आठ और नौ दिसम्बर १९४७ के दिन विशेष प्रार्थना के दिन रहें । देवप्रयाग में किये गये अनशन की वजह से मेरी सेहत थोडी कमजोर थी मगर माँ के प्रत्यक्ष दर्शन से मेरा उत्साह दुगुना हो गया था । माँ ने पूर्ण अनुभूति के लिये जो दिन सूचित किया था वो पास में था इसलिये मैं उतावला हो रहा था । मेरे रोमरोम से एक ही सूर निकल रहा था । माँ, अब तक मैंने बहुत पीडा सही है । अब आपकी पूर्ण कृपा के बिना मुझे चैन नहीं होगा । अब देर मत करो, जल्द-से-जल्द आकर मुझे शांति प्रदान करो ।
ऋषिकेश की देवकीबाई धर्मशाला में ९ दिसम्बर की रात जब मैं प्रार्थना करने बैठा तो मन बाँवला हो उठा । मुझे लगा की अभी निश्चित माँ के दर्शन होंगे, माँ का सुमधुर स्वर सुनाई देगा, मेरी तपस्या का सुखद अंत होगा । मेरी व्याकुलता जब चरमसीमा पर पहूँची तो मेरा देहभान चला गया । उस अवस्था में मैंने देखा की माँ के मुख पर अपार्थिव तेज है, उन्होंने गुलाबी रंग की साडी पहनी है । उनके केश लम्बे और खुले हुए है । उनके जैसा सुंदर स्वरूप मैंने संसार में कही देखा नहीं था । भावविभोर होकर मैंने कहा, माँ, हर तरफ अपना तेज फैला दो । मुझे हरहमेश दर्शन दो ।'
माँने कहा: 'अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है ।'
'आप मुझे हररोज दर्शन दो ।'
'एसा नहीं कर सकती ।'
'क्यूँ ? तो दो-तीन दिन के बाद आना ।'
'ठीक है, दो-चार दिन के बाद आउँगी ।'
'आपके आने का वक्त बता दो ।'
'नहीं, मगर आउँगी जरूर ।'
फिर वो अदृश्य हो गयी । मैंने चाहा की वो फिर आये मगर कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला । उनके स्वरूप की मधुरता का वर्णन करना मुश्किल है । ये सिर्फ अनुभवगम्य बात है ।
कुछ अरसे के बाद मेरा देहभान लौट आया । दो बजे थे, घडी की आवाज सुनाई दी । माँ की कृपा से हुई समाधि का अंत हुआ ।
इस अनुभव से मैं बेहद खुश हुआ मगर पूर्ण कृपा की कोशीश अब-भी जारी थी । दर्शन के लिये माँ ने दहेरादून १४ दिसम्बर का दिन सूचित किया । इसलिये मैं दहेरादून भैरवदत्त जोशी के घर आया । मुझे देखकर वे अति प्रसन्न हुए । उनके घर पर मैंने कुछ दिन प्रार्थना और प्रतीक्षा में व्यतीत किये । आखिरकार चौदहवी तारीख आयी जिसका मुझे बडी बेसब्री से इंतजार था । मेरे अलावा किसीको मेरी साधना के बारे में पता नहीं था । किसीको इसके बारे में बताने की आवश्यकता नहीं थी । अगर मैं बताता तो भी शायद ही कोई मुझे समज पाता । मेरा स्वभाव रहा है की किसी कार्य को खत्म करने के बाद उसके बारे में किसी अन्य व्यक्ति को बताना । इसी कारण से भैरवदत्त जोशी भी मेरी यह साधना से अनभिज्ञ थे । प्रसिद्धि हेतु साधना के विज्ञापन के इस युग में साधना को गुप्त रखना अपने आप में तपस्या से कम नहीं है । माँ की कृपा से यह मेरे लिये सहज था ।
उन दिनों, मुझे रातभर नींद नहीं आती थी । दिन का सारा वक्त मैं बैठकर गुजारता था । अगर एक-दो घण्टा समाधि का लाभ मिल जाये तो उससे दिनभर की थकान चली जाती थी । जब से मैं जाग्रत हुआ हूँ, निद्रा की मोहिनी से हो सके इतना दूर रहा हूँ । जिसे पूर्णता की प्राप्ति करनी है उसे निद्रा का त्याग करना होगा और मुक्ति का महारस पाने के लिये पुरुषार्थ करना होगा । रात का वक्त इसके लिये अतिशय लाभदायी सिद्ध हो सकता है ।
रात का वक्त तो एसे ही जाने लगा । मध्यरात्री होने आयी मगर माँ के दर्शन नहीं हुए । क्या माँ के वचन मिथ्या होंगे ? मैंने अपने समग्र अस्तित्व को प्रार्थना में जोड दिया । मेरी आँखो से अश्रु बहने लगे । हे माँ, इस विषम कलिकाल में कौन आपके लिये इस तरह रोता है ? कौन इतनी पीडा सहन करता है ? कौन आपके लिये इतना प्यार जताता है ? और आप है जो बस देखते रहते हो । आप मुझ पर कृपा क्यूँ नहीं करते ? हाँ, मुझमें कोई विशेष योग्यता नहीं है । साधना की कोई सूझबुझ नहीं है । जैसे बच्चा माँ के लिये रोता है, पुकारता है, इसी तरह मैं आपके लिये रोता हूँ, आपको पुकारता हूँ । फिर भी आप क्यूँ नहीं आते ? अब मुझे ज्यादा ना तडपाओ, ना रुलाओ । एसा करना क्या आपको शोभा देता है ?
