जी. टी. बोर्डिंग के मेरे निवास के दौरान मेरी साहित्य की रुचि बनी रही, थोडा-बहुत लेखन भी होता रहा । मेगझिन व किताबों को पढने का मुझे शौक था, इसे यहाँ काफि बढावा मिला । मैनें संस्था की लायब्रेरी से लाकर धार्मिक साहित्य के अलावा काफि किताबें पढी । संस्था की लायब्रेरी के अलावा धोबी तालाब और सेन्डहर्स्ट रोड स्थित लायब्रेरी जाकर किताबें पढना मेरा क्रम बन गया था । वहाँ मैने नरसिंह-युग से लेकर प्रेमानंद-युग, दलपत-युग, नर्मद-युग, साक्षर-युग, न्हानालाल-युग और पिछले कुछ सालों में प्रकट हुए गांधी-युग के साहित्य का रसपूर्वक अध्ययन किया । कवितायें मुझे विशषतः अच्छी लगती थी अतः मैने कई काव्यग्रंथो का अध्ययन किया । प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध कवियों की साप्ताहिक और मासिको में छपी कृतियाँ मैं रसपूर्वक पढता था ।
पढने के अलावा मैं लिखता था इसका जिक्र मैने आगे कर दिया है । मैं ज्यादातर कवितायें लिखता था, मगर मैंने छुटमुट नाटक और चिंतनात्मक लेख भी लिखे । मैं अपने काव्यो में बहुधा संस्कृत छंदो का प्रयोग करता था । मुझे कवि न्हानालाल की अपद्यागद्य शैली अच्छी लगी तो मैंने कुछ एसे काव्यों का भी सर्जन किया । मेरी कुछ कविताएँ लेकर मैं पुरानी संस्था (लेडी नोर्थकोट ओर्फनेज) के गृहपति के पास गया । वो मेरी कविताएँ पढकर बहुत खुश हुए । अपने प्रतिभाव देते हुए उन्होंने कहा, ‘अगर इस तरह से लेखन जारी रहा तो आगे चलकर आप बडे कवि या लेखक बन सकते है ।’
मुझे ये सुनकर आनन्द हुआ । मैंने कहीं ये पढा कि कविवर रविन्द्रनाथ टागोर को अपनी कृति गीतांजलि के लिए नॉबल प्राईज़ से सम्मानित किया था । बस, फिर मेरे मन में उनके जैसे महान कवि बनने की महत्वकांक्षा ने जन्म लिया । मैंने टागोर की गीतांजलि का रसपूर्वक अध्ययन किया और तय किया की मैं भी एसी कोई महान रचना करके अपने देश का नाम रोशन करूँगा । पता नहि क्यूँ मगर उन दिनों मेरे सपने असाधारण और चोटी को छूनेवाले थे । मेरी दिमागी हालत एसी थी की मुझे सर्वोत्तम और लोकोत्तम होने से कम कुछ भाता नहीं था । साधारण जीवन व्यतीत करना और भविष्य के लिए एसा सोचना मेरे खून में नहीं था । मेरी ख्वाहिश थी की मैं चाहे कहीं भी जाउँ, किसी भी क्षेत्र में पदार्पण करूँ मगर वहाँ अपने आप को सर्वोत्तम बनाउँ ।
आत्मोन्नति की साधना के साथ-साथ साहित्य की साधना होती रही, मगर दोनों धाराएँ एक दूसरे के लिए पूरक थी, विघातक नहीं । आत्मोन्नति की साधना का प्रवाह अति प्रबल था उसमें दोराई नहीं, मगर साहित्य-सर्जन अपने ढंग से होता रहा । हमारे यहाँ कई लोगों का एसा मानना है कि साहित्य और साधना साथ कर पाना असंभव है मगर मैं इसे नहीं मानता । साधना और साहित्य को अलग रखने की जरूरत नहीं, क्यूँकि दोनों परस्पर पूरक है । सही मायने में देखा