गंगनाथ पहूँचे तो शाम होने आयी थी । गंगनाथ थोडी उँचाई पर है । यहाँ नर्मदा की गहराई काफि है और घाट के बिना स्नान करना मुमकिन नहीं है । गंगनाथ में ब्रह्मानंदजी नामक महात्मा रहते थे । उन्होंने १८५७ के विप्लव में भाग लिया था । विप्लव विफल होने पर वो निराश होकर यहाँ आये थे । उनके प्रयासों से गंगनाथ का विकास हुआ था । गुजरात और सौराष्ट्र के लोगों की एक खासियत है की यहाँ के लोग सरल, विवेकी, धर्मपरायण और दयालु है तथा भारतभर के संतमहात्माओं का आदर करते है । गुजरात आकर बहुत सारे साधुसंत पैसा और कीर्ति पाते है, कुछ मंदिर, मठ या आश्रम बनाकर हमेशा के लिये बस जाते है । गुजरात-सौराष्ट्र में सभी जगह, और खास करके चरोतर क्षेत्र में साधुसंतो के लिये निवास का प्रबंध देखने को मिलता है । भारत के अन्य प्रांतो में एसी सुविधा नहीं है । ये बात गुजरातीओं की सेवाभावना प्रदर्शित करती है । शायद उसी से आकर्षित होकर ब्रह्मानंदजी यहाँ आये थे और अपनी अंतिम साँस लेने तक यहाँ रहे थे ।
ब्रह्मानंदजी की लोकोत्तर शक्ति का एक प्रसंग सुविख्यात है । उनके आश्रम में एक दफा बहुत सारे लोगों के लिये खाना बन रहा था और रसोई के लिये घी नहीं था । ब्रह्मानंदजी ने शिष्यों से कहा की एक पात्र में नर्मदाजी का पानी भरकर ले आओ । उसने रसोई में घी का काम किया । कुछ अरसे बाद, जब आश्रम में घी आया, तो शिष्यों को सूचना देकर घी को नर्मदा में प्रवाहित किया गया ।
*
ब्रह्मानंदजी के आश्रम में उनकी प्रतिमा थी । उसे देखकर लगा की वो मंदिर की सभी प्रवृत्ति पर नजर रख रहे है । उनको प्रेमांजलि देकर हम नाव में बैठे । शाम का सौन्दर्य अदभूत होता है । मेरे लिये शाम कोई कविता से कम नहीं है, एसी कविता जो खुद इश्वर लिखता है ।
शुकदेव का दर्शन करने गये तो रात हो गयी । शुकदेव का स्थान थोडी उँचाई पर है । शुकदेव के बिल्कुल सामनेवाले छोर पर व्यास है । पौराणिक काल में यहाँ शायद शुकदेव और व्यास निवास करते होंगे । वैसे तो व्यास, शुकदेव, भर्तुहरि, गोरख जैसे महापुरुषों के स्थान भारत में कई जगह पर है । इससे मन में शंका होती है की एक व्यक्ति के इतने सारे स्थान कैसे हो सकते है ? एसी शंका होना लाजमी है । कभी-कभी लोग स्थान की महत्ता बढाने के लिये उसे किसी महापुरुष के साथ जोड देते है । मगर एसा हमेशा नहीं होता । विरक्त महापुरुष अपने जीवनकाल में विविध जगह पर परिभ्रमण करते है । इसलिये संभव है की वो एसे कई स्थान पर गये हो । इतिहास तथा अन्य संशोधन से हम इसके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते है । मान लो की किसी स्थान की महिमा बढाने के लिये उसे किसी महापुरुष से जोडा गया है तो उसमें कोई बुराई नहीं है । एसा करने से यात्री उस विभूति को याद करेंगे, और उसके जीवन से प्रेरणा लेंगे । तीर्थस्थान किसी विद्यापीठ की भाँति होते है, लोग यहाँ आकर शिक्षा प्राप्त करते है । मानवजीवन की उन्नति में एसी विद्यापीठों ने अहम भूमिका अदा की है । अपने राष्ट्र पर गौरव लेनेवाली कोई भी प्रजा के लिये ये कीमती खजाने से कम नहीं है । उसका मूल्य पैसे या किसी नश्वर पदार्थ से नहीं नापा जा सकता । ये हमारे सांस्कृतिक इतिहास के आधारस्तंभ है । हम इनका जितना शुक्रिया अदा करें, कम है । आजतक ये सुरक्षित रहे है और आशा है, भविष्य में भी उसे एसा रखा जायेगा ।
