साधना में अभिरुचि रखनेवालों के लिये रमण महर्षि का नाम जाना-पहेचाना है । भारत के आध्यात्मिक क्षितीज पर पीछले कुछ वर्षो में जिन ज्योतिर्धरों का उदय हुआ है, उनमें श्री रमण महर्षि का नाम विशेष उल्लेखनीय है । उन्होंने अपने जीवन तथा कार्यों से भारत का नाम रोशन किया है । भारत के अलावा पश्चिम के कई देशो में अपना उजाला फैलाकर महर्षिने देश को गौरवान्वित किया है तथा मानवजाति की बहुमुल्य सेवा की है । मद्रास प्रांत के छोटे-से गाँव में पैदा होकर केवल अठारह साल की आयु में उन्होंने गृहत्याग किया था । दक्षिण भारत के सुविख्यात अरुणाचल पर्वत पर कठिन तप करके उन्होंने आत्मानुभूति की थी । साधारण साधक से वो क्रमशः सिद्ध और जीवनमुक्त महापुरुष बने थे । अपने अनुभूतिजन्य ज्ञान से उन्होंने कई साधकों का अज्ञान-तिमिर हटाया है । देशविदेशों में महर्षि के प्रसंशक तथा अनुयायी भक्त है । भारत की भूमि उन्हें पाकर धन्य हुई, एसा कहने में कोई हर्ज नहीं है ।
उत्तरकाशी में एक दिन मुझे रमण महर्षि के दर्शन हुए । मध्यरात्रि के बाद जब मैं नित्यक्रमानुसार ध्यान में बैठा था, मेरा देहभान चला गया । तब, रमण महर्षि मेरे सामने उपस्थित हुए । मैंने उनकी तसवीरें देखी थी । बडौदा में था, तब मैंने उनके बारे में काफि कुछ सुना था, इसलिये उनको पहेचानने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । मेरे लिये उनके दर्शन का यह पहला अवसर था । मैंने देखा तो मैं उनके साथ चौपाटी के समुद्रतट पर ख़डा था । उनकी दिव्य शक्ति से शायद मुझे यह अनुभव हो रहा था । मैं कुछ ओर सोचूँ इसके पहले मैं उनके साथ लहरों पर चलने लगा । हमारे शरीर पानी के उपर मानो तैर रहे थे । कुछ ही क्षण में हम रमणाश्रम आ पहूँचे । वे मुझे आश्रम के मुख्य कमरे में ले गये । वहाँ जाकर उन्होंने मुझे आलिंगन दिया, और मेरा हाथ पकडकर अपनी कुर्सी के पास बिठाने लगे । उनके साथ बैठने में मुझे संकोच हुआ । मेरे संकोच की परवाह न करते हुए उन्होंने मुझे पास बिठाकर कहा: 'अभी आपको मालूम नहीं है की आप कितने महान पुरुष हैं मगर मैं आपको अच्छी तरह से पहचानता हूँ । आपको मेरे पास बैठने में संकोच करने की जरूरत नहीं है । भविष्य में आपसे बहुत सारे काम होनेवाले हैं ।'
कुछ अन्य मसलों पर विचारविमर्श हुआ । तकरीबन आधा घण्टा बीत गया । मेरी ध्यानावस्था पूर्ण होने पर मैं जाग्रत हुआ । देहभान लौटने पर मैंने देखा तो मैं उत्तरकाशी की मेरी कुटिया में ध्यानस्थ था । पिछले कुछ दिनों से मुझे विभिन्न और आश्चर्यकारी अनुभव मिल रहे थे । यह अनुभव अपने आप में असाधारण और अत्यंत आश्चर्यकारक था क्योंकि मुझे एक ऐसे महापुरुष के दर्शन हुए जो जीवित तथा सुप्रसिद्ध थे । आगे चलकर, रमण महर्षि के साथ मेरा स्नेहसंबंध घनीभूत हुआ और उन्होंने कई अनुभव देकर मुझे आभारित किया । इसी नजरिये से देखा जाय तो रमण महर्षि की कृपा का यह प्रथम अनुभव मेरे लिये शकवर्ती तथा एतिहासिक था ।
उत्तरकाशी में एक दिन मुझे रमण महर्षि के दर्शन हुए । मध्यरात्रि के बाद जब मैं नित्यक्रमानुसार ध्यान में बैठा था, मेरा देहभान चला गया । तब, रमण महर्षि मेरे सामने उपस्थित हुए । मैंने उनकी तसवीरें देखी थी । बडौदा में था, तब मैंने उनके बारे में काफि कुछ सुना था, इसलिये उनको पहेचानने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई । मेरे लिये उनके दर्शन का यह पहला अवसर था । मैंने देखा तो मैं उनके साथ चौपाटी के समुद्रतट पर ख़डा था । उनकी दिव्य शक्ति से शायद मुझे यह अनुभव हो रहा था । मैं कुछ ओर सोचूँ इसके पहले मैं उनके साथ लहरों पर चलने लगा । हमारे शरीर पानी के उपर मानो तैर रहे थे । कुछ ही क्षण में हम रमणाश्रम आ पहूँचे । वे मुझे आश्रम के मुख्य कमरे में ले गये । वहाँ जाकर उन्होंने मुझे आलिंगन दिया, और मेरा हाथ पकडकर अपनी कुर्सी के पास बिठाने लगे । उनके साथ बैठने में मुझे संकोच हुआ । मेरे संकोच की परवाह न करते हुए उन्होंने मुझे पास बिठाकर कहा: 'अभी आपको मालूम नहीं है की आप कितने महान पुरुष हैं मगर मैं आपको अच्छी तरह से पहचानता हूँ । आपको मेरे पास बैठने में संकोच करने की जरूरत नहीं है । भविष्य में आपसे बहुत सारे काम होनेवाले हैं ।'
कुछ अन्य मसलों पर विचारविमर्श हुआ । तकरीबन आधा घण्टा बीत गया । मेरी ध्यानावस्था पूर्ण होने पर मैं जाग्रत हुआ । देहभान लौटने पर मैंने देखा तो मैं उत्तरकाशी की मेरी कुटिया में ध्यानस्थ था । पिछले कुछ दिनों से मुझे विभिन्न और आश्चर्यकारी अनुभव मिल रहे थे । यह अनुभव अपने आप में असाधारण और अत्यंत आश्चर्यकारक था क्योंकि मुझे एक ऐसे महापुरुष के दर्शन हुए जो जीवित तथा सुप्रसिद्ध थे । आगे चलकर, रमण महर्षि के साथ मेरा स्नेहसंबंध घनीभूत हुआ और उन्होंने कई अनुभव देकर मुझे आभारित किया । इसी नजरिये से देखा जाय तो रमण महर्षि की कृपा का यह प्रथम अनुभव मेरे लिये शकवर्ती तथा एतिहासिक था ।
रमण महर्षि अरुणाचल-स्थित अपने आश्रम का त्याग करके कभी बाहर नहीं गये थे । यहाँ तक की वे रमणाश्रम को छोड़कर मद्रास तक नहीं गये थे । बाह्य रूप-से उदासीन, निष्क्रिय और आत्मस्थित दिखनेवाले यह महापुरुष आंतरिक-रुप से कितने क्रियाशील थे, यह कौन कह सकता है ? महर्षि की शक्ति अदभुत थी, समाधि पर उनका पूर्ण काबू था । वे कई सिद्धियों के स्वामी थे । स्थूलरूप से रमणाश्रम में रहनेवाले महर्षि सूक्ष्मरूप से, संकल्प के बल पर भक्त-साधकों को प्रेरणा प्रदान करते थे । महर्षिने कितने अनगिनत साधकों को शांति दी होगी, कितने पथच्युत साधकों का मार्गदर्शन किया होगा । महर्षि के इस महान और गुप्त सेवाकार्य को पूर्णतया कौन जान सकता है ? बाह्यरूप से उदासीन दिखनेवाले कई सिद्ध-संतपुरुष रमण महर्षि की तरह संसार की सेवा करते रहतें हैं ।
मेरे अनुभवों से मैं यह कह सकता हूँ की एसे अनुभव या तो ईश्वर की कृपा से साधकों का उत्साह बनाये रखने के लिये मिलते हैं या तो महापुरुषों की स्वतंत्र इच्छा से मिलते हैं । जिन अनुभवों के पीछे ईश्वर की शक्ति कार्यभूत होती हैं उनके बारे में महापुरुषों को स्वयं कुछ पता नहीं चलता । जबकी दूसरे प्रकार के अनुभव में महापुरुषों की शक्ति तथा इच्छा प्रमुखतः कारणभूत होती है । एसे अनुभवों में महापुरुष अपने दर्शन का निश्चित समय आगे से बताकर अनुभूति दे सकते हैं । साधकों को अनुभव के सूक्ष्म भेद मालूम न होने के कारण वे सभी अनुभवों को महापुरुष की शक्ति से हुए मान लेते हैं । संतपुरुष भी भक्तों के अनुभव सुनने पर अपने बारे में गलत धारणाएँ करतें हैं । यहाँ तक की, ईश्वर की शक्ति से हुए अनुभवों को अपनी शक्ति से हुए बताकर, उसे चमत्कार सिद्ध करतें हैं । हकीकत में उन्हें अपनी मर्यादाओं से अवगत होकर, उसे दूर करने के लिये साधना करनी चाहिए । एसा करने पर वे अपने साधकों को ईच्छानुसार अनुभव व दर्शन देने के काबिल हो सकेंगे । रमण महर्षि में एसी शक्ति थी । उनके संपर्क में आनेवाले लोग यह बात अच्छी तरह से जानते हैं ।