पहाडों में रहनेवाले देहाती लोगों का प्यार मुझे छू गया । कौन कहेता है की देहाती प्रजा सुसंस्कृत नहीं है ? हाँ, वे ज्यादा पढेलिखे नहीं है, उनमें कुछ बदीयाँ अब भी बरकरार है, कभीकभा आपसी मतभेदों की वजह से वे लडते-झगडते हैं, मगर एसा तो शहर के पढेलिखे लोगों में भी कहाँ नहीं हैं ? अनपढ होने के बावजूद ग्रामीण लोगों में अतिथिसत्कार और सेवा की भावना भरी पडी है । शहरों के विकास के चक्कर में जो गाँव तूट रहे हैं उसका विकास करके उन्हें स्वाश्रयी बनाया जाय तो प्रजा सुखी एवं समृद्ध हो सकती है । इन लोगों के संस्कार देखकर मैं अत्यंत हर्षित हुआ । मगर मैं उनकी सेवाभावना का गेरलाभ लेना नहीं चाहता था । मैंने पैसे लेने से साफ इन्कार कर दिया । उनके आग्रह का स्वीकार करना मुझे योग्य नहीं लगा । आखिरकार वे मेरी बात से सहमत हुए ।
पगदंडी का रास्ता छोडकर हम टिहरी जानेवाली मुख्य सडक पर आ पहूँचे । उनके निकलने के बाद मैंने अपनी रफ्तार तेज कर दी । मुझे काफि सारा फासला तय करना था । बीच रास्ते में एक गाँव आया, तो एक आदमी मेरे पास आया । बोला, 'बाबा, मुझे अपना शिष्य बना लो । मैं आपके साथ चलूँगा और आपकी सेवा करूँगा ।'
मैंने कहा, 'भैया, त्यागी जीवन जितना समझते हो इतना आसान नहीं है, इसमें बहुत सारी कठिनाईयों का सामना करना पडता है । घूमने-फिरने और मौज करने का खयाल करके त्याग करना ठीक नहीं है । इसके लिये तो विवेक, वैराग्य और अतूट श्रद्धा की आवश्यकता है । संन्यास तभी शोभा देता है । खानेपीने की तकलीफ होने से साधु होने के सपने देखना कायरता है । आप जहाँ भी है, वहाँ रहकर दुर्गुण, दुष्ट विचार, दुर्वृति और दुष्ट कर्मों का त्याग करें, अहंकार और ममता को दूर भगायें और ईश्वर-दर्शन के लिये प्रयास करें । एसा करने पर आपको सच्ची शांति मिलेगी । बाह्य त्याग करना अनिवार्य रूपेण आवश्यक नहीं है । अगर आपको किसीका शिष्य बनना ही है तो सुयोग्य गुरु की प्रतीक्षा करो । मैं तो एक साधारण साधक हूँ, किसीको शिष्य बनाकर उसका उद्धार करने की मुझमें ताकत नहीं है ।'
मेरी बात सुनने के बाद उसने मुझे पूछा, 'इतने जल्दी यहाँ कैसे आये, महाराज ?'
'कल रात पास के गाँव में ठहरा था, वहाँ से आ रहा हूँ ।'
'कौन सा गाँव ?'
