गंगातट पर स्थित उत्तराखंड के सुंदर सुप्रसिद्ध तीर्थस्थान हृषिकेश की यात्रा करनेवाले यात्री जब काली कमलीवाले की संस्था की मुलाकात लेते हैं तो उन्हें संस्था के प्रमुख भवन में काली कमलीवाला – स्वामी श्री विशुद्धानंदजी की प्रतिमा का दर्शन होता है । बाबा काली कमलीवाला एक सच्चे लोकसेवक थे जिन्होंने अपना समुचा जीवन जनसेवा में बिताया था । दीनदुःखी, अनाथ, अपंग और साधुसंतो में वे ईश्वर का दर्शन करते, उन्हें ईश्वर की प्रत्यक्ष मूर्ति मानते । उन्हें सहायता व संतुष्टि देने में कोई कसर नहीं रखते ।
उस जमाने में ऋषिकेश की धरती जंगल की भूमि थी । इसमें हिंसक पशु भी रहते थे और कभी तो दिन को भी उनका सामना करना पडता था ।
सच्चे संत-महात्मा को कोई डर नहीं होता अतः वे एकांत घने जंगलो में रहते, तपश्चर्या करते । कुछ सिद्धपुरुष भी वहाँ रहते थे तो कतिपय उच्च अवस्था पर पहूँचने की अभिलाषावाले साधक भी थे । वे प्रायः फल-फूल, कंदमूल खाकर रहते तो कुछ लोग पर्वतीय बस्ती से भिक्षा ले आते ।
ऐसी परिस्थिति में बाबा ने वहाँ कदम रखा । उनका मन तो पहले से ही संतपुरुषों के प्यार से परिप्लावित था । उन्होंने आसपास की जनता से आटा और अन्य सामग्रीयाँ लेना प्रारंभ किया । उनसे वे रसोई बनाते और अरण्य में आये आश्रमों में भिक्षा पहुँचाते ।
स्नेह, सेवा व समर्पणभाव से शुरु की गई वह प्रवृति नियमित रूप से जारी रही । ऋषिकेश आनेवाले भावुक, धर्मप्रेमी लोगों पर उसका गहरा प्रभाव पडा । इससे इस प्रवृति को जनता का सहकार प्राप्त हुआ ।
आगे चलकर धनसंपत्ति बढने पर नया मकान बनाया गया और साधुसंतो के साथ साथ गरीबों, अनाथों, पंगुओं, दीन-दुःखीयों, छात्रों, विधवाओं आदि की सेवाशुश्रुषा बडे पैमाने पर होने लगी । इस प्रवृति के पीछे अत्यंत प्राणवान, पवित्र और प्रबल संकल्प-बीज था, कोई स्वार्थ, लालसा या कामना न थी । इसमें से जो अंकुर निकला वह आगे चलकर एक विशाल वृक्ष में परिणत हुआ । सेवा का वह विशाल वटवृक्ष अनेकों के तनमन व अंतर के लिए प्रेरक व आशीर्वाद समान साबित हुआ ।
काली कमलीवाले का उद्देश्य अपने जीवन को चंदन की तरह परार्थ घिसकर दूसरों को सुवास पहूँचाना था । स्वयं संकट या मुसीबतों का मुकाबला कर दूसरे को सुखी बनाना था । इसकी पूर्ति के लिए उन्होंने जीवनभर परिश्रम किया । उन्होंने जो संस्था प्रतिस्थापित की, वही बाबा काली कमलीवाले की संस्था । भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी वह अजोड है, अनुपम है ।
इसमें भिक्षा के उपरांत दूसरी अनेक प्रवृतियाँ चलती है । इसमें औषधालय, पुस्तकालय, गौशाला, पानीघर, सत्संग-भवन, संस्कृत विद्यालय, आत्मविज्ञान भवन आदि के द्वारा विविध प्रवृतियाँ चलती है । करीब १५० संतपुरुषों, १२५ कुष्ठ रोगीयों को पंद्रह-पंद्रह दिन की खाद्य सामग्री देने का प्रबंध किया गया है । आटा-दाल आदि का लाभ लेनेवाले स्त्रीपुरुषों की संख्या २५० से ६०० तक होती है । प्रतिदिन ८०० से १००० साधु तैयार रसोई ग्रहण करते है । यात्रा के दिनों में तो यह तादाद स्वाभाविक ही बढ जाती है ।
लक्ष्मण झूले की जगह पहले रस्से का कच्चा पुल था । उसके नीचे गंगा का प्रवाह बडा ही प्रबल और वेगवान था । अतः यात्रिओं को बडी परेशानी होती । बाबा कालीकमलीवाले तो दूसरों की कठिनाइयों को दूर करने में ही आनंद का अनुभव करनेवाले थे । उन्होंने इसका इलाज करने का संकल्प किया । परम कृपालु परमात्मा ने इसका निमित्त बनाने एक शेठ को भेजा, जिसका नाम था श्री सूरजमल झुनझुनवाला । उन्होंने बाबा को धन प्रदान करने की इच्छा व्यक्त की । इस पर बाबा ने उत्तर दिया, ‘धन लेकर मैं क्या करूँगा ? मैं तो संन्यासी हूँ, इसलिए संग्रह नहीं कर सकता । हाँ, यदि आप धन का सदुपयोग ही करना चाहते है तो इस पुल को पक्का बना दिजीये । इससे लोगों का भला होगा । लोकसेवा के इस उत्तम यज्ञ में आप आहूति दें ।’
बाबा के आदेशानुसार उस शेठजी ने एक सुंदर पक्का पुल बनवा दिया, जिसे आज भी आप देख सकते है । इस पूल से गुजरनेवाले यात्रियों को पता भी न होगा कि यह तो काली कमलीवाले की सेवाभावना का साक्षात् प्राणवान प्रतीक है ।
