अमरनाथ का रास्ता जितना विकट है उससे कहीं ज्यादा खुबसूरत यहाँ का नजारा है । सुबह से बारिश नहीं हुई थी मगर जैसे हम अमरनाथ पहूँचे की हल्की-सी बारिश शुरू हुई ! हे प्रभु, आपके दर्शन के लिये लोग न जाने कितनी तकलिफ उठाकर आते है और एक आप हो जो उनका स्वागत बारिश से करते हो ? क्या यही आपकी रीत है ? बारिश से लोगों को कितनी तकलिफ होती है ? रास्ता कीचड से गंदा हो जाता है । बहुत सारे यात्रीओं के पास छाता नहीं है । क्या आप कम-से-कम यात्रा के दिनों में बारिश को नहीं रोक सकते ? मैं मन ही मन कहता रहा मगर मेरे कहने से क्या होना था ?
सबसे पहले हम गुफा के दर्शन करने गये । गुफा काफि बडी और उँचाई पर है । गुफा के सामने चारों ओर बर्फ है, केवल गुफावाली पहाडी पर बर्फ नहीं है । फिर भी आश्चर्य है की उसके एक कोने में शिवलिंग के आकार का बर्फ जमा था । गुफा में कहीं पर भी बर्फ नहीं था, सिर्फ इसी जगह बर्फ जमना आश्चर्य नहीं है ? शिवलिंग का दर्शन अनन्य था । उसके पास, एक और जगह पर बर्फ जमा था, जिसकी लोग गणेश मानकर पूजा कर रहे थे । यात्रीओं के आनेजाने के लिये गुफा में द्वार बने है । द्वार पर संत्री मुस्तैदी से भीड का नियंत्रण कर रहे थे । बाहर कुछ साधुओं ने लकडीयाँ जलाकर धूनी लगायी थी । दूसरी ओर कुछ लोग कंबल ओढकर आठ आने में मिल रही चाय का मजा ले रहे थे । कुछ लोग गुफा में उडते कबूतरों को देखकर अपने आपको भाग्यवान समज रहे थे । हमें भी चार कबूतरों के दर्शन हुए । इतनी ठंड में कोई पक्षी यहाँ नहीं रह सकता । ये कबूतरों का यहाँ होना अपने आप में आश्चर्य था । यात्रीगण उसे शिवपार्वती या अमर योगी के रुप में मानते है और उनके दर्शन से धन्यता का अनुभव करते है । गुफा में बैठकर हमने शिवमहिम्न स्तोत्र तथा कल जिसे पूर्ण किया था, वो शिवसंगीत का पाठ किया । धनेश्वरभाई तथा माताजी अत्यंत श्रमित थे, फिर भी दर्शन करने से उनमें उत्साह का संचार हुआ था । सबने मिलकर भोलेनाथ की स्तुति एवं प्रार्थना की । फिर हम पंचतरणी आने के लिये निकले । वो दिन था श्रावण सुद पूनम, १७ अगस्त १९५१ का ।
मार्ग में सतत बारिश होती रही । लोग भीग चुके थे, मार्ग कीचड से खराब हो गया था । घोडे सम्हालकर चल रहे थे । पंचतरणी आतेआते हम पूरी तरह से भीग गये । कुछ देर के बाद बारिश थम गयी, आकाश खुला हो गया । विश्राम करने के लिये हम टेन्ट में गये । तब न जाने कहाँ से एक दूधवाला आया । दूध और हमारे पास जो फल बचे थे, उसे खाकर थोडी देर विश्राम किया । फिर बारिश शुरु हुई और पूरा दिन होती रही इसलिये हमें यहीं रुकना पडा । शाम को खाने का इन्तजाम करने के लिये टेन्ट से बाहर निकले । मार्ग में एक जगह चावल देखा तो मन में सहज विचार आया की दालचावल खाये बहुत दिन हो गये । तभी उस व्यक्ति ने पूछा, क्या आप चावल लोगे ? मुझे उसके पूछने पर यकीन नहीं हुआ । एसी जगह में कौन हमें चावल खिलायेगा ? मगर उन्होंने फिर पूछा और मुझे तथा धनेश्वरभाई को साथ चलने का निमंत्रण दिया ।
वो हमे अपने उतारे पर ले गया । वहाँ सत्यनारायण की कथा हो रही थी । उसके कहने पर हम माताजी को भी साथ ले आये । फिर उसने स्वयं बरतन साफ किये, हमे आसन पर बिठाया और अपने हाथों से गरमागरम चावल और सब्जी परोसी । एसे स्थान में बिना पूछे, तैयार भोजन मिलना इश्वर की कृपा का परिणाम था । यहाँ पर यात्रीओं को भोजन कराना यज्ञ के बराबर है । उसकी तुलना में अन्य यज्ञ गौण है । प्यार से अन्य लोगों को वक्त पर अच्छा खाना देना उत्तम सेवाकर्म है । तभी तो तुलसी और कबीर जैसे संतोने अन्नदान करने की बात कही है । आजकल विदेशी सभ्यता से प्रभावित लोग अन्नदान, अतिथिसत्कार तथा संतसेवा से कतराते है, उसे आशंका और घृणा की दृष्टि से देखते है मगर ये ठीक नहीं है । मानवता, सेवा, सहकार, समर्पण, दूसरों के लिये त्याग करने की भावना से रहित कोई भी समाज सभ्य, संस्कृत या समुन्नत नहीं कहलायेगा । एसा समाज खुद के या किसी अन्य के लिये आशीर्वादरूप सिद्ध नहीं होगा । भारत किसी अन्य देशों की नकल करके बरबाद हो, इससे बहेतर हैं की अन्य देश भारत की अच्छी बातों से प्रेरणा लेकर उन्नत और मानवतापूर्ण व्यवहार करना सीखे ।
सुबह होने पर बारिश थम गई । अब हमें पंचतरणी से हो सके इतना दूर जाना था । बारिश की वजह से हमारा सामान भीग गया था । केवल एक कंबल ओढकर हमने रात बीताई थी । हम चाहते थे की धूप निकले और हमारा सामान सूख जाय । सभी यात्रीओं की नजर आसमान पर थी । रास्ता ठीक नहीं था इसलिये संभलकर चलते हुए दोपहर तक हम शेषनाग पहूँचे । हमारी खुशकिस्मती से रास्ते में बारिश नहीं हुई । शेषनाग से आठ मील चलकर करीब ढाई बजे हम चंदनवाडी पहूँचे । अब ठंड कुछ कम हुई । चंदनवाडी में रात रुकने की अच्छी जगह मिल गयी । दुसरे दिन आकाश साफ रहा । पहलगाम आकर हम नंदभवन धर्मशाला में रुके और अगले दिन श्रीनगर आये ।
श्रीनगर में बडी तादात में फौजी दिखाई पडते है । हम श्रीनगर में शीख गुरुसभा की धर्मशाला में ठहरे थे । दूसरे दिन नाव में बैठकर हमने विश्वविख्यात दाल सरोवर तथा बगीचा देखा । जिन्होने अमरनाथ और उत्तराखंड के नैसर्गिक सौन्दर्य से भरें अन्य स्थान देखे हैं, उनको श्रीनगर इतना आकर्षक नहीं लगेगा । श्रीनगर का नैसर्गिक सौन्दर्य गढवाल के पहाडों की तुलना में फिका लगता है । फिर भी इसे सहलानीओं द्वारा सराहा गया है । भारत के अन्य पर्यटक स्थलों की तरह यहाँ भी हमे गरीबी के दर्शन हुए ।
पूरे दिन बस चलती रही तब जाकर रात को जम्मू आया । दुसरे दिन सुबह नौ बजे पठानकोट पहूँचे । कुल मिलाकर २७० मील की दूरी तय करने के बाद हम दूसरे दिन शाम को ट्रेन में बैठे । यात्रा समाप्त करके २५ अगस्त को दिल्ली पहूँचे । धनेश्वर भाई के उदार और आनंदी स्वभाव के कारण हमारा यात्रा-प्रवास सुगम और आनंददायी रहा ।
अमरनाथ जानेवाले यात्रीओं के लिये कुछ सूचन करके मैं प्रकरण की समाप्ति करूँगा ।
१. पहलगाम से घोडे मिलते है । अमरनाथ का मार्ग कठिन है इसलिये घोडे पर बैठकर जाना हितावह है । जिसे पहाडों में चलने का अनुभव हो और हिम्मत हो, वो ही पैदल जाने का साहस करें ।
२. टेन्ट में बिछाने के लिये चटाई पहलगाम से ले लें । खानेपीने का सामान भी पहलगाम से लेना उचित रहेगा । खाना पकाने के लिये प्रायमस उपयोगी है । फल या तैयार नास्ता लेना चाहे तो ले सकते है ।
३. अमरनाथ में कडाके की ठंड पडती है । यात्रीओं से निवेदन है की कंबल, स्वेटर या गर्म कपडे, हाथ-पैर के जुराब, बंदरटोपी, छत्री या रेईनकोट साथ में ले लें ।
४. अमरनाथ की यात्रा करने के लिये श्रावण सुद आठम या नोम के दिन श्रीनगर पहूँच जाय । पहलगाम से अमरनाथ जाने में तीन दिन लगते है । श्रावण सुद पूर्णिमा के दिन अमरनाथ पहूँचना होता है ।
अमरनाथ तथा कश्मीर की यात्रा कुल मिलाकर आनंददायक रही । यात्रा के दौरान मेरे जीवन के ३० साल पूर्ण हुए और ३१ वाँ साल शुरु हुआ ।