दशरथाचल के मेरे निवास दौरान मुझे भगवान राम और शंकर के दर्शन का लाभ मिला यह मैं बता चुका हूँ । देवप्रयाग तथा दशरथाचल में मुझे विभिन्न अनुभव मिले, जिनमें ध्यानावस्था में हुए सिद्धपुरुषों के दर्शन का अनुभव शामिल है । तब मैं देवप्रयाग चक्रधरजी के वहाँ था । मैं घर के नीचे के हिस्से में जो कमरा था वहाँ बैठकर ध्यान कर रहा था । सुबह का वक्त था । तब मैंने एक अति वृद्ध महात्मा के दर्शन किये । उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था ।
अन्य विशेष अनुभवों में मुझे ध्यानावस्था में मंत्र सुनाई देते थे । मंत्र भी ऐसे जो मैंने पहले कभी सुने नहीं थे, ना ही कहीं पढे थे । मैं उन मंत्रो को ध्यान छूटने के पश्चात लिख लेता था । जब मुझे स्वयं अनुभव मिला, तो शास्त्रों मे लिखी बात पर यकीन हो गया । मैं मानने लगा की शायद इसी तरह ऋषिमुनिओं को ध्यान या जागृति में मंत्र सुनाई देते होंगे । और इसी वजह से उन्हें मंत्रदृष्टा कहा गया होगा । ध्यान-साधना के दौरान सहज रूप से प्राप्त हुए मंत्र स्वयंसिद्ध होते है, उनका जाप करने से अवश्य लाभ होता है ।
मेरी साधना जैसे जैसे बढती चली, मंत्रदर्शन के कई ओर अनुभव होते रहें । मंत्रदर्शन के अनुभव से मुझे बेहद खुशी मिलती थी । मैं उन सब अनुभवों के बारे में यहाँ लिखकर विशेष विस्तार करना नहीं चाहता मगर मेरे एक अनुभव के बारे में अवश्य आपको बताना चाहूँगा ।
एक दफा रात्रि के समय ध्यान करते करते मैं समाधि अवस्था में चला गया । उस वक्त मैंने महापुरुषों के समुह को देखा । समुह के आगे दो-तीन महापुरुष ढोलक के साथ नृत्य कर रहे थे और बाकी सारे महात्मा पुरुष ताल देकर साथ चल रहे थे । उनके स्वर अत्यंत कोमल और मधुर थे । वे समुह में आकर्षक रूप से मंत्रगान कर रहे थे । मंत्र ओर कोई नहीं मगर संक्षिप्त गायत्री-मंत्र था । उन दिनों मैं गायत्रीमंत्र के जाप करता था । गायत्रीमंत्र मुझे बडा-लंबा लगता था । मुझे लगा की शायद इसलिये मुझे गायत्रीमंत्र के नये संस्करण समान यह संक्षिप्त गायत्रीमंत्र सुनाया गया । मैंने जो मंत्र सुना वो कुछ इस तरह था -
ॐ भूर्भुव: स्व: भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योन: ।
ॐ भूर्भुव: स्व: भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योन: ॥
महापुरुषों की मंडली नृत्य के साथ मंत्र का समुहगान कर रही थी । मेरे लिये यह अनुभव अत्यंत अलौकिक और आनंददायक था ।
मुझे समाधि दशा में कभीकभा कुछ वाक्य सुनाई देते थे तो यद्यपि काव्यपंक्तियाँ भी सुनाई देती थी । जब समाधि या ध्यान से मेरा देहभान वापिस आता तब मैं उसको अपनी नोट में लिख लेता था । मेरा उत्साह ऐसे अनुभवों से दूगुना हो जाता था ।