मैंने उसके कुतूहल को शांत करने के लिये अपनी रात्रिनिवास की बात की तो उसके आश्चर्य का पार न रहा ।
'आप किस गाँव की बात कर रहे हो – सपनों के या हकीकत के ?' उसने कहा ।
'हकीकत के ।'
'आपने कोई सपना तो नहीं देखा ? यहाँ आसपास कोई गाँव नहीं है । मैं तो यहाँ पर पला-बडा हुआ हूँ और यहाँ के बारे में सबकुछ जानता हूँ । ये तो ठीक है आपने मुझसे कहा, अगर किसी ओर को बताया होता तो वो तो आपको पागल ही समजते ।'
उसके साथ बहस करना बेकार था इसलिये बिना कुछ बोले मैं ईश्वर के अनुग्रह के बारे में सोचता हुआ टिहरी के मार्ग पर चलता बना । अगर सचमुच पहाडों के बिच एसा कोई गाँव नहीं था तो फिर मैं जो गाँव में रातभर रहा, वो क्या था ? उसे मन की कल्पना कैसे मान लूँ ? ईश्वर के लिये तो गाँव या शहर बसाना असंभव नहीं है । जो भी हो, मेरी श्रद्धा इस घटना के पश्चात दुगूनी हो गई।
शाम ढलने पर मैं टिहरी आ पहूँचा । मैं टिहरी के लिये बिल्कुल अनजान था, मगर प्रभु की कृपा तो देखो ! जैसे मैं गंगा का पुल पार करके गाँव में दाखिल हुआ की कालेज में पढता एक छात्र मुझे मिल गया । वो मुझे एक धर्मशाला में ले गया । मगर मुझे वो जगह पसंद नहीं आयी इसलिये मुझे बदरीनाथ के मंदिर में ले आया । वहाँ मेरे रहने का इंतजाम हो गया ।
आप सोचेंगे की बदरीनाथ का प्रसिद्ध मंदिर तो बदरीनाथ में है, जो की उत्तराखंड के चार विख्यात यात्राधाम - बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और जमनोत्री में से एक है और जहाँ पर नारायण भगवान का मंदिर है, तो फिर टिहरी में बदरीनाथ का मंदिर कहाँ से आया ? आपकी दुविधा स्वाभाविक है । मैं इसके उत्तर में ये कहेना चाहूँगा की टिहरी में भी बदरीनाथ और केदारनाथ के मंदिर है । मैं बद्रीनाथ मंदिर की धर्मशाला में ठहरा ।
टिहरी अन्य पर्वतीय गाँवो की तुलना में काफि बडा है । इस १९४४ में, जब मैं वहाँ गया था तब, वहाँ इन्टर तक पढानेवाली कोलेज थी । टिहरी के आसपास उँचे-उँचे पर्वत हैं मगर पूरा गाँव मैदान में बसा है । बदरीनाथ का मंदिर गंगा के तट पर था । यहाँ गंगा भागीरथी के नाम से जानी जाती है । मंदीर के पास भागीरथी और भीलंगणा नदी का संगम होता है । संगम का दृश्य अत्यंत मनोहारी है, मन करता है उसे बस देखते रहें ।
केदारनाथ मंदिर में एक ब्रह्मचारी महात्मा रहेते थे । वे कुरुक्षेत्र के निवासी थे और स्वयंपाकी थे । उन्हें टिहरी में रहकर गायत्रीमंत्र का अनुष्ठान करना था । वे भक्तों की सहायता से यहाँ आये थे, मगर आने पर ही उनके छेसो रुपये चोरी हो गये थे । छेसो रूपये उनके लिये बहुत भारी रकम थी, इतने रुपये से वे दो-तीन साल अपना गुजारा कर सकते थे । उन्होंने जब ये बात मुझे बतायी तो मुझे बडा खेद हुआ ।
