उन दिनों कोंग्रस के नेतृत्व में आजादी की लडाई पूरजोश में चल रही थी । देवप्रयाग में होते हुए भी मैं देश की राजकीय परिस्थिति के बारे में हमेशा सोचा करता था । इसमें हैरान होने जैसी कोई बात नहीं है । हिमालय की शांत-एकांत कुटिया में बैठकर मेरा देश के मौजूदा हालात के बारे में सोचना असंगत नहीं है । इस आत्मकथा को शुरु-से पढनेवाले वाचक मेरी भावनाओं से वाकिफ है, वो मुझे ठीक तरह से समज पायेंगे । मेरी यह दिली तमन्ना थी की मैं साधना करके अपनी मंझिल पा लूँ, फिर देश और दुनिया के काम आउँ । इससे प्रेरित होकर मैंने महर्षि अरविन्द को खत लिखा था, जिसमें भारत को आजादी मिले और इसमें मैं अपनी ओर से कुछ योगदान दूँ, एसी मनोभावना का प्रतिबिंब था । गांधीजी के मिशन में किसी-भी प्रकार से काम आने की मेरी तमन्ना थी ।
मैं सोचता था की सबसे पहले पूर्णता हासिल कर लूँ, सिद्धियाँ प्राप्त कर लूँ । फिर ईश्वर का आशीर्वाद पाकर देश की भलाई के काम में अपने आपको समर्पित करूँ । मैंने अपना सारा ध्यान पूर्णता की प्राप्ति में लगा दिया था । मेरी समज और शक्ति के मुताबिक देश की आजादी के लिये प्रार्थना भी करता था । मैं चाहता था की सिद्धिप्राप्ति के पश्चात गांधीजी के सत्याग्रह आंदोलन में सहायता करूँ । अंग्रेजी हुकूमत और चर्चील की सोच में बदलाव लाकर, उन्हें भारत को आजाद करने की सूझबूझ दूँ । एसा करके धर्म तथा आध्यात्मिकता की ओर लोगों के मन में श्रद्धा जगाउँ । मेरे मन में दो बातें थी । एक, की भारत जल्द-से-जल्द आजाद हो जाय और दूसरी, अहिंसापूर्ण रीत से आजाद हो जाय । अगर भारत गांधीजी के सत्य और अहिंसा के पथ पर चलकर आजाद होता है तो पूरे विश्व का आध्यात्मिक प्रेरणाकेन्द्र बन सकता है । इसलिये गांधीजी के प्रयासो में जो भी हो सके, योगदान देने की मेरी इच्छा थी । मैं इसके बारे में नारायणभाई को खत में लिखा करता था । मैं एक अत्यंत महत्वकांक्षी और भावुक नवयुवान था ।
नेताजी सुभाषचंद्र बोझ और उनके द्वारा प्रस्थापित आजाद हिन्द फौज के बारे में बहुत कुछ सुनने में आता था । मुझे नेताजी की कुनेह, देशप्रेम और कार्यकुशलता पर बेहद मान था । देश को आजाद करने के लिये उनके द्वारा किये जा रहे प्रयासों से मेरा हृदय भर आता था । फिर भी हिंसा और शस्त्रों से भारत आजाद हो, एसा मैं नहीं चाहता था । इसका मतलब ये कतई नहीं की मुझे नेताजी के प्रति आदरभाव नहीं था या मैं उनके विरुद्ध था । किसीके भी प्रयासों से देश आजाद हो यही मेरी तमन्ना थी । हाँ, हिंसा और शस्त्रों के बिना देश आजाद होता है तो वह विश्व को अहिंसा का संदेश दे सकता है और यही कारण था की मैं गांधीजी के प्रयासों की सफलता के लिये प्रार्थना करता था ।
आखिरकार भारत को अहिंसक आजादी मिली और मेरी भावना सफल हुई । इसका ये मतलब कतई नहीं की नेताजी सुभाषचंद्र बोज़ के प्रयास पानी में गये । उनके प्रयासों से आजादी की लडाई में नया जोश और उत्साह आया था, यह निर्विवाद है । भले नेताजी अपने मकसद में कामियाब नहीं हुए, आजादी के इतिहास में उन्होंने अपना नाम अमर कर दिया । मैं चाहता हूँ की नेताजी का सम्मान हो, और उनका राष्ट्रीय स्मारक बनें । किसी व्यक्ति का सफल या निष्फल होना ईश्वर के हाथों में है । आदमी को चाहिये की आखिरी साँस तक जमकर प्रयास करें ।
