चंपकभाई के जाने के बाद मैंने सिर्फ दूध पर रहना शरू किया । दशरथाचल पर जो मौनव्रत शुरू हुआ था, अब भी जारी था । सच पूछो तो किसी के साथ बात करने की बिल्कुल इच्छा नहीं होती थी । मौन मेरे लिये स्वाभाविक हो गया था और मुझे उसमें बडा आनंद मिलता था । दिन का काफि सारा वक्त आत्मिक साधना में निर्गमन होता था । कभीकभा मैं देवप्रयाग के प्रसिद्ध ज्योतिषी चक्रधरजी के वहाँ जाता था । उन्होंने अपने घर में पुस्तकालय बनाया था । मैं वहाँ से कुछ किताबें लाकर पढ़ता था ।
एक दिन प्रेमयोग नामका पुस्तक मेरे हाथ लगा । उसके मुखपृष्ठ पर भगवान श्रीकृष्ण का रंगीन चित्र था, जिसे देखते ही मेरा मन मोहित हो गया । चित्र में पीतांबरधारी भगवान कृष्ण त्रिभंग करके कदंबवृक्ष के नीचे खडे थे । उनके गले में वैजंती माला, अधर पर मुरली और सर पे मोरमुकुट था । बगल में यमुनाजी का प्रवाह दिखाई पडता था । आंखो में अमृत घोले हुए भगवान कृष्ण प्रेम और लावण्य के साक्षात अवतार समान दिखाई देते थे । उनका दर्शन करके मेरा हृदय अनुराग से भर गया । मुझे लगा की अगर भगवान कृष्ण का यह चित्र इतना मनमोहक है तो स्वयं भगवान कृष्ण कैसे होंगे ? और भगवान कृष्ण पर गोपीयाँ क्यूँ फिदा न हो ? भगवान का स्वरूप ही एसा है की दर्शन करने पर किसीका भी मन मोहित हो जाय । जड़ और चेतन सब पर भगवान की मोहिनी चलती है, तो फिर आम आदमी की क्या गिनती ? भगवान राम के दर्शन मुझे हो चुके थे इसलिये भगवान के दिव्य स्वरूप का मुझे अंदाजा था । मैं मानता था की सब भगवान एक है, तात्विक रूप से उनमें कोई भेद नहीं है । मगर फिर भी भगवान कृष्ण के मनोहरी स्वरूप को देखकर मुझे उनके दर्शन की लगनी लगी ।
चाहे बूरी कहो या अच्छी, मगर मेरी एक आदत है । मुझे अगर किसी भी चिज की लगन लग जाय तो उसे पाकर ही मुझे चैन मिलता है । उसे पाने के लिये मेरा मन व्याकुल हो उठता है । रातदिन एक करके उसकी प्राप्ति के लिये मैं जो कुछ बन पडता है, पूरी श्रध्धा, आशा और हिंमत से करता हूँ और जब तक उसका कोई निश्चित परीणाम न मिले, मैं अपने प्रयास जारी रखता हूँ । मेरे साधनात्म जीवन की यही विशेषता है । मेरे जीवन में इसके कारण मैंने बहुत कुछ पाया है ।
कृष्ण भगवान के दर्शन की अभिलाषा से मैंने साधना का प्रारंभ किया । जीवन अल्प है, अनिश्चित है, पानी के प्रवाह की तरह निकलता जा रहा है । अगर हमें इस जीवन में कुछ हासिल करना हो तो प्रमाद का परित्याग करके परिश्रम करना होगा । आज करे सो काल कर – की सोच त्याग कर काल करे सो आज कर – की नीति अखत्यार करनी होगी । वर्तमान जीवन की परिसमाप्ति होने से पहले, जितनी भी जल्दी हो सके, ध्येयप्राप्ति के लिये अपना सबकुछ दाव पर लगाना होगा । तभी हम कुछ हासिल कर पायेंगे । जो केवल स्वप्न देखा करते है, और उसे साकार करने की साधना में एकजुट नहीं होते, वे सुखशांति की प्राप्ति नहीं कर सकते । केवल स्वप्नदृष्टा होने से काम नहीं चलेगा, उसे सिद्ध करने के लिये साधक को आवश्यक प्रयासों में जुटना होगा ।
मैंने कमरे की खिड़की पर किताब कुछ इस तरह रखी की भगवान कृष्ण के दर्शन हो । कंबल ओढकर आसन जमाकर मैंने भगवान के दर्शन के लिये जप-प्रार्थना का प्रारंभ किया । एक-दो दिन के बाद दूध लेना भी बन्द कर दिया । जब तक दर्शन न हों, कमरे से बाहर न जाने का और आसन से भी न उठने का निश्चय किया । रात को पैर फैलाकर सोने की आदत तो कब से छुट गई थी । रात को भगवान की तसवीर के आगे दीया जलाकर मैं जप और प्रार्थना करता रहा । मैं प्रभु से कहेता, हे प्रभु, मैं तो एक साधारण बालक हूँ । मेरे हृदय में आपके लिये जो पारावार प्रेम है, उसे मैं कैसे व्यक्त करूँ ? मुझे आपसे वार्तालाप करना है, आपके दर्शन करने है । कृपया मेरी बिनती ध्यान में लो, मेरी ईच्छा पूर्ण करो।'
