हमारे संतोने सत्संग की महिमा गाई है । संसार में जितने भी सुख है, सत्संग उनमें सर्वश्रेष्ठ है । अन्य सुख केवल तन और मन को प्रभावित करते हैं, जब की सत्संग आत्मा को प्रभावित करता है और परमात्मा के साक्षात्कार में हमें सहायता पहुँचाता है । वितराग और ईश्वरदर्शी महात्मा सत्संग के लिये सदैव उत्सुक रहते हैं और उसकी महिमा गाते रहते हैं । सत्संग में मुझे स्वर्गसुख मिलता है, और सच्चे संतो को मिलने के लिये मेरा अंतर हमेशा आतुर रहता है ।
हिमालय को संत-महात्माओं की आराध्य भूमि कही गयी है । लोग मानते हैं की हिमालय में संत-महात्माओं के दर्शन सुलभ होंगे मगर, आजकल वहाँ भी उनके दर्शन पाना कठिन हैं । बहुत सारे लोग संत्संग और संतसमागम की कामना से हिमालय क्षेत्र में आते हैं और निराश होकर लौटते है । सृष्टि में सभी जगह परिवर्तन हो रहा है तो हिमालय कैसे अछूत रहेगा भला ? फिर भी, हिमालय की भूमि में अब भी कुछ उच्च कोटि के संतपुरुष हैं । उनकी मौजूदगी से हिमालय की पवित्रता अब भी बनी हुई है । हाँ, उनकी गिनती कम हुई है, उनके दर्शन इतनी आसानी से नहीं हो पाते, मगर सच्चे साधक को उनके समागम का लाभ मिल ही जाता है । मैं टिहरी में ईश्वरकृपा से एसे ही उच्च कोटि के संतपुरुष से मिला । मगर टिहरी में उनसे हुई भेंट के बारे में बताने से पूर्व मैं आपको हरिद्वार ले चलूँगा ।
मैं सन १९४३ में अहमदाबाद के एक परिवार के साथ देवप्रयाग गया था, इसका जिक्र मैंने पूर्व प्रकरणों में किया है । उन्हीं के साथ मैं हरिद्वार गया था । हरिद्वार में उस वक्त श्रवणनाथ के मंदिर में उत्तरप्रदेश के सुप्रसिद्ध संत श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी की भागवत सप्ताह चल रही थी । भागवत कथा की समाप्ति होने पर प्रभुदत्तजी खडे हुए, और हाथ में मंजीरे लेकर, नृत्य के साथ संकीर्तन करने लगे । भक्तजनों के हाथ में भी मंजीरे, करताल और ढोलक थी । सब भावविभोर होकर नामसंकीर्तन करने लगे । मैं भी सब के साथ 'राधे राधे श्याम बोलो राधे राधे श्याम' का कीर्तन करने लगा । जब कीर्तन चरमसीमा पर पहूँचा तो केवल 'राधे राधे राधे राधे' ही सुनाई दिया । मुझे कीर्तन में रुचि है और तब संयोगवश मेरे पास करताल थी, इसलिये मुझे बड़ा मजा आया । करीब दस मिनट तक कीर्तन चला, फिर प्रभुदत्तजी अपने कक्ष में चले गये । संकीर्तन खत्म हुआ ।
श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में आकर कीर्तन करते थे और लोग समुह में नृत्य करते थे ऐसा मैंने पढा था । उनकी कीर्तनमंडली की तसवीर भी मैंने देखी थी । मुझे लगा की चैतन्य महाप्रभु को आदर्श मानकर प्रभुदत्तजी संकीर्तन करते थे । हाँलाकि चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन से उनकी तुलना करने का मेरा कोइ इरादा नहीं है । मैं तो सिर्फ यह बताना चाहता हूँ की प्रभुदत्तजी का संकीर्तन आकर्षक और आनंदप्रद था । हरिनाम का संकीर्तन हमेशा सुख और शांतिप्रदायक होता है । अगर किसीको एसा अनुभव न हों तो उसमें उसकी रसवृति का दोष होना चाहिए ।
