शिरडी एक छोटा-सा गाँव है । यहाँ नहाने के लिये गरम पानी की सुविधा है मगर हमने सुना की पास में गोदावरी नदी है, इसलिये हमे वहाँ स्नान करना उचित लगा । नदी को माता का बिरुद दिया गया है वो बिना वजह नहीं है । नदी के कारण किसी भी स्थान का सौन्दर्य बढ़ता है । शहरी लोगों के नसीब में नदी की गोद में बैठना, उसकी शांति का लुत्फ उठाना नही लिखा है । इसलिये जब भी उनको एसा मौका मिलता है तो वो झूम उठते है । जो लोग नदी के तट पर रहते है, उसकी गोद में खेलकर पले बडे होते है, उनके आनंद का तो क्या कहेना ? हमारे साथ यात्रा में जो दस-बार भाई शामिल थे वो गाँव में रहनेवाले और नैसर्गिक सौन्दर्य के चाहक थे । इसलिये सभी को नदी में स्नान करके बडा आनन्द हुआ ।
स्नान करके लौटने पर ठहरने का इन्तजाम किया । शिरडी में यात्रालुओं की भीड लगी थी । किराये पर कमरा मिलना मुश्किल लग रहा था मगर इश्वरकृपा से हमे समाधिमंदिर के उपरी हिस्से में जगह मिल गयी । वहाँ से समाधि मंदिर तथा होल का दर्शन होता था । कमरा मिलने के बाद हम समाधि स्थल के दर्शन करने गये ।
शिरडी में तीन स्थान देखनेलायक है : समाधि मंदिर, जहाँ सांईबाबा ने समाधि ली थी, द्वारकामाई का स्थान, जहाँ साँईबाबा रहते थे, और गुरुस्थान, जहाँ साँईबाबा के गुरु प्रकट हुए थे ।
समाधि मंदिर का स्थान विशाल और आकर्षक है । इसी जगह पर शिरडी के सुप्रसिद्ध सांईबाबा ने समाधि ली थी । किसी भक्तजन ने यहाँ काफि खर्च करके यहाँ समाधिमंदिर बनाया है । इसमें सांईबाबा की खुली समाधि है । समाधि पर लोग फुलमालाएँ चढाते है । एक कोने में अखंड ज्योत प्रज्वलित है और सांईबाबा की पादूकाएँ है । ठीक सामने सांईबाबा का तैलचित्र है । समाधिमंदिर में कोई भी व्यक्ति जातपात के भेदभाव बिना आ सकता है और पूजा कर सकता है । सुबह करीब साडे दस-ग्यारह के आसपास पूजा होती है । पूजा का दृश्य अत्यंत मनभावन होता है । पूजारी तथा भक्तगण, साथ में सांईबाबा की स्तुति का गान करते है ।
पूजा में संम्मिलित होने के बाद हम द्वारकामाई के दर्शन करने गये । द्वारकामाई असल में एक मस्जिद है मगर इसे देखकर एसा लगता है की कोई छोटा-सा मकान है । सीढियाँ चढकर हम अंदर गये । यहाँ सांईबाबा का तैलचित्र है जिसमें सांईबाबा बैठे हुए नजर आते है । चित्र इतना आकर्षक है की इसे देखकर लगता है मानो बाबा अभी बोल उठेंगे । यहाँ भी अखंड ज्योति है । सांईबाबा धूनी जलाते थे और सबको भस्म देते थे । उनकी स्मृति में आज भी यहाँ धूनी जलायी जाती है । पास अलमारी है जिसमें सांईबाबा के वस्त्र, उनकी पहनी हुई दो-तीन कफनी (झब्बे) है । दूसरी तरफ चिलम है । सांईबाबा चिलम पीते थे यह बात सुप्रसिद्ध है । सांईबाबा के कुछ बरतन भी यहाँ है । एक कोने में अनाज पीसने की घण्टी तथा अनाज भरने की बोरीयाँ है । कहा जाता है की अकाल के वक्त सांईबाबा खुद अनाज पीसते थे और आटा गोदावरी नदी में बहा देते थे । एसा करने से या सांईबाबा के आशीर्वाद से शिरडी में अकाल का असर नहीं होता था । आज भी यहाँ बोरीयों में अनाज भरा दिखाई पडता है । इसके अलावा यहाँ सांईबाबा का रेशमी छाता है जो वो बाहर जाते वक्त इस्तमाल करते थे । जैसे ही हम सोचते है की सांईबाबा छाता लेकर बाहर जाते होंगे तो कैसा लगता होगा तभी हमारी नजर एक तैलचित्र पर पडती है । इसमें सांईबाबा भक्तगण के साथ खडे है और एक भक्त छाता खोलकर उनके पास खडा है । यह चित्र देखनेलायक है ।
