वसंतपंचमी के दिन हम वढवाण से सरोडा गये । साथ में नारायणभाई तथा चंपकभाई थे । वढवाण में माँ ने नंदपंचमी का दिन सूचित किया था, मगर नंदपंचमी किसे कहते है ये मुझे मालूम नहीं था । वसंतपंचमी को माँ की विशेष कृपा का अनुभव नहीं हुआ । मुझे और इन्तजार करना था ।
जब मैं बडौदा से हिमालय के लिये निकला तो स्टेशन पर मुझे छोडने माताजी और ताराबेन आयी । माताजी ने मेरे साथे बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री एवं जमनोत्री की यात्रा की थी । माताजी को हिमालय की पावन भूमि का आकर्षण था । उनकी इच्छा मेरे साथ रहने की थी । मैं भी चाहता था की वो मेरे साथ रहकर हरिस्मरण करें और शांति का अनुभव करें । माताजी अंतरंग अवस्था अन्य स्त्रीयों जैसी नहीं थी । उनका हृदय निर्मल, सरल एवं प्रेममय था । आध्यात्मिक जीवन की उन्हें समज थी । मैं उनका एकमात्र आधार था फिर भी उन्होंने मुझे हिमालय जाने से नहीं रोका, ना ही किसी प्रकार की बाधा डाली थी । उन्होंने हमेशा सांसारिक सुखाकारी के बजाय ईश्वरप्राप्ति को ज्यादा अहेमियत दी थी । ईश्वर के आशीर्वाद और पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण मुझे एसी माँ मिली थी ।
शायद ही किसी संतमहात्मा के नसीब में एसी माँ होगी जिसने अपने पुत्र की आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में कोई बाधा न डाली हो, उसके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया हो, उसकी उच्च आध्यात्मिक भूमिका को पहचान कर उसके प्रति सम्मान की भावना रक्खी हो, उसके साथ रहकर उसकी सेवा की हो और एसा करते करते स्वयं शांति की संप्राप्ति की हो । माताजी इसी वजहों से असाधारण आदर-सम्मान की अधिकारी है । मेरी इच्छा माताजी को साथ रखने की थी मगर उनकी कुछ जिम्मेदारीयाँ थी जिसे पूर्ण करना आवश्यक था । सरोडा में माताजी की वृद्ध सासुमाँ साथ रहती थी । उन्हें पिछले दस साल से कुछ दिखाई नहीं देता था । उनके देखभाल की जिम्मेदारी माताजी पर थी । कुछ दिन के लिये वो उसे किसी रिश्तेदार की निगरानी में रख सकती थी मगर लंबे अरसे तक एसा करना संभव नहीं था ।
मैं माताजी का आशीर्वाद लेकर हिमालय के लिये रवाना हुआ मगर इश्वर की इच्छा कुछ ओर थी । बडौदा से ट्रेन छुटने के बाद मेरे विचारों ने मेरे मन पर कब्जा कर लिया । मुझे लगा की माताजी को हिमालय ले जाना चाहिए । उनके सासुमाँ, सांकुबा की देखभाल के लिये कुछ-न-कुछ व्यवस्था हो जायेगी । मैं रतलाम से वापिस लौटा । दुसरे दिन अहमदाबाद जाकर माताजी को मिला और दो दिन के बाद हम हिमालय के लिये निकलें । माताजी की खुशी का ठिकाना नहीं था । तब उन्हें मालूम नहीं था की ईश्वर ने हमेशा के लिये हमारे साथ रहने की योजना बनायी है । उसने वक्त आने पर माताजी की इच्छा पूर्ण की, और नवजीवन के द्वार खोल दिये ।
ऋषिमुनिसेवित हिमालय की पावन भूमि देवप्रयाग में रहना आरामदायी नहीं था । वहाँ खानेपीने की तकलीफ, जाडे में ठंड की तकलीफ, लोगों की भीडभाड से दूर नितांत एकांत में रहने जैसी कई मुश्किलें थी । केवल ईश्वर पर भरोंसा रखकर इनका हँसते हुए सामना करना था । माताजी ने वही किया । दिन का पूरा वक्त मैं साधनारत और मौन रहता था । मेरे साथ रहना माताजी के लिये परीक्षा थी ।
शांताश्रम आकर मैंने साधना की पूर्णता के लिये प्रयास तेज कर दिये । माँ की कृपा के लिये प्रार्थना करना मेरी एकमात्र प्रवृत्ति थी ।
हिमालय में कुछ वक्त साथ बीताने के बाद मैंने माताजी को गुजरात भेज दिया । माताजी को गये तीन दिन ही हुए थे की मुझे सरोडा जाने की प्रेरणा मिली । ईश्वर की प्रेरणा हमेशा मंगलकारी होती है । मेरे आज तक के अनुभवों से यह बात सिद्ध हुई है । मैंने सरोडा जाने के लिये देवप्रयाग को अलविदा कहा ।