प्रार्थना करते हुए कब मेरा देहभान चला गया, इसका मुझे पता नहीं चला । मैंने देखा की कोई सिद्ध महापुरुष मुझे माँ के पास ले गये । माँ का स्वरूप अत्यंत तेजस्वी था । मैंने कहा, इतना काफि नहीं, मुझे माँ के मुखारविन्द के दर्शन करने है । फिर मुझे माँ के अत्यंत गौर, तेजस्वी और मनोहर मुख के दर्शन हुए । माँ ने गुलाबी साडी पहनी हुई थी ।
मैं भावविभोर होकर माँ को गले लगा ।
मैंने कहा: 'माँ, मुझे रिद्धि-सिद्धि प्रदान करो ।'
माँ ने कहा: 'सर्व रिद्धि-सिद्धि प्राप्त हो ।'
'विश्व का कल्याण ?'
'विश्व का कल्याण तेरे हाथों-से हो ।'
मैंने कहा: 'माँ, इतनी देर क्यूँ लगा दी आने में ?'
कुछ बातचीत के बाद माँ अदृश्य हो गयी । मेरी देहातीत दशा जारी रही । कुछ वक्त के बाद देहभान आया और फिर चला गया । आँखो से आँसू छलकतें रहें । इसका वर्णन करने के लिये मेरे पास शब्द नहीं है । यह केवल और केवल अनुभव की बात है ।
मेरे दो मनोरथ माँ ने पूर्ण किये इसलिये मैं बेहद खुश था । मगर मैं चाहता था की माँ के साक्षात दर्शन जागृति की दशा में और चौबीसो घण्टे होते रहें । इस मकसद की कामियाबी तक मुझे चैन और आराम नहीं होगा । मुझे पूर्णता हासिल करनी थी और दूसरों की भलाई के लिये कार्य करने थे । शायद इसके लिये विशेष साधना की आवश्यकता थी । मैं चाहता था की मैं देवप्रयाग जाउँ मगर जगदंबा के आदेशानुसार मैं वढवाण गया । चंपकभाई ने मुझे वहाँ आने का न्यौता दिया था । अब भारत आजाद हो चुका था, इसलिये उनके पकडे जाने का डर नहीं था । उनकी शादी हो चुकी थी ।
मैं हिमालय में था तब मेरी माताजी सरोडा में थी । मेरे वढवाण जाने की खबर पाकर वो भी वहाँ आयी ।
वढवाण में मेरा साधनाक्रम जारी रहा । माँ के दिव्य दर्शन का लाभ मिलता रहा । फिर भी मेरी सदैव दर्शन की इच्छा अधूरी थी । माँ ने जब ३० दिसम्बर, मंगलवार को दर्शन दिया तब मैंने पूछा: 'माँ, आपके साक्षात दर्शन का निश्चित दिन और समय मुझे बताओ ।'
माँ ने कहा : 'नंदपंचमी'
यह सुनकर मुझे अत्यंत हर्ष हुआ मगर नंदपंचमी किसे कहते है यह मुझे पता नहीं था । मैंने माना की शायद वसंतपंचमी को नंदपांचम कहते होंगे, इसलिये मैं वसंतपंचमी की प्रतीक्षा करने लगा । मंझिल जीतनी मुश्किल होती है, रास्ता उतना ही कठिन होता है ।