मगर साधना करते-करते पूरे सात दिन निकल गये फिर भी भगवान कृष्ण के दर्शन नहीं हुए । मेरा मन बेचैन हो उठा, चिंता और ग्लानि से भर गया । मुझे लगा की मेरी दर्शन की कामना पूरी नहीं होगी क्या ? और अगर एसा ही होना है, तो फिर यह जीवन का क्या अर्थ ? अगर आज रात तक मेरी ईच्छा पूरी न हुई तो मैं ब्राह्ममुहूर्त में संगम पर जाकर देहत्याग कर दूँगा । भगवान का नाम लेकर देहत्याग करने से अगले जन्म में मुझे बचपन से ही ध्रुव और प्रह्लाद जैसी भक्ति मिलेगी और भगवान के दर्शन हो जायेंगे । मेरे बारे में कोई उल्टा-सीधा न सोचें, इसलिये मैं एक चिठ्ठी लिखकर छोड जाउँगा ।
बेशक, मेरा निर्णय प्रेम और समर्पण की भावना से भरा था मगर उचित नहीं था । ईश्वर की इच्छा कुछ ओर थी अतः उसका अमल नहीं हो पाया । मैंने अगर एसा किया होता तो अभी आत्मकथा का आलेखन कैसे कर पाता ? मैंने 'अगर' क्यूँ कहा उसकी स्पष्टता करना मुनासिब समजता हूँ । मुझे ईश्वर की कृपा में अतूट भरोंसा था, वह दीनदयाल, पतितपावन और शरणागतवत्सल है एसा मेरा मानना था । मुझे पूरा यकीन था की वो मुझे गंगा में डूबने नहीं देगा । जब मैं संगम में देहत्याग का प्रयास करूँगा, तब वह स्वयं प्रकट होकर मुझे बचा लेगा । क्योंकि अगर वह एसा नहीं करता तो लोग उसे प्रेमसिंधु और दयालु क्यूँ कहते ? मेरे जैसा एक साधारण बालक उनके दर्शन पाने के लिये अपना सबकुछ दाव पर लगाकर देहत्याग करें और वह दर्शन भी न दें, ये क्या बात हुई, लोग क्या सोचेंगे ? फिर तो ईश्वर की कठोरता का खयाल करके उसके दर्शन का प्रयास कौन करेगा ? मेरा देहत्याग प्रभु की महिमा के लिये कलंक बन जाय एसा कदापि नहीं हो सकता । मेरा मन कहेता था कि मेरे जीवन का एसा अंत नहीं हो सकता ।
मेरे लिये इश्वर ने कुछ ओर सोचकर रखा था । इसलिये आँठवे दिन की शाम होने पर मेरे विचारों में परिवर्तन आया । मेरा मन अद्वैत के भावों से भर गया । मुझे अनुभव हुआ की मैं मुक्त हूँ, सिद्ध हुँ, माया से रहित, परमशांति और परमानंद से भरा हूँ । मुझे शोक मोह और बंधन नहीं है । मैं समस्त संसार में व्याप्त, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से पर हूँ, परमात्म स्वरूप हूँ । मेरा मन आत्मभाव से भर गया । जिस तरह से पूर के प्रचंड प्रवाह से तुटकर सब छिन्नभिन्न हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह अद्वैत के भावों से कृष्णदर्शन की मेरी भावना शांत हो गयी ।
प्रेम और ज्ञान के दो भिन्न प्रवाह मेरे जीवन में शुरु से थे । कभीकभी प्रेम का प्रवाह प्रमत्त हो उठता तो कभी ज्ञान का, और कभी दोनों साथसाथ चलते थे । इस बार ज्ञान के प्रवाह ने प्रेम पर आधिपत्य किया । मगर प्रेमपंथ के यात्री के लिये यह ठीक नहीं है । उसे तो ज्ञान के प्रवाह को पीछे छोडकर अपने लक्ष्य को पाने की साधना में जुटे रहने की आवश्यकता है । तभी उसकी साधना संपूर्ण होगी । प्रेमपंथ के प्रवासी के लिये ऐसी जागृति आवश्यक है ।