हिमालय आने के पूर्व मेरी कल्पना कुछ इस तरह थी । मैंने सोचा था की हिमालय ऋषिमुनि, त्यागी और तपस्वीओं का प्रदेश होगा, वहाँ कंदमूल और फलफूल मिलते होंगे । वहाँ रहनेवाले लोग पवित्र, प्रामाणिक और प्रभुपरायण होंगे । चोरी, व्यभिचार, जूठ और कपट का वहाँ नामोनिशान नहीं होगा । मगर अफसोस, यहाँ आने के बाद मेरी समज में आया की पहेले के समय में यहाँ चाहे जो भी हो, अब हिमालय का वातावरण वैसा नहीं है । चोरी, व्यभिचार, जूठ, कपट और अनीति का साम्राज्य हिमालय में बुरी तरह से फैला हुआ है । हिमालय के कुछ क्षेत्रों में तो स्थिति इतनी खराब है की वहाँ रहनेवाले लोग इससे परेशान है । और सिर्फ पहाडी इलाकों की बात क्यूँ करें, शहर और मैदानी इलाकों में भी स्थिति ज्यादा प्रसंशनीय नहीं है । इस मर्ज का इलाज होना चाहिए अन्यथा लोगों का जीवनधोरण बदलने के हमारे प्रयास असफल रहेंगे ।
पगदंडी का रास्ता छोडकर हम टिहरी जानेवाली मुख्य सडक पर आ पहूँचे । उनके निकलने के बाद मैंने अपनी रफ्तार तेज कर दी । मुझे काफि सारा फासला तय करना था । बीच रास्ते में एक गाँव आया, तो एक आदमी मेरे पास आया । बोला, 'बाबा, मुझे अपना शिष्य बना लो । मैं आपके साथ चलूँगा और आपकी सेवा करूँगा ।'
मैंने कहा, 'भैया, त्यागी जीवन जितना समझते हो इतना आसान नहीं है, इसमें बहुत सारी कठिनाईयों का सामना करना पडता है । घूमने-फिरने और मौज करने का खयाल करके त्याग करना ठीक नहीं है । इसके लिये तो विवेक, वैराग्य और अतूट श्रद्धा की आवश्यकता है । संन्यास तभी शोभा देता है । खानेपीने की तकलीफ होने से साधु होने के सपने देखना कायरता है । आप जहाँ भी है, वहाँ रहकर दुर्गुण, दुष्ट विचार, दुर्वृति और दुष्ट कर्मों का त्याग करें, अहंकार और ममता को दूर भगायें और ईश्वर-दर्शन के लिये प्रयास करें । एसा करने पर आपको सच्ची शांति मिलेगी । बाह्य त्याग करना अनिवार्य रूपेण आवश्यक नहीं है । अगर आपको किसीका शिष्य बनना ही है तो सुयोग्य गुरु की प्रतीक्षा करो । मैं तो एक साधारण साधक हूँ, किसीको शिष्य बनाकर उसका उद्धार करने की मुझमें ताकत नहीं है ।'
मेरी बात सुनने के बाद उसने मुझे पूछा, 'इतने जल्दी यहाँ कैसे आये, महाराज ?'
'कल रात पास के गाँव में ठहरा था, वहाँ से आ रहा हूँ ।'
'कौन सा गाँव ?'
मैंने उसके कुतूहल को शांत करने के लिये अपनी रात्रिनिवास की बात की तो उसके आश्चर्य का पार न रहा ।
'आप किस गाँव की बात कर रहे हो – सपनों के या हकीकत के ?' उसने कहा ।
'हकीकत के ।'
'आपने कोई सपना तो नहीं देखा ? यहाँ आसपास कोई गाँव नहीं है । मैं तो यहाँ पर पला-बडा हुआ हूँ और यहाँ के बारे में सबकुछ जानता हूँ । ये तो ठीक है आपने मुझसे कहा, अगर किसी ओर को बताया होता तो वो तो आपको पागल ही समजते ।'
उसके साथ बहस करना बेकार था इसलिये बिना कुछ बोले मैं ईश्वर के अनुग्रह के बारे में सोचता हुआ टिहरी के मार्ग पर चलता बना । अगर सचमुच पहाडों के बिच एसा कोई गाँव नहीं था तो फिर मैं जो गाँव में रातभर रहा, वो क्या था ? उसे मन की कल्पना कैसे मान लूँ ? ईश्वर के लिये तो गाँव या शहर बसाना असंभव नहीं है । जो भी हो, मेरी श्रद्धा इस घटना के पश्चात दुगूनी हो गई।
