कई साधक प्रातः जल्दी उठकर जप व ध्यान करने की कोशिश करते है लेकिन उन्हें नींद परेशान करती है । साधक ईससे अक्सर निरुत्साहित हो जाते है । ऐसे साधको कों मेरी नम्र गुजारिश है की बिस्तर का त्याग करने के तुरंत पश्चात उन्हे अपना मुँह पानी से अच्छी तरह धो लेना चाहिए । अगर ऐसा करने के बाद भी नींद का आक्रमण जारी रहे तो कुछ समय के लिए अपने कक्ष में चलते चलते प्रभुस्मरण करना चाहिए । साधकों को लिए एक ओर अहम बात यह है कि उन्हें शाम भरपेट खाना नहीं चाहिए तथा शाम का भोजन हो सके उतना जल्दी ले लेना चाहिए । एसा करने से उनको सुबह ध्यान करने में आसानी होगी । कई लोग रात्रि को देर से भोजन लेते है और फिर तुरंत लेट जाते है । आरोग्य के लिए ये बिल्कुल लाभदायी नहीं है । ऐसे लोगों को अपने स्वास्थ्य के बारे में सोचकर ईस से मुक्त होना होगा । साधको के लिए ईस बात को दोहराने की आवश्यकता नहीं है । ऐसा न करनेवाले साधक पर नींद, सुस्ती, कुविचार व कुस्वप्न का आक्रमण होगा और उसे साधना के आनंद से वंचित रहेना पडेगा ।
आश्रम में शाम छ बजे भोजन होता था और नौ बजे सबको सोना पड़ता । ईसी वजह से मुझे रात को जल्दी उठने में कोई खास दिक्कत नहीं होती थी और प्रार्थना व ध्यान के दौरान मुझे सुस्ती नहीं सताती थी । वैसे भी बचपन से मेरा मन कुछ शांत रहता, उसमें ज्यादा संकल्प-विकल्प नहीं उठते थे । जब मैं बैठकर फुलों व पत्तों को निहारता, सागर में उठती लहरों को देखता, रात के अंधेरे में खुले आकाश में टिमटिमाते तारों का निरीक्षण करता या फिर हेंगिग गार्डन में बैठकर व्योम से गुजरते बादलो से बातें करता तो मेरा मन कोई विशेष प्रयत्न बिना ही स्वाभाविक शांत हो जाता । ध्यान करने के वख्त मन को निर्विचार व शांत करने के लिए मुझे कोई विशेष कोशिष करने की आवश्यकता नहीं रहती । ईसी कारण जो समस्या आम साधको कों सताती है उसने मुझे ईतना परेशान नहीं किया ।
हाँ, मेरी परेशानी कुछ और थी । मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या ध्यान में अपने शरीर का विस्मरण करना व समाधि में प्रवेश करना थी । कोई विशेष ज्ञान या अनुभव के बिना मैं अकेला अपनी कोशिष में जुटा रहता । जिन्दगी के कई साल ईस तरह बीत गये तब जाकर मेरे लिए समाधि में प्रवेश करना संभव हुआ । संघर्ष के उन दिनोंमें मुझे किसी का मार्गदर्शन नहीं मिला । उस वक्त अगर किसी अनुभवी व्यक्ति या समर्थ गुरु का मार्गदर्शन मिलता तो काम थोडा आसान बनता । फिर भी न तो मैं निराश हुआ या न तो मैंने अपने प्रयत्नों में किसी तरह की सुस्ती दिखाई । मेरी श्रद्धा, भावना व महत्वकांक्षा दिन-ब-दिन बढ़ती चली । उसमें किसी तरह की कोई रुकावट नहीं आयी । मेरे साधना के उपवन को मैंने माली बनकर बडे ही प्यार से सँवारा और सजाया ।
एक ओर बात का उल्लेख करना यहाँ अनुचित नहीं होगा । रामकृष्णदेव की जीवनी के पठन की असर हो या पूर्व के कोई अज्ञात संस्कार, मुझे उन दिनों ऐसा लगा की ईश्वर की आराधना माँ के स्वरूप में करनी चाहिए । अतः मैंने ईश्वर को माँ जगदंबा के रूप में निहारकर पुकारना प्रारंभ किया । प्रार्थना के बारे में मेरा ज्ञान सीमित था । न तो मुझे ये मालुम था कि कीस तरह प्रार्थना करनी चाहिये और न तो ये पता था कि कब और कहाँ करनी चाहिए । बस मुझे ईतना पता था कि वो संसार की माता है और मै उसका बालक । वो सब जगह मौजूद है और मेरी कुछ क्षतियों के कारण मुझे नहीं दिखाई देती । जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के लिए रोता है उस तरह मुझे भी उसके लिए रोना चाहिए, अपने दिल को उसके आगे खुल्ला करना चाहिए । उसकी कृपा की कामना करनी चाहिए और निरंतर करनी चाहिए । उन दिनों रामकृष्णदेव के वचनों को अभ्यास हररोज होता रहता था जिससे ईस भावो में सहायता मिलती थी ।
हररोज शाम को भोजन के पश्चात मैं संस्था की अगाशी में चला जाता । कई दफा संस्था के मैदान में लगी चकडोल पर बैठता या संस्था से निकलकर चौपाटी के समुद्रतट पर जा पहूँचता । भाव की अवस्था में जगदंबा के दर्शन के लिए बिनती करते करते मेरी दशा कुछ अजीब हो जाती । हृदय रो पड़ता और आँख में से अश्रु निकलने लगते । भावोर्मि की उन दशा में मैं अपना मस्तक जमीन पर रगड़ता, लेटकर बैचेन होकर कराँहे भरता । माँ को प्रबलता से कहेता कि माँ, मुझे शुद्ध, बुद्ध व मुक्त कर । मेरी अशुद्धियों को दूर कर । मेरी सभी निर्बलता का नाश कर । मैं तेरा बालक हूँ, मुझे अपने से दूर मत रख, मेरे सामने प्रगट हो जा । मेरे नैन तेरे दर्शन के लिये बाँवले हो उठे है । हे माँ, तुम तो सर्वसमर्थ हो, तुम्हारे लिए नामुमकिन कुछ भी नहीं । मुझे दर्शन दो, मुझ पर अपनी करुणा बहाओ । दौडकर मेरे पास आ जाओ और मुझे अपनी गोद में उठा लो ।
भाव की ईस अवस्था में कई घंटे निकल जाते । आरंभ में सायंकाल से शुरु हुआ ये क्रम फिर बढ़ता गया । अब दिन में भी बैचेनी महसूस होती और प्रार्थना अपने आप होती रहती । सुबह का काफि वक्त मैं हेन्गींग गार्डनमें व्यतीत करने लगा । नभ में उषा व संध्या के समय बदलते हुए रंगोमें मैं माँ को देखता और करुण भाव से प्रार्थना करता । उस वक्त किसी के साथ मुझे बात करना भी अच्छा नहीं लगता । अगर कोई मुझे उस वक्त देखता तो उसे बड़ा अचरज होता मगर मेरी अवस्था ही कुछ ऐसी थी । मेरी दिमागी हालत का अंदाजा लगाना आम छात्रों के लिए कठिन था । शायद उनमें ईसे समझने की भूमिका या पात्रता का अभाव था और मुझे अपनी अवस्था की अभिव्यक्ति करने की जरूरत भी नहीं थी । किसी को ज्ञात न हो ऐसी एकांत जगहमें मैं अपना काम जारी रखता । दिल का दर्द अभिव्यक्त करता रहता ।
ये अवस्था मेरे चौदह साल के बाद से शुरु होकर तकरीबन तीन साल की झाँकी कराने के लिए पर्याप्त है । ये पढ़कर किसी को ये शंका होने का संभव है की ईतनी छोटी अवस्था में ऐसे भावों का अनुभव होना क्या मुमकिन है ? लेकिन जो व्यक्ति पूर्वजीवन में आस्था रखती हो उसे ये शंका नहीं होगी । ये जन्म प्रथम नहीं, ईसके पहले कई जन्म हो चुके है । पूर्वजन्म के संस्कार अपनी निशानीयाँ छोड जाते है जो नये जीवन के प्रारंभ में प्रकट होकर कार्य करना शुरु करते है । ईसी वजह से अगर किसी की उमर छोटी दिखे तो उसकी गिनती बच्चों मे करना भूल होगी । जीवन का चक्र अनंत है और वर्तमान जीवन धारण करने से पहले जीव ने कई जन्म व्यतीत किये है । ईसी वजह से कभी छोटी उमर में किसी विशेषता का दर्शन होता है तो उससे हैरत में पड़ जाने की जरूरत नहीं है । मेरी अवस्था को ईसी भूमिका से देखने पर आपको समझने में आसानी होगी । ध्रुवजीने केवल पाँच साल की उमर में तप करना प्रारंभ किया और प्रभु का दर्शन कर लिया । शंकराचार्य, शुकदेव, जड़भरत, नारदजी व अष्टावक्र और ज्ञानेश्वर महाराज ने छोटी उमर में बहुत कुछ हासिल किया । उसकी तुलना मे मेरी अवस्था कुछ भी नहीं फिर भी मेरा कहने का उद्देश्य ये है कि पूर्वजन्म के संस्कार अपना कार्य करते है ।
दिव्य प्रेम की यह दशा दिन-ब-दिन बढ़ती चली । हरएक पौधे में, पत्ते में – सभी जगह माँ नजर आने लगी । रात को जब मैं चौपाटी के समुद्रतट पर खड़ा रहता और जोर से उसके उत्तुंग तरंग मुझे घेर लेते तब मुझे लगता कि माँ मुझे आश्लेष दे रही है । रेत में, फूलों मे, पतंगियो और भँवरों में, पंखीओं के मधुर सूर में सभी जगह माँ की अनुभूति होती । यहाँ तक की रास्ते में जो लड़कियाँ मिलती उसमे माँ की छबी दृश्यमान होती और मन ही मन में मैं उन्हें प्रणाम करता । रात को जब मैं सोता तो तकिये पर अपना सर रखते वक्त माँ की गोद में सर रखने का अनुभव करता । वेदांत में लिखी गई बात 'सर्वम् खलु ईदम् ब्रह्म' अर्थात् ईश्वर सर्वत्र है, मेरे लिए अनुभवसिद्ध साबित हुई ।