान चमत्कार के सामने बाहर के कोई गहन-गुप्त चमत्कार की कोई बिसात नहीं है ।

बाबा बच्चीदासजी, अन्य आदर्श संतो की भाँति ऐसा चमत्कार करके धन्य बन गये थे !

- श्री योगेश्वरजी

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