शाम ढलने पर मैं टिहरी आ पहूँचा । मैं टिहरी के लिये बिल्कुल अनजान था, मगर प्रभु की कृपा तो देखो ! जैसे मैं गंगा का पुल पार करके गाँव में दाखिल हुआ की कालेज में पढता एक छात्र मुझे मिल गया । वो मुझे एक धर्मशाला में ले गया । मगर मुझे वो जगह पसंद नहीं आयी इसलिये मुझे बदरीनाथ के मंदिर में ले आया । वहाँ मेरे रहने का इंतजाम हो गया ।
आप सोचेंगे की बदरीनाथ का प्रसिद्ध मंदिर तो बदरीनाथ में है, जो की उत्तराखंड के चार विख्यात यात्राधाम - बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, और जमनोत्री में से एक है और जहाँ पर नारायण भगवान का मंदिर है, तो फिर टिहरी में बदरीनाथ का मंदिर कहाँ से आया ? आपकी दुविधा स्वाभाविक है । मैं इसके उत्तर में ये कहेना चाहूँगा की टिहरी में भी बदरीनाथ और केदारनाथ के मंदिर है । मैं बद्रीनाथ मंदिर की धर्मशाला में ठहरा ।
टिहरी अन्य पर्वतीय गाँवो की तुलना में काफि बडा है । इस १९४४ में, जब मैं वहाँ गया था तब, वहाँ इन्टर तक पढानेवाली कोलेज थी । टिहरी के आसपास उँचे-उँचे पर्वत हैं मगर पूरा गाँव मैदान में बसा है । बदरीनाथ का मंदिर गंगा के तट पर था । यहाँ गंगा भागीरथी के नाम से जानी जाती है । मंदीर के पास भागीरथी और भीलंगणा नदी का संगम होता है । संगम का दृश्य अत्यंत मनोहारी है, मन करता है उसे बस देखते रहें ।
केदारनाथ मंदिर में एक ब्रह्मचारी महात्मा रहेते थे । वे कुरुक्षेत्र के निवासी थे और स्वयंपाकी थे । उन्हें टिहरी में रहकर गायत्रीमंत्र का अनुष्ठान करना था । वे भक्तों की सहायता से यहाँ आये थे, मगर आने पर ही उनके छेसो रुपये चोरी हो गये थे । छेसो रूपये उनके लिये बहुत भारी रकम थी, इतने रुपये से वे दो-तीन साल अपना गुजारा कर सकते थे । उन्होंने जब ये बात मुझे बतायी तो मुझे बडा खेद हुआ ।
हिमालय आने के पूर्व मेरी कल्पना कुछ इस तरह थी । मैंने सोचा था की हिमालय ऋषिमुनि, त्यागी और तपस्वीओं का प्रदेश होगा, वहाँ कंदमूल और फलफूल मिलते होंगे । वहाँ रहनेवाले लोग पवित्र, प्रामाणिक और प्रभुपरायण होंगे । चोरी, व्यभिचार, जूठ और कपट का वहाँ नामोनिशान नहीं होगा । मगर अफसोस, यहाँ आने के बाद मेरी समज में आया की पहेले के समय में यहाँ चाहे जो भी हो, अब हिमालय का वातावरण वैसा नहीं है । चोरी, व्यभिचार, जूठ, कपट और अनीति का साम्राज्य हिमालय में बुरी तरह से फैला हुआ है । हिमालय के कुछ क्षेत्रों में तो स्थिति इतनी खराब है की वहाँ रहनेवाले लोग इससे परेशान है । और सिर्फ पहाडी इलाकों की बात क्यूँ करें, शहर और मैदानी इलाकों में भी स्थिति ज्यादा प्रसंशनीय नहीं है । इस मर्ज का इलाज होना चाहिए अन्यथा लोगों का जीवनधोरण बदलने के हमारे प्रयास असफल रहेंगे ।
कुरुक्षेत्र के महात्मा पुरुष के साथ मेरी अच्छी जानपहेचान हो गई । उनके प्रयास से बदरीनाथ के मंदिर में मेरे लिये दो वक्त भोजन का प्रबंध हो गया । मंदिर के पूजारीओं को भी मेरे लिये स्नेह हुआ ।