जाय तो साहित्य-सर्जन अपने आप में एक साधना से कम नहीं, इससे खुद का और ओरों का हित होता है । जब साहित्य-सर्जन साधना का अंग बन जाता है तो सोने पे सुहागा बनता है । मीरांबाई, तुकाराम, नरसीं महेता, सूरदास और तुकाराम जैसे महापुरुषों के जीवन से यह बात स्पष्ट होती है । इसलिए आत्मोन्नति की साधना में साहित्य-सर्जन को विक्षेपरूप समझकर उसका संबंधविच्छेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है । अहम बात साधना और साहित्य के समन्वय की है । अगर दोनों धाराएँ एकजुट होकर लक्ष्य की ओर बढती है तो फिर डरने की कोई वजह नहीं बनती ।
एक अंग्रेजी कहावत में कहा गया है कि कवि और साहित्यकार पैदा नहीं किये जाते, वो जन्मसिद्ध होते है । कई लोग इसका गलत अर्थ निकालते है । वे मानते है कि कवि तो वो होते है जो ईश्वर की बक्षिस लेकर धरती पर पैदा होता है । चाहे कोई कितनी भी महेनत क्यूँ न कर ले, वो अच्छा कवि नहीं बन सकता । एसा सोचकर वे निराश और हताश हो जातें है और अपनी साहित्य-साधना को आधे-रास्ते छोड देते है । कई लोग मानते है कि जो जन्मसिद्ध कवि है, उन्हें अपनी कृति को बदलने या सुधारने की जरूरत नहीं । उनका मानना है कि जिस तरह कवि जन्मसिद्ध होते है, उसी तरह उनकी कविता भी क्षतिरहित, संपूर्ण और सिद्ध होती है । उनमें सुधार का अवकाश हो, फिर भी वे उन्हें बहेतर करने का कोई प्रयास नहीं करते ।
मुझे लगता है की दोनों प्रकार की सोच सही नहीं है । कविता सहज रूप से लिखी जाती है, मगर किसी भी कृति में बहेतरी की संभावना है । सारस पक्षी को पारधी के बाण से गिरता हुआ देखकर महर्षि वाल्मीकि के मुख से कविता का सर्जन स्वयंभू हो गया । वाल्मीकि जैसे सिद्धहस्त कवि के मुख से उदित वो पंक्तियाँ क्षतिरहित और अत्यंत मनभावन थी । मगर आम कवियों की कृति को देखा जाय तो उनमें सुधार की गुंजाईश होती है । कई प्रसिद्ध कवियों और लेखको के लिए भी यह बात सत्य है । उनकी सुधार की गई हस्तप्रतें इस बात की द्योतक है । इसलिए नवोदित लेखको और कवियों से मेरा नम्र निवेदन है की एक बार लिखी हुई कृति को न सुधारने की भूल कभी नहीं करना । एसे हठाग्रह से उत्तम साहित्यकार या साहित्य का सर्जन नहीं होता ।
कवि जन्मसिद्ध होते है इसका मतलब है कि बहुत कम लोग कविता को स्वाभाविक रूप से लिख पाते है, अपने विचारों और भावों को कविता के रूप में जन्म देते है । मैं मानता हूँ की हम सब में कहीं न कही कोई कवि छीपा हुआ है, जरूरत है कवित्व-शक्ति का विकास करने की, उसे बढावा देने की । न केवल लेखनकला बल्कि ईश्वरदत्त विभिन्न शक्तियों के बारे में यह बात उतनी ही सत्य है । उसे विकसित करने के लिए परिश्रम और साधना की आवश्यकता है । साहित्य और कविता इनसे अछूत नहीं ।