समुहकीर्तन के कार्यक्रम आजकल बहुत सारी जगहों पर होते हैं । कीर्तनप्रेमी स्त्रीपुरुषों के लिये यह आनन्द की बात हैं मगर यहाँ कुछ सावधानी आवश्यक है । ज्यादातर कीर्तन लोगों के मनोरंजन कि लिये या तो पैसे इकट्ठे करने के उद्देश से किये जाते हैं, हमें यह वास्तविकता का स्वीकार करना होगा । हकीकत में नामसंकीर्तन और भजन हृदय में प्रभुप्रेम पैदा करके प्रभु को प्रसन्न करने के लिये होता है । संकीर्तन अपने आप में आराधना है, और उसका आराध्य केवल ईश्वर होना चाहिए । ईश्वर का स्थान कोई व्यक्ति या लौकिक स्वार्थ न ले लें उसका ध्यान रखना चाहिए । मीरांबाई, नरसीं, तुकाराम और चैतन्य महाप्रभु की तरह अगर आदमी केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिये भजन-कीर्तन करेगा तो उसका जीवन धन्य हो जायेगा, उसे इश्वर के दर्शन भी होंगे । भक्तों की जरूरतों को पूरा करने का जिम्मा ईश्वर का है । आवश्यकता पड़ने पर ईश्वर भक्त को धन या प्रतिष्ठा देता है मगर उसे ध्येय बनाकर भजन-कीर्तन करना अपने आप में गलत होगा । प्रारंभ में, अगर कोई लोकरंजन या धनकीर्ति के लीये संकीर्तन का आधार लें तो ठीक है मगर अंततः उसे केवल ईश्वर को भजना है । भजन-कीर्तन व्यवसाय के तौर पर नहीं मगर साधना के लिये होना चाहिये, तभी वह कल्याणकारी सिद्ध होगा ।
कीर्तन खत्म होने पर हम प्रभुदत्तजी के दर्शन के लिये गयें । हमें देखकर वे प्रसन्न हुए । तब मेरी नजर उनके बगलवाले कमरे पर पडी, जहाँ एक महात्मा बैठे हुए थे । उन्होंने श्वेत वस्त्र पहेने थे, उनकी मुखमुद्रा तेजस्वी थी और आँखो में शांति छलक रही थी । उनको देखकर मुझे लगा की निश्चित ही, यह कोई असाधारण पुरुष हैं, मगर उनके साथ बात करने का मौका नहीं मिला । हम वहाँ से निकले मगर मेरे मन में उनकी मुखमुद्रा हमेशा के लिये अंकित हो गयी ।
इस घटना को काफि दिन हो गये । जब मैं टिहरी आया तब अचानक एक दिन उनसे मेरी भेंट हुई । मैं गंगा की ओर जा रहा था और वे सामने से आ रहे थे । हमारी नजरें मिली । मेरी खुशकिस्मती थी की हम दोनों बदरीनाथ मंदिर की धर्मशाला में ठहरे थे । ईश्वर की कृपा से मुझे एक महान संत के समागम का अवसर मिला । मेरी मनोकामना पूरी हुई । उनका नाम वेदबन्धु था ।
हिमालय को संत-महात्माओं की आराध्य भूमि कही गयी है । लोग मानते हैं की हिमालय में संत-महात्माओं के दर्शन सुलभ होंगे मगर, आजकल वहाँ भी उनके दर्शन पाना कठिन हैं । बहुत सारे लोग संत्संग और संतसमागम की कामना से हिमालय क्षेत्र में आते हैं और निराश होकर लौटते है । सृष्टि में सभी जगह परिवर्तन हो रहा है तो हिमालय कैसे अछूत रहेगा भला ? फिर भी, हिमालय की भूमि में अब भी कुछ उच्च कोटि के संतपुरुष हैं । उनकी मौजूदगी से हिमालय की पवित्रता अब भी बनी हुई है । हाँ, उनकी गिनती कम हुई है, उनके दर्शन इतनी आसानी से नहीं हो पाते, मगर सच्चे साधक को उनके समागम का लाभ मिल ही जाता है । मैं टिहरी में ईश्वरकृपा से एसे ही उच्च कोटि के संतपुरुष से मिला । मगर टिहरी में उनसे हुई भेंट के बारे में बताने से पूर्व मैं आपको हरिद्वार ले चलूँगा ।
मैं सन १९४३ में अहमदाबाद के एक परिवार के साथ देवप्रयाग गया था, इसका जिक्र मैंने पूर्व प्रकरणों में किया है । उन्हीं के साथ मैं हरिद्वार गया था । हरिद्वार में उस वक्त श्रवणनाथ के मंदिर में उत्तरप्रदेश के सुप्रसिद्ध संत श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी की भागवत सप्ताह चल रही थी । भागवत कथा की समाप्ति होने पर प्रभुदत्तजी खडे हुए, और हाथ में मंजीरे लेकर, नृत्य के साथ संकीर्तन करने लगे । भक्तजनों के हाथ में भी मंजीरे, करताल और ढोलक थी । सब भावविभोर होकर नामसंकीर्तन करने लगे । मैं भी सब के साथ 'राधे राधे श्याम बोलो राधे राधे श्याम' का कीर्तन करने लगा । जब कीर्तन चरमसीमा पर पहूँचा तो केवल 'राधे राधे राधे राधे' ही सुनाई दिया । मुझे कीर्तन में रुचि है और तब संयोगवश मेरे पास करताल थी, इसलिये मुझे बड़ा मजा आया । करीब दस मिनट तक कीर्तन चला, फिर प्रभुदत्तजी अपने कक्ष में चले गये । संकीर्तन खत्म हुआ ।
