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Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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रामकृष्णदेव के जीवनचरित्र के पठन का जरुर वो प्रथम अवसर था, मगर आखरी नहीं । उसके बाद मैंने उसका कई बार पठन किया । उसे पढना और मन में रटना जैसे उन दिनों मेरा नित्यक्रम बन गया था । भगवद् गीता की तरह रामकृष्णदेव का जीवनचरित्र मेरा प्रिय पुस्तक बन गया ओर वक्त के साथ उसके प्रति मेरा झुकाव बढता चला । उस महापुरुष की जीवनी से मुझे बड़ा लाभ पहुँचा । मेरा हृदय उनके जैसे महापुरुष के मिलन के लिए बेताब हो उठा । अश्रु भरी आँखो से विनति करना कई दिनों तक जारी रहा । रामकृष्णदेव का जीवन पढने के बाद ऐसे अन्य समर्थ महापुरुषों के जीवनचरित्र पढने की मुझे जिज्ञासा हुई । फलस्वरूप मैंने स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि दयानंद और स्वामी श्रद्धानंद के जीवनचरित्रों को पढा । चैतन्य महाप्रभु का जीवन पढा । स्वामी भास्करानंद, ब्रह्मानंद, पयहारी बाबा और तैलंग स्वामी के जीवन को भी पढा । महान पुरुष बनने की भावना मुझमें दृढ होती चली । महापुरुषों के जीवन को पढने से ये अच्छी तरह से ज्ञात हुआ की जीवन को सात्विक व सदगुणी बनाना अत्यंत आवश्यक है और उसको नजरअंदाज करने से कुछ हासिल नहीं होता । सात्विकता व सदगुण जीवन के आधारस्तंभ है और जो आदमी इस बुनियाद पर ध्यान नहीं देता वो कितना भी महान क्यूँ न दिखता हो, सही मायने में वो महान नहीं कहलायेगा । सदगुणी जीवन, सात्विक स्वभाव, अच्छे विचार और उत्तम कर्म आदमी को उन्नत बनाते है । संतो के जीवन से मुझे यह प्रेरणा मिली ।

रामकृष्णदेव के जीवन से एक और बात भी सामने आयी की ईश्वर का अस्तित्व हैं और उसकी प्राप्ति की जा सकती है । परमात्मा के दर्शन के लिए उन्होंने कठोर साधना का आधार लिया था वो मैंने पढा । उसके प्रत्याघात मेरे दिल में भी उठने लगे । मैंने मन ही मन ठान ली की मुझे भी ईश्वर के दर्शन करने हैं, चाहे उसके लिए कितना भी कठोर परिश्रम क्यूँ न करना पडे । दिल की गहराईयों में उनके जैसे समर्थ संत और ईश्वर के परम कृपापात्र बनने की ईच्छाने जन्म लिया । मैं जानता था कि उनके जैसा बनने के लिये हृदय की शुद्धि, मन व ईन्द्रियों का संयम तथा ईश्वर के प्रति प्रबल प्रेम की आवश्यकता है । ईश्वर की कृपा पर भरोंसा रखके ईस रास्ते पर चल पड़ने की बात दृढसंकल्प बन गई ।

ईसे या तो ईश्वर की कृपा मानो या पूर्व के संस्कार, जो भी हो, मेरे मन में भावि जीवन का दृश्य स्पष्ट होता चला । आध्यात्मिक उन्नति जीवन का लक्ष्य बन गई । ईससे मेरे जीवन में परिवर्तन की प्रकिया का प्रारंभ हुआ । दिन का बहुत सारा समय में छात्रो से दूर एकांत में व्यतीत करने लगा । फूरसत के वख्तमें अच्छी किताबें पढना या तो उन्नत भावि के बारे में सोचनेका एक स्वाभाविक क्रम बन गया । बाद में तो यूँ हुआ की दोपहर तक मैं स्कूल में रहता और फिर हेंन्गींग गार्डन की और निकल पड़ता । वहाँ जाकर कीसी पैड़ की छाया में बैठकर अपने भावि जीवन के बारे में सोचता । हेन्गींग गार्डन के बीच के हिस्से में एक छोटा सा झरना बहेता था, जो मुझे बहुत पसंद था । वहाँ पंखीयों की किलकिलाहट मुझे बहुत भाती । मैं अक्सर उस जगह पर पानी में अपने पैर रखके घंटो तक बैठा रहता । ईसी तरह न जाने मेरी कितनी शाम वहाँ बीती होगी । हेंगीग गार्डन के अलावा कई दफ़ा मैं चौपाटी के विशाल समुद्रतट पर जाकर चक्कर लगाता ।

