सत्याग्रह की झाँकी
मैं जब बंबई आश्रम में रहता था तब देश में आझादी की लड़ाई जोरों में थी । गाँधीजी जब भी बंबई आते तो उनको देखने-सुनने के लिए लोगों का ताँता लगता । चौपाटी पे अक्सर सभा होती औऱ देश के बड़े-बड़े राजनेता उसमें उपस्थित रहते । मैं भी उनको देखने जाता । एक साल कुछ विशेष ही बात हुई । गाँधीजी हमारे आश्रम के आंगन में रोज सुबह की प्रार्थना के लिए आये । एख दिन सुबह जब वो प्रार्थना के लिए आ रहे थे कि उनको गिरफतार किया गया । उन दिनों बंबई देश का अग्रगण्य शहर था और राजकीय नक्शे पर उसकी प्रधान भूमिका थी । मैं उन दिनो छोटा था और मुझे सत्याग्रह और असहकार के बारे में बतानेवाला कोई नही था । कोंग्रेस और उसके कार्य के बारे में मैं बिल्कुल अनजान था । आश्रम के संचालको ने भी हमें ज्ञात करने की कोई कोशिश नहीं की । नतीजा यह निकला की देश की तत्कालीन परिस्थिति से हम अनभिज्ञ रहे । अगर किसीने हमें बताने का कष्ट किया होता तो देश के लिए कुछ करने की, कम से कम देश में क्या चल रहा है, गाँधीजी क्या करना चाहते है और मेरे जैसे छात्र किस तरह अपना सहयोग प्रदान कर सकते है – ये सब अच्छी तरह से समज में आता । शायद कुछ छात्रों में देश के लिए कुछ कर दिखाने की तमन्ना भी पैदा होती । देशनेताओं की बातें सुनकर हमें भी प्रेरणा मिलती और आगे चलके हम कुछ कर सकते । मगर अफसोस की बात थी की ऐसा कुछ नहीं हुआ । इस हिसाब से देखा जाय तो मेरे जीवन के शुरु के बीस साल मानो अंधेरे में ही बीत गये ।
हाँ, इतना जरुर समझ में आया की गाँधीजी एक सच्चे देशभक्त है और देश को आझाद बनाने के लिए वो अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रहे है । अंग्रेजो को देश से बाहर निकालने के लिये वो संघर्ष कर रहे है और जरुरत पड़ने पर कई बार जैल में भी जा चुके है । मेरे मन में गाँधीजी के प्रति सम्मान की भावना पैदा हुई । उनके जीवन से प्रेरणा पाकर मुझे भी आगे चलकर एक महान पुरुष बनने की और लोगों का भला करने की इच्छा हुई ।
लेखन में रुचि
लेखन की रुचि मुझ में कैसे पैदा हुआ ये भी जानने जैसा है । जब मैं छोटा था तब मुझे किताबें पढ़ने का शौक था । हमारे आश्रम में किताबघर था जिसमें तरह-तरह के सामायिक व दैनिक पत्र आते थे । रविवार को जब किताबघर सबके लिए खुला रहता तब, वहाँ जाकर मैं 'छात्रालय', 'शिक्षण-पत्रिका', 'बालजीवन', 'कुमार', 'प्रस्थान', 'शारदा', 'नवचेतन' व 'गुजरात' जैसे सामायिक ब़ड़े ही ध्यान से पढ़ता । उनमें प्रकट काव्य व लेख पढ़ना मुझे अच्छा लगता । उस वक्त मेरी उम्र करीब बारह-तेरह साल की होगी । हमारे आश्रम में उस दौरान एक हस्तलिखीत मासिक निकलना शुरु हुआ । तंत्री की जिम्मेदारी शंकरलाल चोक्सी को दी गई, जीनके अच्छे स्वभाव से मैं परिचीत था । मुझे लगा की इस पत्रिका में मुझे कुछ लिखना चाहिए । एक दिन हिंमत जुटाकर मैंने गाँव के शिक्षक के बारे में एक छोटा सा लेख लिखा और उनको दिया । पढ़कर वो बहुत प्रसन्न हुए और न केवल मुझे सराहा बल्कि अन्य छात्रों को भी उसके बारे में अवगत किया ।
हमारे यहाँ गुजराती में एक कहावत है की 'वखाणेली खीचडी दांते वळगे' मतलब बेवजह प्रशंसा करने से बाद में पछताना पड़ता है । शायद वो सही है लेकिन सभी स्थितियों में उपयुक्त नहीं है । लोग अक्सर कीसी की बेवजह टीका करने लगते है जिससे सुननेवाला आदमी निराश हो जाता है । साहित्य के बारे में भी यह सही है । कभी किसी साहित्यकृति के बारे में विवेचन करने की बारी आती है तब विवेचक अपनी बुध्धि का प्रदर्शन करने के लिए लेखक की आलोचना करने लगता है, और उसीमें आनंद लेता है । लेखक की अवस्था जैसे कोइ मदोन्मत हाथी ने अपनी सूँढ में कोमल कमल उठा लिया हो ऐसी हो जाती है । इससे कइ नये लेखक अपने लेखन प्रारंभ करने की अवस्था में ही मुरझा जाते है । अगर विवेचक सहानुभूति से नये लेखक को तराजू में तौलेगा तो उससे काफि लाभ होगा । विवेचक को ये याद रखना चाहिए की उनका कर्तव्य न केवल लेखन की समीक्षा करना है बल्कि लेखक को प्रोत्साहन देकर आगे बढ़ाना भी है । मेरा कहने का ये मतलब नहीं है की विवेचक को कीसी भाट की भाँति बस लेखक की प्रसंशा ही करनी चाहिए मगर लेखक की क्षतियों के साथ-साथ उसकी खुबीयों को भी सामने लाना चाहिए । जैसे एक माँ अपने बालक की छोटी-छोटी चेष्टाओं को सहारती है और आत्मविश्वास देती है बिल्कुल उसी तरह विवेचक को नये लेखको कों उभारने में अपना योगदान देना चाहिए ।
शंकरभाई के प्रोत्साहन से मेरा उत्साह दुगुना हो गया । अगर उन्होंने मेरी आलोचना की होती तो शायद मेरी लेखन की रुचि वहाँ ही खत्म हो जाती । मगर ऐसा नहीं हुआ और उनके प्रेरणावचन से मुझे ओर लिखने की ताकत मिली । मैंने दो-तीन लेख और एक-दो गीत ओर लिखें । छात्रों में मेरी बातें होने लगी । जब मेरी उम्र चौदह साल की थी तब हम सब छात्रों ने मिलकर एक स्वतंत्र द्विमासिक 'चेतन' निकालना शुरु किया । मेरे सहाध्यायी नारायणभाई जानी ने उसमें मेरी काफि मदद की । गाँव के शिक्षक के बारे में लिखे एक छोटे-से लेख से शुरु हुई मेरी लेखन-यात्रा आगे बढ़ती रही और नये मुकाम पार करती रही । आज ये यात्रा मेरी आत्मकथा के रुप में आपके सामने प्रस्तुत हो रही है ।