श्री चैतन्य महाप्रभु भावावेश में आकर कीर्तन करते थे और लोग समुह में नृत्य करते थे ऐसा मैंने पढा था । उनकी कीर्तनमंडली की तसवीर भी मैंने देखी थी । मुझे लगा की चैतन्य महाप्रभु को आदर्श मानकर प्रभुदत्तजी संकीर्तन करते थे । हाँलाकि चैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन से उनकी तुलना करने का मेरा कोइ इरादा नहीं है । मैं तो सिर्फ यह बताना चाहता हूँ की प्रभुदत्तजी का संकीर्तन आकर्षक और आनंदप्रद था । हरिनाम का संकीर्तन हमेशा सुख और शांतिप्रदायक होता है । अगर किसीको एसा अनुभव न हों तो उसमें उसकी रसवृति का दोष होना चाहिए ।
समुहकीर्तन के कार्यक्रम आजकल बहुत सारी जगहों पर होते हैं । कीर्तनप्रेमी स्त्रीपुरुषों के लिये यह आनन्द की बात हैं मगर यहाँ कुछ सावधानी आवश्यक है । ज्यादातर कीर्तन लोगों के मनोरंजन कि लिये या तो पैसे इकट्ठे करने के उद्देश से किये जाते हैं, हमें यह वास्तविकता का स्वीकार करना होगा । हकीकत में नामसंकीर्तन और भजन हृदय में प्रभुप्रेम पैदा करके प्रभु को प्रसन्न करने के लिये होता है । संकीर्तन अपने आप में आराधना है, और उसका आराध्य केवल ईश्वर होना चाहिए । ईश्वर का स्थान कोई व्यक्ति या लौकिक स्वार्थ न ले लें उसका ध्यान रखना चाहिए । मीरांबाई, नरसीं, तुकाराम और चैतन्य महाप्रभु की तरह अगर आदमी केवल ईश्वर की प्रसन्नता के लिये भजन-कीर्तन करेगा तो उसका जीवन धन्य हो जायेगा, उसे इश्वर के दर्शन भी होंगे । भक्तों की जरूरतों को पूरा करने का जिम्मा ईश्वर का है । आवश्यकता पड़ने पर ईश्वर भक्त को धन या प्रतिष्ठा देता है मगर उसे ध्येय बनाकर भजन-कीर्तन करना अपने आप में गलत होगा । प्रारंभ में, अगर कोई लोकरंजन या धनकीर्ति के लीये संकीर्तन का आधार लें तो ठीक है मगर अंततः उसे केवल ईश्वर को भजना है । भजन-कीर्तन व्यवसाय के तौर पर नहीं मगर साधना के लिये होना चाहिये, तभी वह कल्याणकारी सिद्ध होगा ।
कीर्तन खत्म होने पर हम प्रभुदत्तजी के दर्शन के लिये गयें । हमें देखकर वे प्रसन्न हुए । तब मेरी नजर उनके बगलवाले कमरे पर पडी, जहाँ एक महात्मा बैठे हुए थे । उन्होंने श्वेत वस्त्र पहेने थे, उनकी मुखमुद्रा तेजस्वी थी और आँखो में शांति छलक रही थी । उनको देखकर मुझे लगा की निश्चित ही, यह कोई असाधारण पुरुष हैं, मगर उनके साथ बात करने का मौका नहीं मिला । हम वहाँ से निकले मगर मेरे मन में उनकी मुखमुद्रा हमेशा के लिये अंकित हो गयी ।
इस घटना को काफि दिन हो गये । जब मैं टिहरी आया तब अचानक एक दिन उनसे मेरी भेंट हुई । मैं गंगा की ओर जा रहा था और वे सामने से आ रहे थे । हमारी नजरें मिली । मेरी खुशकिस्मती थी की हम दोनों बदरीनाथ मंदिर की धर्मशाला में ठहरे थे । ईश्वर की कृपा से मुझे एक महान संत के समागम का अवसर मिला । मेरी मनोकामना पूरी हुई । उनका नाम वेदबन्धु था ।