मेरे जीवन में कविता-सर्जन का प्रारंभ करीब चौदह साल की उम्र में हुआ और वक्त के साथ उसका स्वाभाविक विकास हुआ । कविता-लेखन के लिए मैं कोई विशेष प्रयास नहीं करता था । कभीकभी अंतःप्रेरणा इतनी तीव्र होती थी की मुझे जबरन् कविता लिखनी पडती, तत्पश्चात ही मुझे चैन मिलता । हाँलाकि एसी कवितायें लिखने के बाद मैं उनको बहेतर बनाने के लिए उनमें सुधार अवश्य करता था ।
कोलेज के प्रथम वर्ष में कई काव्यों का सर्जन हुआ, जिसे पढने पर मेरे सहाध्यायी छात्रों ने उसे संग्रह के रूप में प्रसिद्ध करने का सूचन किया । उन्हीं दिनों, मेरा सुप्रसिद्ध गुजराती हास्यलेखक और साक्षर श्री ज्योतीन्द्र दवे से संपर्क हुआ । हमारी संस्था में उनके प्रवचन आयोजित किये गये थे और वहाँ उनसे मेरी जान-पहेचान हुई । मैंने सोचा की मेरी कृतियों को प्रसिध्ध करने से पहले क्यूँ न उनसे प्रस्तावना लिखाई जाय ? अतः एक दिन मैं उनको जाकर मिला । उनके मधुर और सरल व्यवहार से मैं आकर्षित हुआ । वे नम्रता और सौजन्य की मूर्ति थे । मेरे जैसे एक साधारण विद्यार्थी के साथ उन्होंने बडा सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार किया, जिससे उनके प्रति मेरे आदर-सम्मान में बढोतरी हुई ।
मैंने अपने काव्यों के लिए उनको प्रस्तावना लिखने की गुजारिश की । काव्यों को बिना पढे एसा कर पाना नामुमकिन था, इसलिए मैंने अपनी कृतियाँ उनके वहाँ छोडी । कुछ दिन पश्चात, उनके दिये गये वक्त पर मैं फिर उनसे मिलने गया । उस वक्त शाम ढल चुकी थी ।
उन्हों ने बडे प्यार से मुझे कहा, ‘आपके काव्य अच्छे है फिर भी कहीं-कहीं पर त्रुटियाँ है । मेरा कहने का ये मतलब है कि आप उसे ओर बहेतर कर सकते है । मेरी मानो तो अभी धीरज रखो, प्रसिद्ध करने की जल्दबाजी मत करो । हाँ, लेखन जारी रखो । भविष्य में आप इनसे बढ़िया काव्य लिखोगे, तब मैं प्रसिद्धि की अनुमति दूँगा । फिलहाल तो उसे प्रसिद्ध न करो तो अच्छा होगा ।’
यह कहकर उन्होंने मेरी त्रुटियों की ओर अंगूलिनिर्देश किया । उनके कहने का ढंग मुझे अच्छा लगा । साहित्य और सर्जन की कुछ बातें हुई, और मैं वहाँ से चल पडा । काव्य-प्रसिद्धि के लिए उनकी रोक से मुझे लगा की मेरे काव्यों को वो ठीक तरह से समझ नहीं पाये । उस वक्त मेरी सोच पुख्ता नहीं थी, मगर आज जब उन काव्यों को पढता हूँ तो लगता है कि उनका मशवरा सही था, वो कृतियाँ प्रसिद्धि-योग्य नहीं थी । यह बात तब समझ पाना मुश्किल थी ।
साहित्य की साधना के लिए धीरज और तितिक्षा आवश्यक है । आजकल साहित्यकार साहित्य-सर्जन के पश्चात तुरंत प्रकाशन के लिए दौड़ते है । अच्छे और मूल्यवान साहित्य के सर्जन के लिए ये विघातक है । लेखक या कवि को अपने सर्जनो को परिपक्व और प्रसिद्धि योग्य होने तक इंतजार करने की आवश्यकता है । साहित्य की समृद्धि के लिए ये अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा ।