बीमारी के दिनों में एक बार रमण महर्षि का दर्शन हुआ । कुछ दिनों बाद फिर दर्शन हुआ । तब वो कुछ दुबले और अस्वस्थ दिखाई पडे । ये महर्षि का प्यार था जो मुझे बार-बार दर्शन देते थे ।
उन्होंने कहा 'कुछ दिनों के बाद मैं समाधि लूँगा ।'
मैंने कहा, 'क्यूँ ? कुछ देर रुको !'
उन्होंने कहा, 'नहीं, अब जाने का वक्त आ गया है ।'
फिर मुझे अंतःप्रेरणा हुई की जिस दिन वो समाधि लेंगे, शाम को छे बजे के बाद लेंगे । मैंने यह बात माताजी और चक्रधरजी को बताई ।
महापुरुषों की लीला अजब होती है । वो कब, किसे और कहाँ दर्शन देते है, उसका पता नहीं चलता । कहाँ हिमालय और कहाँ तिरुवन्नामलाई । मगर रमण महर्षि जैसे लोकोत्तर महापुरुष के लिये स्थल और काल के बंधन नहीं होते । वे कुछ भी करने के लिये समर्थ होते है ।
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अब बारिश की मौसम शुरु हुई । पर्वत हरे-भरे दिखने लगे । शांता नदी पूरजोश में बहने लगी । शांताश्रम की कुटिया जर्जरित हो चुकी थी । बारिश की मौसम में कुटिया के आसपास की जगह, जिसे हमने गुँदकर ठीक की थी, बिल्कुल उबडखाबड हो गई । वहाँ बडे बडे पत्थर और कंकर निकल आये । कुटिया के उपर के कमरे की दोनों खिडकीयों बिल्कुल खुली थी । बारिश से बचने के लिये मैं खाली बोरीयाँ लटकाता था । इससे काम चल जाता था मगर तेज हवा के कारण बारिश की छींटे अंदर तक आती थी और सबकुछ गीला हो जाता था । कुटिया की छत लकडी और पत्थर से बनायी गयी थी । वर्षाऋतु में छत से पानी टपकता था । कभीकभा पूरी रात बैठकर गुजारनी पडती थी । बिमारी के कारण इस साल कुटिया में रहना नहीं हुआ, यह अच्छा हुआ ।
नवरात्री का प्रारंभ होते-ही कडाके की ठंड पडने लगी । एसा नहीं की हिमालय की सर्दी का मेरा यह प्रथम अनुभव था । इसके पहले कई दफा मैं शीतकाल में यहाँ रहा था मगर बिमारी और कमजोरी की वजह से इस बार ठंड ज्यादा लगी । फिर भी साधना के कारण मुझे हिमालय में रहना था । शरीर बिमार हो जाय, अशक्त हो जाय, या कोई भी तकलिफ आये, मुझे पूर्णता के लिये प्रयास करने थे ।
संसार में प्रत्येक मनुष्य को ईश्वरप्राप्ति तथा पूर्णता के लिये प्रयास करने चाहिये । लौकिक पदार्थों की प्राप्ति से क्या होता है ? समजदार वो है जो पूर्ण शांति और मुक्ति के लिये प्रयास करता है । धनी वो है जो आध्यात्मिक धन कमाता है । जिसे आत्मिक धन पाने की इच्छा नहीं वो अभागी कहलायेगा । धन या कीर्ति के बगैर चल सकता है, स्त्री-पुत्र-वैभव के बिना चल सकता है, मगर यह सब होने के बावजूद इश्वरप्राप्ति की भूख नहीं है, तो एसा जीवन अभिशापरूप हो जायेगा । मनुष्य का सबसे प्रथम कर्तव्य दानवता को मिटाकर मानव बनना है और अपने बुद्धिबल का उपयोग अपनी प्रकृति पर काबू पाने में करना है ।
मैं एसा मानता हूँ, इसलिये मुश्किल हालात में भी हिमालय में निवास कर रहा हूँ । मेरी कामना ईश्वरीय प्रकाश की प्राप्ति करके स्वयं प्रकाशित होने की है । उसे किसी भी तरह हासिल करना मेरा लक्ष्य रहा है ।
ठंड रुकने का नाम नहीं ले रही थी । शाम होते ही लकडीयाँ जलानी पडती थी ।
अंतःप्रेरणा मिलने पर १५ नवम्बर को हमने देवप्रयाग को अलविदा कहा । देवप्रयाग से बस छूटने पर मैंने शांताश्रम को, रघुनाथ मंदिर को, गंगाजी को तथा हिमालय को प्रणाम किया । उसी दिन महात्मा गांधी के हत्यारे नथुराम गोडसे को फाँसी मिलनेवाली थे ।