साबरमती से बंबई होकर हम मद्रास (चेन्नई) आये। यहाँ एक दिन प्रार्थना करते वक्त अंतःस्फुरणा हुई इसलिये रामेश्वर आये । रामेश्वर की गिनती भारत के चार प्रख्यात यात्राधामों में होती है ।
रामेश्वर आकर मंदिर के बगल की धर्मशाला में कमरा लिया । जब धर्मशाला की छत पर टहलने गया तो मन में विचार आया की रामेश्वर आने की प्रेरणा क्यूँ हुई ? मैंने मद्रास में शिवरात्री के पावन पर्व पर शिवमहिम्नस्तोत्र का पद्यानुवाद पूर्ण किया था । शायद भगवान शिव मेरे इस कार्य से प्रसन्न होकर मुझे यहाँ लाना चाहते थे ?
रात को हम मंदिर में दर्शन करने गये । मंदिर में नयनाभिराम मूर्ति के दर्शन करके बडी प्रसन्नता हुई । मंदिर की भव्यता ने मेरा मन मोह लिया । मंदिर के चारों ओर असंख्य स्तंभ है, जिन पर नाजुक मीनाकारी की गयी है । हमें लगा की हमारा रामेश्वर आना सफल हुआ ।
मंदिर से थोडी दूरी पर समंदर है । उसकी शोभा देखते ही बनती है । न जाने कितने युगों से वो अपने अनगिनत तरंगो से भगवान आशुतोष की आरती उतार रहा है ।
मंदिर के आसपास, सभी जगहों पर याचक दिखाई पडे । उम्र में छोटे, बडे, सब यात्रीओं से पैसा माँग रहे थे, या यूँ कहो की, पैसे के लिये बिलख रहे थे । मुझे यह देखकर दुःख हुआ । देश के छोटे या बडे, शिक्षित या अशिक्षित, धनी या साधारण – सभी नागरिकों का कर्तव्य बनता है की वो अपनी जरूरत से ज्यादा इस्तमाल न करे और अनावश्यक किसी जरूरतमंद को दे । संयम, अपरिग्रह और त्यागभाव से हम निश्चित यह परिस्थिति दूर कर सकते हैं ।
दुसरे दिन सुबह, जब हम मंदिर गये, पूजारी ने भगवान रामेश्वर पर चढाई हुई पुष्पमाला हमे भेंट दी । मुझे लगा की भगवान शंकर ने मेरे जैसे साधारण प्रेमी का स्वागत किया । शाम के वक्त हम रामझरुखे के दर्शन करने गये । उसका रास्ता हनुमान मंदिर होकर गुजरता है । हनुमानजी राम के परम भक्त है । जो भी यहाँ होकर गुजरता है उन्हें प्रसाद दिया जाता है । रामझरुखे का मार्ग चाहे कष्टप्रद हो, उसकी शोभा देखते ही बनती है । यह स्थान उचाँई पर है, और यहाँ से समंदर साफ दिखाई पडता है । यहाँ से रामेश्वर मंदिर के भी दर्शन होते है । यहाँ आकर मन करता है की एक झरुखा लगाकर बस जायें । हम रामझरुखा पहूँचे तब शाम होने आयी थी, सूर्यास्त हो रहा था ।
कहते है की रामझरोखे पर बैठकर भगवान राम लोगों की सलामी कबूल करते थे ।
राम झरोखे बैठकर सबका मुजरा लेत,
जाकी जेसी चाकरी वैसा ही फल देत ।
जगनियंता प्रभु परमेश्वर भी हम सब को अपने कर्मानुसार फल प्रदान करते है ।
रामझरुखे से हमने भगवान रामेश्वर और आसपास के वायुमंडल को प्रणाम किया । फिर कुंड पर गये और जंगल के रास्ते आगे चलते रहें । खुले आकाश में अभी-अभी चाँद निकला था, हमे लगा वो हमारा पीछा कर रहा है ।
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धर्मशाला में एक वयोवृद्ध विद्वान संन्यासी से भेंट हुई । वो रामेश्वर तीर्थयात्रा हेतु आये थे । उन्होंने अपनी दास्ताँ सुनाई । युवावस्था में जब वे रतलाम के पास अपने जन्मस्थल में थे, तब ऋषिकेश के जनार्दन स्वामी चातुर्मास करने आये थे । जनार्दन स्वामी शास्त्रज्ञ, अत्यंत मेधावी और प्रकांड पंडित थे । वे अद्वैत तथा मंत्रतंत्र में रुचि रखते थे । उन्होंने यह संन्यासी पर, जो की तब साधारण ब्राह्मिन युवक था, तंत्रमार्ग का विलक्षण प्रयोग किया । इसके पश्चात जनार्दन स्वामी की मौत हुई और वो ब्रह्मराक्षस हुए । तब से लेकर आज तक, यानि पीछले बीस साल से, वो संन्यासी महाराज को परेशान कर रहे थे । उनके मन पर जनार्दन स्वामी का प्रभाव था ।
मैंने उनसे पूछा : 'क्या आपको ब्रह्मराक्षस हररोज दिखाई देता है ?'
'हाँ' उन्होंने उत्तर दिया ।
'कब ?'
'किसी भी वक्त पर । उसका कोई निश्चित समय नहीं होता ।'
मुझे उनकी बातों में दिलचस्पी हुई ।
'वो कैसे स्वरूप में दिखाई देते है, ये बतायेंगे ?'
'विभिन्न रूपों में दिखाई पडते है । कभी साँप के रुप में तो कभी बाघ, सिंह या मनुष्य के रुप में । वो अपनी मरजी के मुताबिक रुप धारण करते है, और विभिन्न स्वर निकालते है । कभी कहते हैं की वो मेरे अलावा किसीको परेशान नहीं करेंगे ।'
'मगर आपने उनको पूछा नहीं की वो एसा क्यूँ करते है ? आपने उनका क्या बिगाडा है ? इतने प्रकांड पंडित होने के बावजूद उन्हें मुक्ति की इच्छा नहीं होती ?'
'नहीं, वो मुक्ति पाना नहीं चाहते । वो कहते हैं की इस योनि में उन्हें आनंद मिलता है । किसी देवीदेवता की कृपा हो जाय तो वो इस योनि से मुक्त हो सकते हैं ।'
संन्यासी महाराज अत्यंत व्यथित थे । बात करते वक्त मन पर उनका काबू नहीं रहता था । लगता था जैसे कोई परवश आदमी किसीके कहने पर बोल रहा हो ।
दोपहर में उन्होंने अपने कमरे में ले जाकर मुझे किताबों से भरा बक्सा बताया और कहा : 'यह सब मेरी है, मैंने इनका अध्ययन किया है । मुझे दुःख है की मेरे जीवन की गाडी किसी ओर पटरी पर चली गयी है । मैं इश्वर से प्रार्थना करता हूँ की मुझे इससे बाहर निकाले ताकि मेरे जीवन में उजाला हो, मुझे शांति मिले ।'
मैंने कहा : 'मैं भी आपके लिये प्रार्थना करूँगा । इसके अलावा अभी कुछ कह नहीं सकता । अगर एसे कोई महापुरुष से मेरी मुलाकात होती है तो मैं आपके बारे में अवश्य बताउँगा ।'
मेरी बातों से उनको तसल्ली हुई ।