एक दिन, रात के वार्तालाप में वैराग्य और त्याग की बात निकली । वार्तालाप सुनने शिवमंदिर का पूजारी, उनके मित्र के साथ आया था । उसको रामायण की काफि सारी चोपाई याद थी । जाते वक्त दोनों ने मुझे प्रणाम किया ।
पूजारी ने कहा : 'आपके दर्शन से हमें जो प्रसन्नता हुई है, वो हम शब्दों में बयाँ नहीं कर सकते । आपकी वाणी अत्यंत सरल और मधुर है । आपका दर्शन करके हम सचमुच धन्य हो गये ।'
दूसरे दिन रात के सत्संग में भर्तृहरि के वैराग्यशतक की चर्चा हुई । मैंने कहा : 'ईश्वरप्राप्ति के लिये जो कुछ पुरुषार्थ करना है, वो युवानी में कर लेना चाहिये । जब आदमी जवाँ होता है तो उसका अंतर उत्साह से भरा होता है, उसकी रगरग में जोश होता है, उसे पुरुषार्थ करने की तमन्ना होती है । वो सुख-दुःख, ठंडी-गर्मी, या अन्य कष्टों को सहन करने की क्षमता रखता है, किसी भी कठिनाईयों से लड सकता है । बुढापे में इन्द्रिय और शरीर की शक्ति का ह्रास हो जाता है, मौत दरवाजा खटखटाने लगता है । एसे हालात में साधना कैसे होगी ? जैसे घर में आग लगने पर कुआ खोदना मूर्खामी है, इसी तरह बुढापा में इश्वरप्राप्ति के प्रयास करना अकलमंदी नहीं है । इसके लिये उसे भरी जवानी में प्रयास करने चाहिये ।
मैं अपनी बात बताता हूँ । आज से नौ साल पहले मैं एक पर्वत पर साधना करने गया था । सर्दी की मौसम थी इसलिये ठंड भारी थी । फिर भी साधना की लगन एसी थी की तकलिफ नहीं हुई । आज मैं बुढा तो नहीं हूँ, फिर भी जो जोश और जूनून उस वक्त था, अब नहीं रहा । इसलिये कहता हूँ, की जो कुछ करना है वो जवानी में कर लेना चाहिये । जब लोही गर्म हो, तब आदमी को आत्मविकास के लिये पुरुषार्थ कर लेना चाहिये ।'
मेरी बात सुनकर सबको अच्छा लगा । मगर जो दो भाईयों ने मेरी कल तारिफ की थी, उन्होंने इस वार्तालाप के बाद सत्संग में आना बन्द कर दिया । जिसके निमंत्रण से हम महुवा गये थे, उनसे मैंने पूछा तो उन्होंने कहा : 'उनके पास वक्त ही वक्त है मगर यहाँ न आने की वजह कुछ और है । आपने श्लोक की मीमांसा करते हुए जो बातें की थी उसे सुनकर वो कहने लगे की आपके महात्माजी तो सिर्फ अपने गुणगान गाते है । हमारे गुरु हरेराम बापु जैसा कोई महापुरुष नहीं है ।'
यह संसार एक अजायबघर जैसा है । इसमें भाँतिभाँति के लोग निवास करते है । आजतक मैं एसे कई लोगों से मिल चुका था इसलिये यह सुनकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ ।
कई लोगों के दिखाने के दांत अलग होते है और चबाने के अलग । उनके मन में एक बात होती है और वो कहते है दूसरी बात । किसी के साथ वैचारिक मतभेद होना एक बात है और उसकी सार्वजनिक रुप से निंदा करना दूसरी बात है । जब देश का हरएक व्यक्ति आपस में प्यार, संप, एकता और सहकार की भावना से रहने लगेगा तब देश की सूरत बदल जायेगी । धरातल पर स्वर्ग उतर आयेगा ।