कृष्णदर्शन के लिये सात दिन की साधना का इस तरह अंत हुआ मगर भगवान कृष्ण के लिये मेरे मन में जो भाव था वह यथावत रहा । भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण-मनन चलता रहा । सात दिन की कठोर साधना से जो लाभ हुआ वह कायम रहा । उपवास खत्म होने के बाद भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये मेरे प्रयास जारी रहे ।
एक दिन प्रेमयोग नामका पुस्तक मेरे हाथ लगा । उसके मुखपृष्ठ पर भगवान श्रीकृष्ण का रंगीन चित्र था, जिसे देखते ही मेरा मन मोहित हो गया । चित्र में पीतांबरधारी भगवान कृष्ण त्रिभंग करके कदंबवृक्ष के नीचे खडे थे । उनके गले में वैजंती माला, अधर पर मुरली और सर पे मोरमुकुट था । बगल में यमुनाजी का प्रवाह दिखाई पडता था । आंखो में अमृत घोले हुए भगवान कृष्ण प्रेम और लावण्य के साक्षात अवतार समान दिखाई देते थे । उनका दर्शन करके मेरा हृदय अनुराग से भर गया । मुझे लगा की अगर भगवान कृष्ण का यह चित्र इतना मनमोहक है तो स्वयं भगवान कृष्ण कैसे होंगे ? और भगवान कृष्ण पर गोपीयाँ क्यूँ फिदा न हो ? भगवान का स्वरूप ही एसा है की दर्शन करने पर किसीका भी मन मोहित हो जाय । जड़ और चेतन सब पर भगवान की मोहिनी चलती है, तो फिर आम आदमी की क्या गिनती ? भगवान राम के दर्शन मुझे हो चुके थे इसलिये भगवान के दिव्य स्वरूप का मुझे अंदाजा था । मैं मानता था की सब भगवान एक है, तात्विक रूप से उनमें कोई भेद नहीं है । मगर फिर भी भगवान कृष्ण के मनोहरी स्वरूप को देखकर मुझे उनके दर्शन की लगनी लगी ।
चाहे बूरी कहो या अच्छी, मगर मेरी एक आदत है । मुझे अगर किसी भी चिज की लगन लग जाय तो उसे पाकर ही मुझे चैन मिलता है । उसे पाने के लिये मेरा मन व्याकुल हो उठता है । रातदिन एक करके उसकी प्राप्ति के लिये मैं जो कुछ बन पडता है, पूरी श्रध्धा, आशा और हिंमत से करता हूँ और जब तक उसका कोई निश्चित परीणाम न मिले, मैं अपने प्रयास जारी रखता हूँ । मेरे साधनात्म जीवन की यही विशेषता है । मेरे जीवन में इसके कारण मैंने बहुत कुछ पाया है ।
कृष्ण भगवान के दर्शन की अभिलाषा से मैंने साधना का प्रारंभ किया । जीवन अल्प है, अनिश्चित है, पानी के प्रवाह की तरह निकलता जा रहा है । अगर हमें इस जीवन में कुछ हासिल करना हो तो प्रमाद का परित्याग करके परिश्रम करना होगा । आज करे सो काल कर – की सोच त्याग कर काल करे सो आज कर – की नीति अखत्यार करनी होगी । वर्तमान जीवन की परिसमाप्ति होने से पहले, जितनी भी जल्दी हो सके, ध्येयप्राप्ति के लिये अपना सबकुछ दाव पर लगाना होगा । तभी हम कुछ हासिल कर पायेंगे । जो केवल स्वप्न देखा करते है, और उसे साकार करने की साधना में एकजुट नहीं होते, वे सुखशांति की प्राप्ति नहीं कर सकते । केवल स्वप्नदृष्टा होने से काम नहीं चलेगा, उसे सिद्ध करने के लिये साधक को आवश्यक प्रयासों में जुटना होगा ।
मैंने कमरे की खिड़की पर किताब कुछ इस तरह रखी की भगवान कृष्ण के दर्शन हो । कंबल ओढकर आसन जमाकर मैंने भगवान के दर्शन के लिये जप-प्रार्थना का प्रारंभ किया । एक-दो दिन के बाद दूध लेना भी बन्द कर दिया । जब तक दर्शन न हों, कमरे से बाहर न जाने का और आसन से भी न उठने का निश्चय किया । रात को पैर फैलाकर सोने की आदत तो कब से छुट गई थी । रात को भगवान की तसवीर के आगे दीया जलाकर मैं जप और प्रार्थना करता रहा । मैं प्रभु से कहेता, हे प्रभु, मैं तो एक साधारण बालक हूँ । मेरे हृदय में आपके लिये जो पारावार प्रेम है, उसे मैं कैसे व्यक्त करूँ ? मुझे आपसे वार्तालाप करना है, आपके दर्शन करने है । कृपया मेरी बिनती ध्यान में लो, मेरी ईच्छा पूर्ण करो।'
