भक्त कवि निष्कुलानंद ने ठीक ही कहा है ‘त्याग न टके रे वैराग्य विना’ अर्थात् बैराग्य के बिना त्याग नहीं टिकता । भेष तो वैरागी का लेते है किन्तु जीवनध्येय छूट जाता है । ज्यादातर संन्यासीयों की यही अवस्था है । अन्य साधकों के बारे में भी ऐसा ही होता है । फलतः वे अपने जीवन को सफल व सार्थक नहीं कर पाते ।
त्याग, संन्यास व एकांतिक जीवन आकर्षक है, आदरणीय है, परन्तु उसके पीछे बैराग की पृष्ठभूमिका आवश्यक है । ऐसे व्यक्ति को संन्यास के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करने में लग जाना चाहिए । आज से लगभग तीन साल पहले अपूर्ण योग्यतावाले जिज्ञासु अमरिकन सज्जन ऋषिकेश में आ बसे थे । वे परिचय होने पर मुझे बार-बार मिलने आते । वे अत्यंत धनवान थे । वे रेशमी गेरुआ रंग का कुर्ता पहनते थे । उन्हें दर्शन व योगसाधना में दिलचस्पी थी । देश में घुमकर अनेक ज्ञात-अज्ञात संतपुरुषों के समागम का उन्होंने लाभ लिया था ।
एक बार रात को जब वे मुझे मिलने आए, उन्होंने मुझसे पूछा: ‘क्या भारत में किसी उच्च कोटि के शक्तिसंपन्न महात्मा विद्यमान है ?’
मैंने कहा, ‘क्यों नहीं ? जिसके दिल में ऐसे महात्माओं के मिलन की लगन है, उन्हें वे मिल ही जाते हैं ।’
कुछ देर के बाद वे फिर बोले, ‘मेरा विचार किसी योग्य गुरु के पास संन्यास लेने का है । मैं गेरुआ कुर्ता तो पहनता हूँ मगर मैंने विधिपूर्वक संन्यास नहीं लिया ।’
मैंने कहा, ‘संन्यास कोई लेने की चीज नहीं है, वह किसी को दिया नहीं जा सकता । वह तो स्वतः उगनेवाली वस्तु है । संन्यास न तो सौदा है, न कोई व्यापार; वह तो जीवनविकास की आभ्यन्तर अवस्था है । फिर भी यदि आप विधिपूर्वक संन्यास लेना चाहते है तो अभी न ले ऐसी मेरी सलाह है ।’
‘कारण ?’
‘कारण यह कि आपके हृदय में उसके लिए आवश्यक वैराग्य का अभाव है ।’
‘मेरे हृदय में गहरा वैराग्य है ।’
‘बिलकुल नहीं । कह दूँ आपके हृदय में क्या है ? उसमें एक पच्चीस साल की अमरिकन लडकी बसी है । आप उसे बहुत चाहते है फिर भी उसे छोडकर यहाँ चले आये है । वह लडकी अभी बिमार है और न्यूयोर्क के अस्पताल में है ।’
मेरी बात से वे अमरिकन सज्जन चौंक उठे । उन्होंने कहा, ‘आपने यह सब कैसे जाना ?’
‘कैसे जाना यह प्रश्न अलग है परन्तु मेरी बात सच है या नहीं ?’
‘सच है ।’
‘बस तब तो ।’
दूसरे दिन वे एक छोटा-सा आल्बम लेकर आये, जिसमें उस अमरिकन लडकी की तसवीरें थी । एक में उसने सुंदर तरीके से शीर्षासन किया था, दूसरी में हलासन, तीसरी में पद्मासन, चौथी में पश्चिमोत्तानासन किया था । अन्य सामान्य तसवीरें थी ।
मैंने कहा, ‘इतनी सुंदर व संस्कारी लडकी है फिर भी उसे छोडकर यहाँ आ गये और अब संन्यास लेना चाहते हैं ? न्यूयोर्क जाइये और उसे अपना बनाइये । आपके दिल में जब तक उस लडकी के लिए लालसा या वासना भरी है, तब तक आप बाह्य संन्यास लेंगे फिर भी सफलता नहीं मिलेगी । आप अपने त्याग की शोभा नहीं बढा सकेंगे ।’
मेरी बात का उन पर असर पडा । वे बोले, ‘मैं संन्यास लेना नहीं चाहता पर मुझे आपके आशीर्वाद चाहिए । वह लडकी शीघ्र स्वस्थ हो जाय ऐसा आशीर्वाद दीजिये ।’
‘ईश्वर उसे अच्छी कर देगा । पहले भीतरी त्याग हासिल कीजिये । भीतरी त्याग का मतलब है कामनाओं एवं वासनाओं का त्याग । फिर तो बाहर का त्याग स्वतः आ जाएगा ।’
उनके मन का समाधान हो गया ।
- श्री योगेश्वरजी