महुवा में दो-तीन स्त्री मुझसे मिलने आयी । उन्हें माताजी के भजन सुनकर आवेश आता था ।
मैंने एक से पूछा, 'आपको माता आते है ?'
उसने कहा: 'पहले अक्सर आते थे, अब केवल नवरात्री में आते है ।'
मैंने पूछा: 'माता आते है तब आपको क्या अनुभव होता है ?'
उसने कहा, 'प्रकाश दिखाई देता है, फिर देहभान चला जाता है ।'
उसके चहेरे का हावभाव देखकर मुझे लगा की कुछ गडबड है । मैं किसीको देखकर उसके बारे में अनुमान कर सकता हूँ । अब तक मेरा अनुमान गलत नहीं निकला है ।
फिर उसने किस तरह से गुरुमंत्र मिला, इसके बारे में बताया ।
उसने कहा, 'मेरे गुरु समर्थ पुरुष है । अभी वो पंजाब में है । उनकी मुझ पर बडी कृपा है ।'
मैंने कहा: 'तुम भले अपने गुरु के प्रति श्रद्धा तथा प्रेम के कारण ये कहो, मगर मुझे एसा नहीं लगता । समर्थ गुरु साधक की रुचि को परखकर इष्ट-मंत्र देते है । अगर तुम्हारे गुरु समर्थ होते तो वो तुमको कृष्ण का मंत्र देने के बजाय देवीमाँ का मंत्र देते ।'
उसने कहा, 'मुझे कृष्ण और देवीमाँ में कोई फर्क नजर नहीं आता ।'
मैंने कहा: 'मूल रूप से दोनों एक ही है मगर ये अनुभव की बात है । जब तुमको श्रीकृष्ण या देवीमाँ का साक्षात्कार होगा तब मेरे कहने का मतलब समज में आयेगा । जब तक हम किसी एक स्वरूप को देखने की कामना करते है, हमें उसीके दर्शन के लिये साधना करनी चाहिये ।'
फिर कुछ अन्य बातें हुई । अन्त में मैंने उनसे कहा: 'तुम लोगों को साफ-साफ क्यूँ नहीं बता देती की मुझे देवी का आवेश नहीं आता है । इस तरह गाँव-गाँव घुमकर देवीमाँ के नाम पर लोगों को ठगना प्रपंच नहीं तो और क्या है ? एसा करने पर देवीमाँ कोपायमान होगी । माँ की प्रसन्नता चाहती हो तो सत्य वचन बोलने का संकल्प करो, माँ के लिये दिल में प्यार जगाओ । माँ का दर्शन पाने के लिये सच्चे मन से प्रार्थना करो, उसे दिल की गहराइयों से पुकारो । अन्य विषयों से मन हटाकर सिर्फ माँ के जाप जपो । जिस तरह माँ का दूध पीने के लिये बच्चा रोता है, देवीमाँ का दर्शन पाने के लिये आक्रंद करो । लोगों को नहीं, माँ को प्रसन्न करने का प्रयास करो । ये कोई एक-दो दिन की बात नहीं है कि घण्टे-दो घण्टे के आवेश से पूरी हो जाय । इसके लिये दिन, महीने, साल और कभीकभी जन्म कम पड जाता है । हाँ, अगर सच्चे दिल से माँ को पुकारोगी तो उसकी कृपा जरूर होगी ।'
वो बोली, 'हाँ, मुझे लगता है की जो आप कह रहे है वो सच है । ये सब छोडकर मैं नर्मदातट या हिमालय चली जाउँ तो कैसा रहेगा ? क्या मेरे लिये हिमालय जाना ठीक रहेगा ? वहाँ मेरे रहने लायक कोई जगह है ?'
मैंने कहा: 'हिमालय तुम्हारे लिये नहीं है । तुमको नर्मदातट जाने की भी जरूरत नहीं है । तुम अभी जवान हो, बिना परिचय कहीं पर भी जाने में जोखिम है । आजकल स्त्रीओं को झाँसा देकर फाँसनेवाले बहुत सारे साधु निकल पडे है । गलती से कहीं तुम जिस्मफरोशी करनेवाली गिरोह के हाथ लग गयी तो नर्क की यातना भुगोगी । तुमने अभी दुनिया कहाँ देखी है । तुम भोली हो, मेरा मानो तो अपने परिवार के साथ रहो और भक्ति करो । हाँ, मन करें तो एकाद महिना कहीं जाकर साधना करो, मगर घर का त्याग मत करना । देवीमाँ के आवेश की बात करना बन्द करो और सच्चे मन से माँ की भक्ति करो ।'
अब तक एसी दो-तीन स्त्रीयों से मेरी भेट हुई है, जिसे देवीमाँ का आवेश आता हो मगर मैंने किसीमें विशेष आध्यात्मिक भूमिका नहीं देखी । हालाकि श्रद्धालु लोगों पर उनका प्रभाव था । सच और जूठ को परखनेवाले लोग संसार में बहुत कम मिलते है । जैसे जैसे लोग समजदार होंगे, जूठ की बोलबाला कम होगी और सत्य की प्रतिष्ठा होगी । साधारण संसारीओं के लिये ही नहीं, अध्यात्म पथ के पथिकों के लिये भी नीर-क्षीर का विवेक करने की हंसवृत्ति होना आवश्यक है ।