ऋषिकेश में गर्मी थी इसलिये कुछ वक्त राजपुर में गुजारने की इच्छा हुई । चंपकभाई ने राजपुर के राजा महेन्द्रप्रताप को खत लिखा था । खत में मेरा संक्षिप्त परिचय भी था । जब हम उनको मिलने गयें तो उन्होंने बडे भाव से मेरा और माताजी का स्वागत किया तथा अपने मकान में रहने का निमंत्रण दिया । रहने के लिये दो कमरे भी दिखाये । कमरे अभी बन रहे थे । उसमें कोई खिडकी नहीं दिखी इसलिये मैंने जाते वक्त कहा की जब मेरी इच्छा होगी, मैं आपको बताउँगा । उन्होंने बडे आदर से हमें अलविदा कहा और अपनी किताब ‘प्रेमधर्म’ तथा महिने में तीन बार प्रगट होनेवाले मुखपत्र 'संसारसंघ' भेंट दिया । उनका सौहार्द्रपूर्ण व्यक्तित्व और उष्माभरा व्यवहार दिल को छू गया ।
ऋषिकेश आने के कुछ दिनों बाद मैंने राजा महेन्द्रप्रताप को खत लिखा । खत में लिखा, 'आपके प्रेमभरें व्यवहार से मुझे बहुत खुशी हुई है । आपने रहने के लिये जो कमरें बतायें वो खिडकी नहीं होने के कारण पसंद नहीं आये वरना मैं निश्चित आपके यहाँ कुछ देर रहना पसंद करता ।'
उत्तर में उन्होंने लिखा: 'अरे, आपने उस वक्त क्यूँ नहीं बताया की आपको खिडकीवाला कमरा पसंद है ? मेरे कमरे की बगल में ही एक कमरा है, जिसमें चारों ओर खिडकियाँ लगी है । अब आप जब भी आओ, मैं आपको वही कमरा दूँगा ।'
इससे राजा महेन्द्रप्रताप के प्रेमभरें हृदय का प्रमाण मिलता है ।
राजपुर से हम ऋषिकेश लौट आये फिर ऋषिकेश में जमकर बारीश हुई । अब मौसम अच्छा हो गया, तो राजपुर जाने की जरूरत नहीं रही । भले हम राजपुर न जा सकें, राजा महेन्द्रप्रताप के प्रेमभरें व्यवहार ने हमारा दिल जीत लिया । राजाजी प्रेमधर्म के अनुयायी थे, इसलिये उनसे एसा मधुर व्यवहार अपेक्षित था । जब आदमी अपने उपदेश के मुताबिक आचरण करता है, तो इससे उसका गौरव बढता है । आचार और विचार के भेद मिट जाना बडप्पन की निशानी है ।
मैंने राजा महेन्द्रप्रताप को खत लिखकर शुक्रिया कहा । ये भी लिखा की वक्त आने पर, मैं आपके निमंत्रण का अवश्य स्वीकार करूँगा ।
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नवरात्री पर बारह दिन के उपवास
पिछले साल की तरह इस साल भी ऋषिकेश में लंबे अरसे तक रहना हुआ । गंगा का रमणीय तट और हिमालय की पर्वतमाला से ऋषिकेश हृदयंगम लगता है । साधना के लिये ऋषिकेश सभी प्रकार से उचित है । यहाँ बहुत सारे संत-महात्मा निवास करते है । जिज्ञासुओं को आज भी उनके दर्शन का लाभ मिल जाता है । ऋषिकेश में मुझे भरत मंदिर का स्थान विशेष पसंद आया ।
मैंने श्रावण मास में एक बार भोजन करने का क्रम बनाया था । नवरात्री में मेरी इच्छा केवल पानी लेकर अनशन करने की थी । अनशन करना मेरे लिये कोई नयी बात नहीं है । पिछले छे साल से, मैं नवरात्री के दिनों में उपवास करता हूँ ।
जिस मकसद के लिये मैं अनशन रखता था, वो अभी पूरा नहीं हुआ था । मगर मुझे पक्का यकीन था की मैं जो कर रहा हूँ, इसका फल एक-न-एक दिन मुझे जरूर मिलेगा । ईश्वर मेरे प्रयासों की नोंध रख रहा है, और वक्त आने पर मेरी इच्छा अवश्य पूरी करेगा । आखिर कर्म का सिद्धांत भी कोई चिज है । इसके बिना दुनिया नहीं चल सकती ।
माँ की कृपा से मेरे दिल में आशा, श्रद्धा, और उत्साह की ज्योत हमेशा जलती रही और इसके उजालों में मैं जीवन की यात्रा करता रहा । मगर मैं प्रत्येक साधक को अवगाह करना चाहता हूँ की उसे अपने दिल में पैदा होनेवाली किसी भी प्रकार की निराशा से बचना होगा । उसे हर हाल में हिंमत, आशा और श्रद्धा बनाये रखना होगा । एसा नहीं होने पर उसकी नाँव मझधार में डूब जायेगी, उसे किनारा नहीं नसीब होगा ।
अधिक मास के कारण नवरात्री शुरु होते ही ऋतु-परिवर्तन हुआ । गर्मीयों की जगह हल्की-सी ठंड लगने लगी । इस तरह अनशन के दिनों में कुदरत ने मेरा साथ दिया । उपवास करने से शरीर थोडा अशक्त जरुर हो जाता है मगर केवल शरीर का खयाल करके बैठे रहेना जीवन नहीं है । शरीर के माध्यम से आदमी को तरक्की करनी चाहिये । केवल एश-ओ-आराम का खयाल होता तो ध्रुव, विश्वामित्र, नरसिंह महेता, तुकाराम या पार्वती अनशन क्यूँ करते ? और तपस्या किये बिना इश्वरकृपा की प्राप्ति कैसे करते ? जीवन केवल भोग के लिये नहीं है, योग के लिये भी है । त्याग और तपस्या जीवन के आवश्यक अंग है । जितनी शारीरिक ताकत जरूरी है, उतनी ही आत्मिक शक्ति आवश्यक है ।
अनशन के दिनों में माताजी अपना खाना खुद पका लेती थी । उसके लिये यह एक तपस्या से कम नहीं था । उसकी धीरज, समज और श्रद्धा अदभुत थी । उसका हृदय निर्मल, सरल और महान था । मेरा ध्येय सिद्ध हो जाय इसके लिये वो हमेशा दुआ करती थी, मुझे सभी प्रकार से सहायता पहूँचाती थी । पिछले पाँच-छे सालों से हो रही मेरी कठिन साधना की वो अकेली साक्षी थी । वो मेरा मार्ग समजती थी, तथा मुझे अनुकूल होने की कोशिश करती थी । माताजी की जितनी भी तारिफ की जाय कम है ।
अनशन के दिनों में प्रार्थना का क्रम जारी रहा । मंझिल नहीं मिलने तक उसे जारी रखना आवश्यक था ।