मगर साधना करते-करते पूरे सात दिन निकल गये फिर भी भगवान कृष्ण के दर्शन नहीं हुए । मेरा मन बेचैन हो उठा, चिंता और ग्लानि से भर गया । मुझे लगा की मेरी दर्शन की कामना पूरी नहीं होगी क्या ? और अगर एसा ही होना है, तो फिर यह जीवन का क्या अर्थ ? अगर आज रात तक मेरी ईच्छा पूरी न हुई तो मैं ब्राह्ममुहूर्त में संगम पर जाकर देहत्याग कर दूँगा । भगवान का नाम लेकर देहत्याग करने से अगले जन्म में मुझे बचपन से ही ध्रुव और प्रह्लाद जैसी भक्ति मिलेगी और भगवान के दर्शन हो जायेंगे । मेरे बारे में कोई उल्टा-सीधा न सोचें, इसलिये मैं एक चिठ्ठी लिखकर छोड जाउँगा ।
बेशक, मेरा निर्णय प्रेम और समर्पण की भावना से भरा था मगर उचित नहीं था । ईश्वर की इच्छा कुछ ओर थी अतः उसका अमल नहीं हो पाया । मैंने अगर एसा किया होता तो अभी आत्मकथा का आलेखन कैसे कर पाता ? मैंने 'अगर' क्यूँ कहा उसकी स्पष्टता करना मुनासिब समजता हूँ । मुझे ईश्वर की कृपा में अतूट भरोंसा था, वह दीनदयाल, पतितपावन और शरणागतवत्सल है एसा मेरा मानना था । मुझे पूरा यकीन था की वो मुझे गंगा में डूबने नहीं देगा । जब मैं संगम में देहत्याग का प्रयास करूँगा, तब वह स्वयं प्रकट होकर मुझे बचा लेगा । क्योंकि अगर वह एसा नहीं करता तो लोग उसे प्रेमसिंधु और दयालु क्यूँ कहते ? मेरे जैसा एक साधारण बालक उनके दर्शन पाने के लिये अपना सबकुछ दाव पर लगाकर देहत्याग करें और वह दर्शन भी न दें, ये क्या बात हुई, लोग क्या सोचेंगे ? फिर तो ईश्वर की कठोरता का खयाल करके उसके दर्शन का प्रयास कौन करेगा ? मेरा देहत्याग प्रभु की महिमा के लिये कलंक बन जाय एसा कदापि नहीं हो सकता । मेरा मन कहेता था कि मेरे जीवन का एसा अंत नहीं हो सकता ।
मेरे लिये इश्वर ने कुछ ओर सोचकर रखा था । इसलिये आँठवे दिन की शाम होने पर मेरे विचारों में परिवर्तन आया । मेरा मन अद्वैत के भावों से भर गया । मुझे अनुभव हुआ की मैं मुक्त हूँ, सिद्ध हुँ, माया से रहित, परमशांति और परमानंद से भरा हूँ । मुझे शोक मोह और बंधन नहीं है । मैं समस्त संसार में व्याप्त, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से पर हूँ, परमात्म स्वरूप हूँ । मेरा मन आत्मभाव से भर गया । जिस तरह से पूर के प्रचंड प्रवाह से तुटकर सब छिन्नभिन्न हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह अद्वैत के भावों से कृष्णदर्शन की मेरी भावना शांत हो गयी ।
प्रेम और ज्ञान के दो भिन्न प्रवाह मेरे जीवन में शुरु से थे । कभीकभी प्रेम का प्रवाह प्रमत्त हो उठता तो कभी ज्ञान का, और कभी दोनों साथसाथ चलते थे । इस बार ज्ञान के प्रवाह ने प्रेम पर आधिपत्य किया । मगर प्रेमपंथ के यात्री के लिये यह ठीक नहीं है । उसे तो ज्ञान के प्रवाह को पीछे छोडकर अपने लक्ष्य को पाने की साधना में जुटे रहने की आवश्यकता है । तभी उसकी साधना संपूर्ण होगी । प्रेमपंथ के प्रवासी के लिये ऐसी जागृति आवश्यक है ।
कृष्णदर्शन के लिये सात दिन की साधना का इस तरह अंत हुआ मगर भगवान कृष्ण के लिये मेरे मन में जो भाव था वह यथावत रहा । भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण-मनन चलता रहा । सात दिन की कठोर साधना से जो लाभ हुआ वह कायम रहा । उपवास खत्म होने के बाद भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये मेरे प्रयास जारी रहे ।