‘मेरे गुरु ‘धूनीवाला दादा’ के नाम से पहचाने जाते थे । वे एक समर्थ सिद्धपुरुष थे और मध्यप्रदेश में रहते थे । मेरा आत्मविकास उन्होंने किया था । उन्होंने मेरी बडी भयंकर कसौटी की थी और तत्पश्चात अपनी कृपा बरसाई थी । उनकी कृपा ही मेरा सबकुछ है । उनकी आज्ञा थी कि लोगों को साधना-पथ में ले जाने के लिए आश्रम बाँधना और वह भी दक्षिणवाहिनी नदी के तट पर ही । उनकी आज्ञानुसार मैंने आज तक तीन आश्रम बनाये हैं । एक यहाँ सुरत शहर में, एक नडियाद में और एक दक्षिण में कावेरी-तट पर कुंभकोणम् में । ये सभी आश्रम दक्षिणवाहिनी नदी के किनारे पर, गाँव से दूर जंगल या स्मशान में हैं । बस्ती के साथ उन्हें कोई संबंध नहीं है । जिन्हें साधना करके आगे बढना है उन्हींको आश्रम में रखता हूँ । मेरा उद्देश्य यही है कि यहाँ रहकर मनुष्य शांति से साधना करे और सच्चे तरीके से जीवन जीने का बल प्राप्त करे । आप उस स्थान में आये इससे मुझे बडा आनंद हुआ ।’
ये उदगार थे पूज्य मोटा के जो भक्तो में हरि ओम महाराज या मोटा के नाम से प्रसिद्ध है । उनका आश्रम सुरत से छ मिल दूर तापी के दूसरे किनारे पर है । हम आश्रम के उस निवासस्थान पर पहुँचे तब खिडकी में से मुझे देख उन्होंने ‘आईए प्रभु, पधारिये’ कहकर मीठी, मधुरी, सरल, निखालस व नम्रतापूर्ण वाणी से मेरा सत्कार किया ।
पलंग पर लेटे ही उन्होंने कहा, ‘रीढ़ की हड्डी का मनका खिसक गया है इसलिए बैठने में दिक्कत होती है, अतः लेटा हूँ । डोक्टर आपरेशन के लिए कहते हैं पर मैंने तो ईश्वर पर छोड़ दिया है । वही ठीक कर देगा ।’
मोटा की ईश्वरपरायणता, नम्रता व गुरुभक्ति बडी भारी थी । उन्होंने कहा, ‘गुरु महाराज ने कभी भी कायर होना नहीं सिखाया । कायरता मेरी प्रकृति में ही नहीं है । गुरु कुछ भी कहें वह करने तैयार रहता हूँ । एक बार गुरु ने कसौटी करने के लिए आज्ञा की कि सागर में कूद पडो और मैं कूद पडा । जिसने आज्ञा दी उसीने हमारी रक्षा भी की ।’
‘शंकराचार्यजी के जीवन में भी ऐसा प्रसंग आता है न !’ मेरे स्मरणपट पर शंकराचार्य उपस्थित हुए ।
‘वह प्रसंग कह सुनाईए, प्रभु !’ मोटा बोले, ‘आपके मुँह से कुछ सुनाइये, मैं पढा-लिखा नहीं हूँ ।’
मोटा की नम्रता भी बहुत उच्च कोटि की थी । मैंने कहा, ‘जो सच्चा पढना है वह तो आपने पढ लिया है । किसी ओर पढाई की क्या जरुरत हैं ?’
‘ना, ना, प्रभु सुनाइए न ।’
‘शंकराचार्यजी नर्मदा में स्नान करते करते सामने के किनारे पहूँच गये और वहाँ से अपने शिष्यों के पास कपडे माँगे । नदी में कूदने की किसी में हिम्मत न थी अतः सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे । आखिरकार एक श्रद्धालु शिष्य ने कपडे ले नदी में चलना शुरु किया । उसने जब एक कदम रखा तो वहाँ एक सुंदर कमल हो गया । इस तरह प्रति पद पर कमल की सृष्टि होती गई और उस पर पैर रखकर वह शंकराचार्य के निकट पहूँच गया । शंकराचार्य ने उसकी श्रद्धाभक्ति देखकर उसे धन्यवाद दिया और उसके पैर के नीचे कमल प्रकट हुए थे अतः उसका नाम पद्मपादाचार्य रखा । कितनी अदभूत है श्रद्धा की महिमा !’
‘वाह, प्रभु वाह !’
थोडी देर बात करने के बाद पूज्य मोटा ने हमें आश्रम दिखाने का प्रबंध किया ।
आश्रम का वातावरण बडा ही शांत व सुंदर था । निकट ही तापी नदी का प्रवाह बह रहा था जिससे आश्रम की शोभा में चार चाँद लगते थे । आश्रम बहुत छोटा है पर उसका काम बडा है । देश में आश्रम तो बहुत हैं पर यह आश्रम विलक्षण है । यहाँ अन्य किसी आश्रम की तरह कोई प्रवृति नहीं होती है किन्तु आत्मविकास की साधना की ओर ही साधको का ध्यान खींचा जाता है । साधकों या एकांत-प्रेमीयों को रहने के लिए अलग कमरे के व्यवस्था है जिसमें बाथरूम और पैखाने की स्वतंत्र व्यवस्था है तथा झूले भी रखे गये हैं । पूर्वसंमति प्राप्त कर कोई भी स्त्रीपुरुष उस कमरे में सात, चौदह या इक्कीस दिन रह सकता है । उस समय संपूर्ण एकांतवास करना होता है । कमरे नितांत बंद रखे जाते है । दिवार में एक खिडकी है जिसमें भोजन की थाली रखी जाती है और निर्धारित समय पर चा या दूध भी रखा जाता है । एकांतवासी व्यक्ति कपडे भी उसी जगह रख देते है । वहाँ से हररोज कपडे धोने के लिये लिए जाते हैं । सुबह चार बजे उठना और रात को आठ बजे सोना अनिवार्य माना जाता है । मंगलवार के प्रभात जब नये एकांतवासी आते थे उस वक्त मोटा उनके सामने प्रवचन करते थे । उनकी वाणी का लाभ व्यवस्थित रूप से तभी मिल सकता था ।
- श्री योगेश्वरजी