कुछ लोग संत-महात्मा का दर्शन करने जाते है, कुछ लोग केवल दोषदर्शन करने जाते है । वे संतमहात्मा की बोलने-चालने की, बैठने-उठने की पद्धति पर सवाल खडे करते है । कुछ लोग अपने निजी हित के लिये संतमहात्माओं के पास जाते है । जब उनका काम नहीं बनता है, उनकी श्रद्धा को ठेस पहूँचती है तो वहाँ से खिसक जाते है । बहुत कम लोग एसे होते है जो संतमहात्माओं के पास कुछ सिखने के लिये जाते है । सभी संत-महात्मा पूर्ण नहीं होते । एसा मानना अपने आप में अज्ञान है । इश्वर तथा उसका अनुभव कर चुके संत – दो ही पूर्ण है । इसका मतलब ये नहीं है की बाकी के संतमहात्माओं में हम अपूर्णता का दर्शन करें । हम उनके जीवनव्यवहार से आवश्यक सिख ले और उनके दोषों को नजरअंदाज करे । अगर किसी बात की शंका है तो उनसे पूछकर खुलासा करें । किसी भी हालत में उनके कुप्रचार, उनकी निंदा-टीका करने से दूर रहना चाहिये ।
दूसरा, ये भी याद रखना चाहिये की महानता या श्रेष्ठता किसी एक व्यक्ति का अधिकार नहीं है । कोई भी आदमी अपने प्रयासों से महान बन सकता है, विश्ववंद्य हो सकता है, इश्वर का प्यारा हो सकता है । इसलिये केवल हमारे गुरु ही सच्चे है और अन्य सभी तुच्छ या छोटे है एसा मानना गलत है । सच पूछो तो संसार में इश्वर सबसे बडा है और हम सब उसकी चरणरज है ।
रात को जाग-जागकर ये दोनों भजन करते थे, रामायण सुनाते थे, मगर क्या फायदा ? जब तक दोषदृष्टि है, संकुचितता है, इर्ष्या और अहंता है, तब तक रामायण कंठस्थ करने से, भागवत-पारायण करने से, तिलक करने से या तुलसी की माला धारण करने से कोई फर्क नहीं पडेगा । अगर उन्होंने मेरी बात ध्यान से सुनी होती तो उसमें आत्मश्लाघा की जगह दीनता का दर्शन होता । मैंने ये कहा था की पहले मैं जो कर सका, वो आज करने की ताकत मुझमें नहीं रही । मैंने अपनी अल्पता का स्वीकार किया था । मगर जिसे दोषदर्शन ही करना है, उससे ये सब कहकर क्या फायदा ? इश्वरकृपा के अलावा सम्यक् दृष्टि को पाना कठिन है ।
महुवा म्युनिसिपालीटी के प्रमुख ने आग्रह करके मेरा प्रवचन रक्खा और पूरे गाँव में लाउडस्पीकर लगाये ताकि सब उसका लाभ ले सकें । यह जानकर पूजारी तथा रामायण कंठस्थ करनेवाले भाईने गोरधनभाई को कहा : 'अरे, ये महात्माजी तो रेडियो तक पहूँच गये !'
गोरधनभाई ने कहा : 'ये तो महात्मा है, जो उनको ठीक लगे वो करते है ।'
'मगर हमें ये ठीक नहीं लगता !' उन्होंने कहा ।
अब उनको क्या कहें । हम केवल उनके लिये प्रार्थना कर सकते है ।
कुछ बुरे साधुओं के कारण पूरा साधुसमाज बुरा नहीं होता वैसे ही कुछ नासमज लोगों की वजह से गाँव के अन्य प्रभुप्रेमी और सज्जन व्यक्तिओं को नजरअंदाज नहीं कर सकते । पकवान के साथ जैसे आचार होता है, जीवन में विभिन्न प्रकार के लोग हमें मिलते रहते है । हाँ, विविधता के लिये आचार की तरह एसे लोगों का होना आवश्यक नहीं है ।