मेरे लिये दशरथाचल-निवास से ऐसे अनुभवों का आरंभ हुआ । वहाँ पर ही मुझे सर्वप्रथम समाधि का अनुभव मिला । तत्पश्चात जब मैं देवप्रयाग आकर रहने लगा तो मेरा मन अवर्णनिय शांति और धन्यता का अनुभव करने लगा । मैंने बंबई में जो आत्मिक उन्नति के सपनें देखें थे, मानो अब साकार हो रहे थे । धरती में पडा हुआ बीज मानो अंकुर में रुपांतरित हो रहे थे ।
अन्य विशेष अनुभवों में मुझे ध्यानावस्था में मंत्र सुनाई देते थे । मंत्र भी ऐसे जो मैंने पहले कभी सुने नहीं थे, ना ही कहीं पढे थे । मैं उन मंत्रो को ध्यान छूटने के पश्चात लिख लेता था । जब मुझे स्वयं अनुभव मिला, तो शास्त्रों मे लिखी बात पर यकीन हो गया । मैं मानने लगा की शायद इसी तरह ऋषिमुनिओं को ध्यान या जागृति में मंत्र सुनाई देते होंगे । और इसी वजह से उन्हें मंत्रदृष्टा कहा गया होगा । ध्यान-साधना के दौरान सहज रूप से प्राप्त हुए मंत्र स्वयंसिद्ध होते है, उनका जाप करने से अवश्य लाभ होता है ।
मेरी साधना जैसे जैसे बढती चली, मंत्रदर्शन के कई ओर अनुभव होते रहें । मंत्रदर्शन के अनुभव से मुझे बेहद खुशी मिलती थी । मैं उन सब अनुभवों के बारे में यहाँ लिखकर विशेष विस्तार करना नहीं चाहता मगर मेरे एक अनुभव के बारे में अवश्य आपको बताना चाहूँगा ।
एक दफा रात्रि के समय ध्यान करते करते मैं समाधि अवस्था में चला गया । उस वक्त मैंने महापुरुषों के समुह को देखा । समुह के आगे दो-तीन महापुरुष ढोलक के साथ नृत्य कर रहे थे और बाकी सारे महात्मा पुरुष ताल देकर साथ चल रहे थे । उनके स्वर अत्यंत कोमल और मधुर थे । वे समुह में आकर्षक रूप से मंत्रगान कर रहे थे । मंत्र ओर कोई नहीं मगर संक्षिप्त गायत्री-मंत्र था । उन दिनों मैं गायत्रीमंत्र के जाप करता था । गायत्रीमंत्र मुझे बडा-लंबा लगता था । मुझे लगा की शायद इसलिये मुझे गायत्रीमंत्र के नये संस्करण समान यह संक्षिप्त गायत्रीमंत्र सुनाया गया । मैंने जो मंत्र सुना वो कुछ इस तरह था -
ॐ भूर्भुव: स्व: भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योन: ।
ॐ भूर्भुव: स्व: भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योन: ॥
महापुरुषों की मंडली नृत्य के साथ मंत्र का समुहगान कर रही थी । मेरे लिये यह अनुभव अत्यंत अलौकिक और आनंददायक था ।
मुझे समाधि दशा में कभीकभा कुछ वाक्य सुनाई देते थे तो यद्यपि काव्यपंक्तियाँ भी सुनाई देती थी । जब समाधि या ध्यान से मेरा देहभान वापिस आता तब मैं उसको अपनी नोट में लिख लेता था । मेरा उत्साह ऐसे अनुभवों से दूगुना हो जाता था ।
मेरे लिये दशरथाचल-निवास से ऐसे अनुभवों का आरंभ हुआ । वहाँ पर ही मुझे सर्वप्रथम समाधि का अनुभव मिला । तत्पश्चात जब मैं देवप्रयाग आकर रहने लगा तो मेरा मन अवर्णनिय शांति और धन्यता का अनुभव करने लगा । मैंने बंबई में जो आत्मिक उन्नति के सपनें देखें थे, मानो अब साकार हो रहे थे । धरती में पडा हुआ बीज मानो अंकुर में रुपांतरित हो रहे थे ।