मैट्रिक तक पहूँचते पहूँचते मेरा मन आध्यात्मिक विकास के लिये बाँवला हो उठा । ईश्वर की कृपा से मुझे थोडी-बहुत शांति का अनुभव होने लगा था । आध्यात्मिक विकास ही जीवन का वास्तविक विकास है ये बात मेरे दिमाग में अच्छी तरह से बैठ गई थी । उसे सिद्ध करने के लिए आवश्यक प्रयासों में मैं जुट गया । माँ जगदंबा के दर्शन की बेचैनी कई वक्त से मुझे थी और प्रार्थना के माध्यम से उसे सिद्ध करने के मेरे प्रयास जारी थे । मेरी जिंदगी एक ऐसे मुकाम पर आ गई जहाँ पढाई की आवश्यकता कुछ कम दिखाई पडी । अब तक तो परीक्षा समीप आने पर मैं पढने में अपना मन लगाता और चूँकि मेरी स्मरणशक्ति तेज थी, बिना कीसी दिक्कत से उतीर्ण हो जाता था । लेकिन मैट्रिक की परीक्षा पास करना कोई बच्चों के खेल नहीं था । उन दिनो मैट्रिक पास होना बड़ा कठिन माना जाता था । पेपर देने के लिए जब छात्र निकलते तब उन्हें लगता की मानो वो कोई जंग जीतने के लिए जा रहे है । ऐसे हालात में मेरा पढाई के प्रति बेदरकार रहेना ठीक नहीं था । मैंने अभ्यास में अपना मन लगा दिया । मैट्रिक में मैंने फिझीयोलोजी और हाईजीन का विषय पसंद किया था मगर उसे पसंद करनेवाला सारी स्कूल में मैं अकेला ही छात्र था । केवल एक छात्र को पढाने के लिए शिक्षक की व्यवस्था कर पाना नामुमकिन था, इसलिए मेरी कठिनाईयाँ बढती चली । फिर भी मैंने किसीकी सहायता लिये बिना उसका अभ्यास किया और साथ में अन्य विषयो के प्रति अपना ध्यान केन्द्रित किया ।
परीक्षा के दिन गृहपति ने मुझे अपनी शुभकामनाएँ दी । ओर सब पेपर तो ठीक तरह से चले गए मगर मेथेमेटीक्स का पेपर काफि कठिन सिद्ध हुआ । यहाँ तक की बाकी विद्यार्थीयों और शिक्षको ने उसके बारे में काफि हल्ला मचाया । आखिरकार युनिवर्सीटीने ये तय किया के सबको निश्चित आश्वासन गुण दिये जायेंगे । मैं मेथेमेटिक्स में इतना कुशल नहीं था, फिर भी मैंने उसमें अच्छे अंक पाये । हमारी संस्था काफि सालों से थी, मगर वहाँ से कोई छात्र अभी तक मैट्रिक की परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हुआ था । उसकी एक ओर वजह भी थी । संस्था में किसी भी छात्र को बीस साल की उम्र तक ही रखा जाता था, और इसी वजह से कई तेजस्वी विद्यार्थियों को मैट्रिक में आने से पहले ही संस्था छोडकर कहीं ओर जाना पडता था । एसे माहौल में मेरा मैट्रिक में पास होना बड़ी उपलब्धि थी । मेरे साथ ओर दो छात्र परीक्षा में उपस्थित हुए थे मगर वो उतीर्ण नही हो पाये ।
जब मैं मैट्रिक पास हुआ तब मेरी उम्र बीस साल से कम थी इसलिए संस्था में रहकर मुझे आगे पढाई की अनुमति देने का प्रश्न गृहपति के लिए उपस्थित हुआ । संस्था के ईतिहास में यह पहला प्रसंग था । गृहपति को मुझसे लगाव था और वो खुद बंबई की जी. टी. बोर्डिंग छात्रालय में रहकर पढाई कर चुके थे । उन्होंने मेरा दाखिला वहाँ हो जाये इसके लिए प्रय़त्न किया और ईश्वर की ईच्छा से मुझे वहाँ प्रवेश मिल गया । कई सालों बाद एक बार फिर परिवर्तन का प्रसंग उपस्थित हुआ । छात्रालय को भूल पाना मेरे लिए नामुमकिन था । ये तो वो स्थान था जहाँ मेरी जिंदगीने करवट बदली थी, मुझे नवजीवन की प्रेरणा दी थी, अवनविन अनुभवों से मेरे जीवन को नया मोड़ दिया था । जीवन के आदर्शो की सर्वप्रथम झाँकी मैंने वहीँ की थी । मेरे जैसे अनाथ बच्चे को उसने एक माता की तरह गोद में उठाया था, सम्हाला था । मैं यह सब कैसे भूल सकता था ? जो वस्तु या व्यक्ति हमें उपर उठाती है, उसे हमें किसी भी हाल में भूलना नहीं चाहिए । आज तो मेरी दशा पूर्णतया बदल चुकी है । उन दिनों की याद मेरे मानसपट को झुँझलाती नहीं है । जीवनविकास के सहज क्रमानुसार ये हुआ है, इसके लिए मैंने कोई विशेष प्रयास नहीं किया ।
आम तौर पर देखा जाता है कि जब आदमी किसी वस्तु या व्यक्ति को छोड़कर कहीं ओर चल पड़ता है तो शुरू में उसे पुरानी यादें सताती है, मगर वक्त गुजरते उसका ममत्व कम हो जाता है । अब वैवाहिक जीवन का दृष्टांत ही ले लो । अपनी पत्नी के लिए मर मिटनेवाला पुरुष उसका देहांत होने पर बैचेन हो जाता है मगर उसका विरह कुछ दिनों या महिनो तक ही सिमीत रहता है । वक्त के चलते वो दुसरी शादि कर लेता है और दूसरी पत्नी के साथ उसे लगाव हो जाता है । कभीकभी उसे अपनी प्रथम पत्नी की याद सताती है, मगर फिर वो यादें फिकी पड जाती है और बाद में शांत हो जाती है । जो बात स्त्री के बारे में सत्य है, वो पुरुष के लिए भी ईतनी सही है । और ये बात कोई प्यारी चिज, कोई मनपसंद जगह या कोई प्रिय व्यक्ति के बारे में भी उतनी ही सही है । विशेषतः आध्यात्मिक मार्ग के प्रवासी को कीसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आकर्षण का त्याग करना चाहिए । उसे तो सिर्फ और सिर्फ ईश्वर के साथ अपने को बाँध लेना है । ईश्वर की योजना के मुताबिक उसे अलग अलग व्यक्ति, वस्तु या स्थानविशेष के संपर्क में आना है और वक्त के चलते उससे बिछड़ना है । फिर भी उन हालातों में उसे अपने मन की स्थिरता को हमेशा बनाये रखना है । यह जीवन तो अनंत जन्मो की शृंखला का एक छोटा-सा हिस्सा है । आज तक ऐसे कितने जीवन उसने व्यतीत किये होंगे उसका उसे पता नहीं हे, और उन विभिन्न जन्मो में कितने अनगिनत लोगों से उनका संपर्क हुआ हौगा, कितने अलग अलग स्थानों में उसने निवास किया होगा उसका उसे कोई ज्ञान नहीं है । जैसे गत जन्मों की विस्मृति हुई है, उसी तरह यह जन्म में मिले वस्तु या व्यक्ति को छोडने की उसे आदत डालनी है, उसके ममत्व और आसक्ति से उसे मुक्त होना है । आत्मिक विकास के क्षेत्र में तरक्की कर चुके साधकों के लिए यह बात उतनी कठिन नही है । मैंने इसलिए कहा की जहाँ मैंने अपने बचपन औऱ किशोरावस्था के इतने सारे दिन बिताये वो संस्था के प्रति मुझे कोई विशेष आकर्षण नहीं रहा । केवल संस्था का मकान ही क्यूँ, बीती हुई जिन्दगी की सभी व्यक्ति और वस्तुओं के लिए ये सही है । और किसी आकर्षण या ममता का न होना ही अच्छा है, क्यूँकि केवल ईश्वर की ममता या उसका आकर्षण ही मंगलकारक है, जीवन के लिए लाभप्रद है ।
संस्था को अलविदा कहने का जब वक्त आया तब मेरे खयालात ईतने पुख्ता नहीं थै जितने आज है, मगर फिर भी उन यादों को भुलाना मेरे लिए कठिन नहीं था । उन दिनों मैं यह मानता था कि जिन चिजों से मधुर यादें जुड़ी हुई है, जिन लोगों से स्नेह संबंध है, उसे अगर ना भुलाया जाय तो कोई हरकत नहीं, केवल जीवन को विपथगामी करनेवाली और पतन की गर्ता में धकेलने वाली यादों की विस्मृति जरूरी है । इसी वजह से जब मैं नयी संस्था में गया तो पुरानी यादों को लेकर विवश हुआ, भावविभोर हुआ, मेरा हृदय भर आया, मगर दुःख नहीं हुआ । परिवर्तन की इस प्रक्रिया के पीछे नवजीवन और उन्नति की प्रेरणा भरी पडी थी ।
जब कोई लड़की शादी करके अपने ससुराल जाती है तो उसकी दशा कैसी होती है ? वो सुख और दुःख या तो हर्ष और विषाद की मिश्र संवेदना का अनुभव करती है । उसे दुःख इसलिए होता है क्यूँकि अपना पुराना घर और स्वजन-स्नेहीयों से बिछड़ना पड़ता है और हर्ष इसलिए होता है कि नये घर में अपने पति के साथ जीवन बिताने की मधुर कल्पनाएँ साकार होती दिखती है । संस्था को छोडकर नयी जगह जाते वक्त मेरे मन में भी हर्ष और विषाद के मिश्रीत भाव पैदा हुए । संस्था को मन-ही-मन प्रणाम करके मैंने जी. टी. बोर्डिंग के नये माहौल में प्रवेश किया ।