आजाद हिन्द फौज के अफसरों पर कार्यवाही हुई । लाल किले में श्री भुलाभाई देसाई ने उनका केस लडा और उनका बचाव किया । इस केस से देश में एकता और जागृति की लहर फैली । देश को आजाद करने के लिये जान की बाजी लगानेवाले सैनिकों पर कार्यवाही हो यह बात अपने आप में बेहूदी थी । कार्यवाही तो उन पर होनी चाहिये थी जिन्होंने हमें गुलाम बनाकर बरबाद किया था ।
बंबई में नौसैनिको के दंगे हुए । अमरिका ने हमारी आजादी की माँग का समर्थन किया । सन १९४२ में भारत छोडो आंदोलन चला । आखिरकार १९४७ में देश आजाद हुआ । मगर आजादी का रास्ता इतना आसान नहीं था । मुस्लीम लीग की अगवानी में देश के विभिन्न भागों में दंगे हुए । कोलकता, नोआखली, बिहार में खुली कत्लेआम हुई, न जाने कितने निर्दोष लोगों की जानें गई । देवप्रयाग की कुटिया में बैठकर व्यथित होने के अलावा मैं कर भी क्या सकता था ? देश में शांति और सदभाव हो, इसके लिये नियमित रूप से प्रार्थना करता रहा । मेरी भावनाओं का प्रतिबिंब मेरे उस समय के साहित्य में दिखाई पडता है ।
आजादी के तुरन्त बाद के दिन विपत्ति और वेदना के थे । देशनेताओं की चिंता का पार नहीं था । आजादी के लिये उन्होंने अलग पाकिस्तान का स्वीकार किया । मुझे लगता है की नेताओं से बडी भूल हो गई । पाकीस्तान की रचना के बाद बंगाल और पंजाब में जो कहेर बरसा, उससे देश के नेता बच नहीं सकते । कश्मीर का मसला हल नहीं हुआ । उसे युनो की सलामती समिति में ले जाया गया । एसा करने से बात और बिगड गयी । मसला हल होने के बजाय और पेचीदा हो गया ।
पाकीस्तान की रचना, गांधीजी की हिन्दु-मुस्लीम एकता की भावना पर वज्रपात था । उनका हृदय रोता रहा । बँटवारे के बाद देशभर में दंगे हुए, इससे गांधीजी अत्यंत व्यथित हुए । उनके दिल्ली के अंतिम प्रवचनों से यह बात स्पष्ट होती है । भारत के बँटवारें की बात मुझे भी अच्छी नहीं लगी । धर्म के आधार पर देश का विभाजन हो, ये मुझे ठिक नहीं लगा । भारत में अनेक धर्म और भाषा के लोग रहते है । सब साथ मिलकर रहें एसी मेरी भावना थी । मैंने रोजनिशी में लिखा, 'भारत का कृत्रिम विभाजन देशहित में नहीं है ।' मेरी यह बात आजादी के बाद घटी घटनाओं ने सत्य साबित कर दी ।
मेरा देश के मौजूदा हालात के बारे में चिंतन जारी रहा । जमकर साधना होती रही और साथ में, देश के लिये नियमित रुप से प्रार्थना होती रही ।
मुझे अपने आप पर और साधना पर भरोंसा था । साधना के उच्चोच्च शिखर सर करने के लिये तन-मन में उत्साह था ।
जैसे की स्व. झवेरचंद मेघाणी ने कहा है ..
'घटमां घोडा थनगने, आतम वींझे पाँख,
अणदिठेली भोम पर, यौवन मांडे आँख'
मेरी तथाकथित सिद्धि की मंझिल भले मुझे नहीं मिली थी, मगर उसका नक्शा मेरे मन में पूर्ण रूप से अंकित था ।