जब मैं हेंन्गींग गार्डन जाता तो मुझे यही लगता की मैं कीसी विश्वविद्यालय में दाखिल हो रहा हूँ । कुदरत भी क्या एक विश्वविद्यालय से कम है ? चार दिवारों में सीमटी हुई युनिवर्सीटी की तुलना में यहाँ कुछ कम शिक्षा मिलती है ऐसा मैं नहीं मानता । अगर आदमी अपनी आँख खुली रक्खें तो कुदरत से बहुत कुछ सिख सकता है । नदी, पहाड, पैड, तालाब, झरनें, उषा व संध्या जीवन परिवर्तन के कुछ अनमोल पाठ देते है । मैंने उसी शिक्षा का अनुभव किया हैं और मुझे उससे बडी शांति मिली है । शायद मेरे ईस प्रकृतिप्रेम की वजह से ही ईश्वर ने मेरे आनेवाले जीवन के लिए हिमालय का प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर प्रदेश पसंद किया होगा ।

कुदरत की संनिधि में घंटो बिताना पंसद था उसका कोई गलत मतलब न निकाले की पढाई के प्रति मेरा ध्यान नहीं था । पढ़ाई मुझे अच्छी लगती थी वो मैं आगे बता चुका हूँ । हाँ, ये बात सही है की मुझे अपनी ग्रहणशक्ति पर पूरा विश्वास था ईसलिए मैं पढाई की ज्यादा चिंता नहीं करता था । इम्तिहान के दिनों में मैं कड़ी पढाई करता और मेरा नंबर हमेंशा प्रथम तीन छात्रो में रहता । ईसी कारण प्राध्यापको कों शिकायत करने का कोई मौका नहीं देता था । तेजस्वी छात्र होने की वजह से उनकी नजरों में मेरा स्थान सदैव बना रहा ।

संस्था के नियमानुसार छात्र उपरवाले होल में सोते लेकिन एकांत व शांत वातावरण के लिए मैंने छत पर सोना शुरु किया । बारिश़ के दिनों में मैं छत के पास लगी गेलेरी में पड़ा रहता । वहाँ सोना संस्था के नियमो से हट के था, मगर मेरी प्रतिष्ठा तेजस्वी छात्र की थी ईसी वजह से गृहपति ने कभी बाधा नहीं डाली । एक दफे बात निकलने पर उन्होंने मुझे पूछा तो मैंने कहा की मुझे एकांत प्रिय है, और बात वहीं खतम हो गई । तब से मेरा काम आसान हो गया ।

रात को जल्दी उठकर मैं प्रार्थना व ध्यान करता । करीब रात को एक बजे मैं निंद्रा त्याग करता और कुछ देर चलते-चलते प्रार्थना करता । बाद में बिस्तर में बैठकर ध्यान करता । ध्यान कैसे करना उसकी कोई जानकारी मुझे नहीं थी । सिर्फ ईतना पता था की श्वासोश्वास की गति का किसी तरह नियंत्रण करना है । मैंने रामकृष्णदेव की जीवनी में पढ़ा था की वो मध्यरात्रि को वस्त्रों का त्याग करके ध्यान का अभ्यास करते थे तो मैंने भी उसका अनुकरण किया । लिकेन ऐसा करने से क्या मुझे भी रामकृष्णदेव की तरह समाधि का अनुभव होता ? ध्यान से शरीर की विस्मृति नहीं हुई फिर भी इन दिनों अन्य कई साधकों की तरह मेरा मन ज्यादा भटकता नहीं था, अतः ध्यान में मुझे बड़े आनंद का अनुभव होता था ।

 

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