द्वारकामाई का स्थान मनमोहक है । जब सांईबाबा यहा बिराजते होंगे तो यह स्थान कैसा लगता होगा ! न जाने कितने भक्त उनके दर्शन और आशीर्वाद पाकर धन्य हुए होंगे ? काश, आज वो हमारे बीच होते तो हम उन्हें देख पाते, उनसे बातें कर पाते और प्रेरणा ले पाते । एसा होता तो हमारी यात्रा सफल हो जाती । मगर वक्त वक्त का काम करता है । हमें केवल उनकी तसवीर देखकर खुश होना था । सांईबाबा इश्वरतुल्य महापुरुष थे, सिद्ध थे । स्थल या काल से पर थे । आज भी कोई सच्चे मन से उनके दर्शन या समागम की कामना करता है तो वो प्रकट होकर उसे प्रेरणा देते है, उसका पथप्रदर्शन करते है, और उसे अपनी मौजूदगी का सबूत देते है । कई लोगों के जीवन में एसे प्रसंग होते रहते है । फिर भी, सांईबाबा की प्रत्यक्ष मौजूदगी की तुलना किसीसे नहीं कर सकते । उनके रहने से पावन हुआ यह निवासस्थान आज भी साधकों को प्रेरणा देता है ।
द्वारकामाई के दर्शन करके बाहर आते वक्त एक बडा पत्थर दिखाई पडता है । हमने तसवीरों में सांईबाबा को शीला पर बैठे देखे है । ये वही जगह है । सांईबाबा कहते थे की ‘जो द्वारकामाई पर आता है उसके सभी दुखदर्दों का अंत होता है । उसकी जिम्मेदारी मैं लेता हूँ ।’ इस स्थान को देखकर हमें इसका स्मरण हुआ ।
द्वारकामाई के बाहर दिवाल पर कुछ सूचनाएँ लिखी गयी थी । इनमें से एक का उल्लेख करना मैं आवश्यक समजता हूँ । बोर्ड पर लिखा था की ‘द्वारकामाई या समाधिमंदिर में कोइ भी व्यक्ति किसी हाडचाम के व्यक्ति (देहधारी) को प्रणाम न करें । एसा करना सांईबाबा का अपमान होगा ।’ ये सूचना मुझे विचित्र लगी । सांईबाबा उँचनीच के भेदभाव से पर थे । एसा यहाँ लिखना, मेरे ख्याल से, सांईबाबा का अपमान है । संसार में कोई एक व्यक्ति ही महान या श्रेष्ठ हो एसा नहीं होता । इश्वर की कृपा किसी पर भी हो सकती है और एसे कई महापुरुष संसार में विद्यमान है । एसे कोई महापुरुष ये स्थान में अपने भक्तगण के साथ आये और उसके प्रसंशक भक्त उसको प्रणाम करें इसमें सांईबाबा का अपमान कैसे होगा ये मेरी समज के बाहर था । मुझे ‘हाडचाम का आदमी’ एसा शब्दप्रयोग भी ठीक नहीं लगा । आदमी – फिर चाहे वो कोई भी हो, केवल हाडचाम से नहीं बनता । जब उसमें आत्मा प्रकट होता है तभी वह जिवीत व्यक्ति बनता है । इस नजरिये से देखा जाय तो प्रत्येक शरीरधारी व्यक्ति हड्डी और चमडी से बना है, और एसा होना आवश्यक है । अगर कोई व्यक्ति उसे प्रणाम करता है तो वो उसकी हड्डी या चमडी को नहीं करता बल्कि उसमें रहे आत्मा के प्रकाश को करता है । उस महापुरुष के गुणों को, उसके त्याग को, ज्ञान को या उसकी भक्ति को नमन करता है । फिर उसे हड्डी और चमडी का पूतला कहकर उसका तिरस्कार करना कहाँ की बुद्धिमानी है ? हमारे शास्त्रों ने स्त्री-शरीर को गंदकी का घर कहके उसे हेय माना है । हाँ, माता कहकर उसके प्रेम की प्रसंशा भी की है । गंदकी या अशुद्धि का विचार करके हमें देह में विराजमान चैतन्य का तिरस्कार नहीं करना है, मगर उसके बारे में सोचकर शरीरसुख और आसक्ति से मुक्ति पाना है । सांईबाबा के स्थान में कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को प्रणाम करे तो उसे शोचनीय नहीं माना जाना चाहिये एसा मेरा मंतव्य है ।
शायद कोई लेभागु साधु सांईबाबा के स्थान में आसन जमा ले और भोले भक्तजन उसकी पूजा करने लगे, इस हेतु से ट्रस्टीमंडल ने ये सूचना लिखी होगी । फिर भी उसे पढकर अच्छा नहीं लगा । एसे दिव्य स्थान में लोग सांईबाबा की जगह किसी अन्य व्यक्ति की पूजा क्यूँ करेंगे ये समज में नहीं आया । सांईबाबा की महिमा अपरंपार है ।