*
व्यास का स्थान शुकदेव से काफि बडा और भीडभाडवाला है । शुकदेव बालत्यागी थे और व्यास संन्यासी थे, शायद इसलिये ! व्यास के पास नर्मदा का तट सुविशाल लगता है । तट पर मिट्टी या कीचड नहीं, बल्कि रेती है । गर्मी के कारण हम गाँव में रहने के बजाय पूरी रात नौका में रहें । चाँद अपनी पूरी रोशनी से निखर रहा था । टिमटिमाते तारें रातभर हमें देखते रहे ।
अठारह वर्ष की आयु में राजा परिक्षित को भागवत सुनाकर जिसने मुक्ति प्रदान की थी वो बालयोगी की शक्ति कैसी होगी ! शुकदेव के बारे में कहा गया है की गाय को दूध निकालने में जितना वक्त होता है, उतने वक्त ही वो किसी एक जगह पर रहते थे । अर्थात् वो निरंतर परिभ्रमण करनेवाले परिव्राजक, परमयोगी और प्रज्ञामूर्ति थे । वो बारह साल माता के गर्भ में रहे थे और किशोरावस्था में संसार का त्याग करके वन में चले गये थे । उन्हें जन्म के पूर्व स्थितप्रज्ञ दशा की प्राप्ति हुई थी । शुकदेव का पात्र केवल भारत नहीं बल्कि संसार के आध्यात्मिक इतिहास में अमर है और रहेगा ।
भागवत में एक प्रसंग आता है । शुकदेवजी जब बच्चों के साथ गंगा के तट पर आते है तो वहाँ उपस्थित ऋषि, महर्षि, तपस्वी और स्वयं राजा परिक्षित खडे होकर उनका आदर सत्कार करते है और उन्हें उच्च आसन पर बिठाते है । उस वक्त शुकदेव के पिता व्यास और पितामह पराशर भी मौजूद थे । फिर भी शुकदेव को व्यासपीठ पर बिठाया गया इसमें कोई आश्चर्य नहीं है । भारत में किसीकी उम्र, वैभव या प्रतिष्ठा देखकर पूजा नहीं की जाती थी, व्यक्ति की विद्या, चारित्र्य और जीवन को देखकर उसकी पूजा होती थी । जिसके दोष और दूर्गुणों का नाश हुआ हो, जो इश्वर के करीब हो, वही श्रेष्ठ, बूजुर्ग और पूजनीय माना जाता था । तभी तो भारत में अष्टावक्र, जडभरत, नारद और शुकदेव की तरह व्यास और बुद्ध का आदर किया जाता है । शुकदेव की अमृतवाणी – भागवत आज भी लोगों के अंतर को शांति प्रदान करती है ।
महर्षि व्यास के बारे में क्या कहूँ ? ‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’ अर्थात् ‘जगत में जो कुछ भी ज्ञान है, सब महर्षि व्यास द्वारा उच्छिष्ट है । ज्ञान की एसी कोई बात नहीं है जिसके बारे में व्यास ने ना लिखा हो’ । जिसके बारे में एसा कहा गया हो वो महापुरुष कितना महान, समर्थ और विद्वान होगा, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं है । महाभारत, भागवत, ब्रह्मसूत्र, गीता तथा विष्णुसहस्त्रनाम जैसे ग्रंथो के रचयिता महर्षि व्यास केवल ज्ञानी या लेखक नहीं बल्के ऋषि थे । तभी तो गीता के दसवें अध्याय में स्वयं भगवान कृष्णने विभूति का वर्णन करते हुए ‘मुनीना मप्यहं व्यासः’ ‘मुनीओं में मैं व्यास हूँ’ एसा कहकर उन्हें अंजलि दी है । जब तक संसार रहेगा और उसके बाद भी व्यास और शुकदेव का नाम रहेगा ।