सेवाक्षेत्र में उन महापुरुष की एक और देन भी है । उस समय बदरीनाथ की यात्रा बडी कठिन मानी जाती थी । धर्मप्राण नर-नारी अनेक कठिनाईयाँ पार करते हुए यात्रा पूरी करते थे । मोटर भी नहीं थी और मार्ग में कोई धर्मशाला भी न थी ।
बाबा ने इ.स. १८८० में बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री तथा जमनोत्री की यात्रा करके उस मार्ग की कठिनाईयों का अनुभव किया । इससे उनका परार्थी दिल दुभा । मार्ग की मुसीबतों को कम करने का संकल्प किया, जिस पूर्ण करने उन्होंने सहरानपुर, मेरठ, दिल्ली और कलकत्ता जैसे शहरों का दौरा किया और जनमत तैयार किया । वहाँ के सेवाभावी श्रीमंत-धनिकों का संसर्ग किया । फलतः उनकी भावना पूर्ण हुई । बदरी, केदार, गंगोत्री, जमनोत्री के रास्ते में लगभग ९० धर्मशालाएँ, पानीघर, औषधालय, पुस्तकालय, सदाव्रत, अन्नक्षेत्रों आदि का निर्माण किया और उसके कुशल संचालन का प्रंबध भी किया।
उत्तराखंड के उन चारों धामों की यात्रा करते वक्त बाबा काली कमलीवाले की याद हमें सहज ही आ जाती है और हमारे दिल में उनके प्रति सम्मान की भावना पैदा होती है । उत्तराखंड के अतिरिक्त हरिद्वार, ऋषिकेश, रामनगर, कनखल, कलकत्ता, कुरुक्षेत्र एवं प्रयागराज जैसे स्थलो में भी उनकी सेवा संस्थाएँ फैलने लगी ।
बाबा का जन्म पंजाब के गुजरानवाला जिले के जलालपुर नामक गाँव में सन १८३१ में एक वैश्य परिवार में हुआ था । उनका मूल नाम बिसावासिंह था । बचपन से ही उनमें वैराग्य के अंकुर पनपने लगे थे । गृहस्थाश्रम में प्रवेशित होने पर भी यह प्रवृति बनी रही । बत्तीस साल की उम्र में उन्होंने अपनी पत्नी, पुत्र एवं अन्य परिवारजनों को साफ-साफ कह दिया, ‘मेरे जीवन का शेष समय मैं लोकसेवा में बिताना चाहता हूँ ।’ उनका दृढ संकल्प आखिरकार साकार हुआ । तपोनिधि महाराज से दीक्षा ली और उनका नाम विशुद्धानंद पडा । किन्तु वे प्रायः काली कमली पहनते अतएव काली कमलीवाले के नाम से पहचाने जाने लगे । मीरां की भाँति उन्हें भी लगा होगा कि ‘ओढुं हुं कालो कामळो, दूजो दाग न लागे कोय’ अर्थात् पहनूं मैं काली कामली, दूजा दाग न लागे कोई ।
कृष्णप्रेम में आकंठ निमग्न मीरां को कोई दाग न लगा, इसी तरह लोकसेवा की लगनवाले विशुद्धानंद को कोई दाग न लगा । सेवा करनेवाला अक्सर सेवा में फँस जाता है पर विशुद्धानंद पद, प्रतिष्ठा या पैसे के मेवे में न पडे । आजीवन सेवा में ही मेवे की मीठाश महसूस करते रहे । जिस सेवाधर्म को अत्यंत गहन, सूक्ष्म, जटिल और योगीयों को भी अगम्य कहा गया है उस पर उन्होंने सफलता से कदम बढाये । जिनका हृदय दूसरों को सुखी बनाने के लिए संवेदनशीलता का अनुभव करता है, जो सदैव समर्पणभाव रखते है उसकी सेवा चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, समाज के लिए आशीर्वाद समान होती है । ऐसे महापुरुष समाज की अनमोल पूंजी है । ऐसे समाजनिर्माता ही समाज की सुरत को बदल सकते हैं ।
जीवन के अंतिम क्षणों तक अविरत सेवा करनेवाले काली कमलीवाला अपने को सेवक, सेवाव्रतधारी या कर्मयोगी कहलाने में गौरव का तनिक भी अनुभव न करते । कोई उनसे कहता कि आपने महत्वपूर्ण सेवा की है तो वे उत्तर देते, ‘आप क्या होश खोकर मुझे मान की मदिरा पीला रहे है ? कौन सेवा करता है ? मैं तो निमित्त हूँ, ईश्वर के हाथ का हथियार हूँ । वह करवाता है वही करता हूँ इससे ज्यादा कुछ नहीं ।’
आज वे विरक्त सदेह जीवित नहीं है लेकिन उनके द्वारा संस्थापित सेवासंस्थाओं और कार्यों द्वारा अमर हैं । उनके यशःशरीर को जरा या मृत्यु का भय नहीं है । आज तो साधन-सुविधा काफि हो गई है, मगर उस जमाने में इतनी सुविधाएँ न थी, प्रतिकुल परिस्थिति थी । उन्होंने उस विकट परिस्थिति में सेवा का कार्य किया उसका ब्योरे-वार प्रामाणिक इतिहास तो उनके पास ही रह गया । हमारे पास तो केवल उसकी झलक ही है ।
फिर भी, शून्य में से विराट सेवासंस्था का सर्जन करनेवाले उन संतपुरुष के लिए हमें आदर अवश्य होता है । उनका जीवन उस दोहे के समान था –
‘जननी जनै तो भक्तजन, या दाता या शूर,
या तो रहना पुत्रहीन, मत गवाँना नूर !’
- श्री योगेश्वरजी