महेसाणा में नारायणभाई के घर रहते हुए मुझे ३६ दिन हो गये । तब माताजी सरोडा का कार्य पूर्ण करके मेरे पास महेसाणा आयी । मेरा महुवा जाना तय था, क्योंकि इसके लिये इश्वरीय प्रेरणा मिल चुकी थी । महुवा जाते वक्त हमने सिहोर रुककर हनुमानदासजी का दर्शन करने का कार्यक्रम बनाया ।
महात्मा हनुमानदासजी पिछले बीस साल से सिहोर के गौतमकुण्ड में निवास करते थे । भावनगर से निकलनेवाले 'दर्शन' मासिक में दो लेख प्रसिद्ध हुए थे, जिसे पढकर हमें उनके बारे में जानकारी मिली थी । लेख में कहा गया था की लोग रमण महर्षि का दर्शन करने के लिये तिरुवन्नामलै जाते है, मगर वो तो भावनगर की बगल में, सिहोर में, विराजमान है । अन्य लेख में माता आनंदमयी और हरिबाबा हनुमानदासजी को मिलने गये थे, उसका विस्तृत वर्णन था । आनंदमयी माता की हनुमानदासजी से प्रश्नोत्तरी हुई थी । हरिबाबा के साथ एक बंगाली भक्त भी थे, जिन्होंने हनुमानदासजी के लिये कहा था की पूरे भारत में घूमा, मगर उनके जैसा समर्थ संतपुरुष कहीं नहीं देखा । हरिबाबा ने हनुमानदासजी के सन्मुख कीर्तन किया था । भावनगर लौटने पर उन्होंने अपने भक्त और प्रसंशको को बताया था की हमारे देश में हनुमानदासजी जैसे गिनेचुने योगी होंगे । वो पूर्ण, सिद्ध और त्रिकालदर्शी महापुरुष है ।
यह सब पढकर मुझे हनुमानदासजी के दर्शन की इच्छा हुई । खास करके ये जानकर, की वो त्रिकालज्ञ है । पिछले कुछ समय से, मेरी साधना को लेकर मुझे कोई सिद्ध महात्मा की तलाश थी । एसे में हनुमानदासजी को मिलने का सुयोग उपस्थित हुआ, तो मुझे लगा की ईश्वर मुझ पर महेरबान हुआ है । अगर वो मेरी साधना-सिद्धि के बारे में निश्चित रूप से बता दें तो मेरी चिन्ता और यातना का अन्त हो जायेगा, मेरे व्रत-अनशन की महेनत सफल हो जायेगी । ईश्वरकृपा के अलावा एसे त्रिकालज्ञ महापुरुष से मिलने का संयोग नहीं मिलता ।
१ जनवरी के दिन हम सिहोर स्टेशन पहूँचे । आसपास के छोटे-छोटे पर्वतों के कारण सिहोर बहुत सुंदर दिखता है । स्टेशन के करीब की धर्मशाला में हमने कमरा लिया । थोडी देर आराम करके हम गाँव में गये । गाँव से करीब एक मील की दूरी पर गौतमकुंड है । एक महान संतपुरुष को मिलने का जोश था, इसलिये शारिरीक अशक्ति के बावजूद चलकर गौतमकुंड पहूँचे ।
गौतमकुंड की जगह मनोरम्य है । यहाँ छोटी सी गुफा है, और गुफा के अंदर छोटा-सा मंदिर और कुटिया है । वहाँ पहूँचते ही हमे महात्मा हनुमानदासजी के दर्शन का लाभ मिला । एक पाट पर गद्दी लगाकर वो बैठे थे । उनके कक्ष में कुछ बरतन बिखरे पडे थे । दोरी पर कुछ वस्त्र सूख रहे थे । अंदर मंदिर था । उसका दर्शन करके हम हनुमानदासजी के पास आये । उनकी उम्र काफि लगी । उनके बाल सफेद हो चुके थे, बदन पर झुर्रीयाँ थी और आँखो पर चश्मा लगा था । उन्होंने टाट का झब्बा पहना था । वो कंगी से अपने बाल ठीक कर रहे थे । उनको प्रणाम करके हम जमीन पर बैठ गये ।
कमरे में लगी घडी हमें अहेसास दिला रही थी की वक्त तेजी से भाग रहा है । एसे त्रिकालज्ञ महापुरुष को मिलने का मौका बारबार नहीं मिलता । कुए के पास आकर प्यासा रहने में बुद्धिमानी नहीं है । हनुमानदासजी के अलावा कोई वहाँ नहीं था इसलिये प्रश्नोत्तरी करने में सुगमता थी । साधारण बातचीत करने के बाद मैंने उनकी विशेष शक्ति का लाभ लेने के लिये उनसे प्रश्न पूछना शुरु किया ।
बहुत सारे लोग संत-महात्मा का दर्शन करने जाते है मगर उनका कोई प्रयोजन या मकसद नहीं होता । कुछ लोग केवल उन्हें देखने के लिये आते है, कुछ अपनी शंका का समाधान करने आते है, तो कुछ केवल प्रश्न पूछकर चर्चा करने आते है । मकसद जो भी हो, व्यक्ति का ध्यान उसकी पूर्ति के प्रति होना चाहिये और काम खत्म होने पर उसे वहाँ से निकलना चाहिये । संतपुरुषों का वक्त कीमती होता है । बिना किसी प्रयोजन उनके पास बैठे रहना ठीक नहीं है । कई लोग संत-महात्मा के पास जाकर अपनी सांसारिक बातें करने लगते है । कुछ लोग उनके सन्मुख बैठकर आपस में बातचीत करते रहते है । एसा करने से संतपुरुष का कीमती वक्त जाया होता है । समय के सदुपयोग का खयाल हमेशा मेरे मन में रहता है, इसलिये मैंने उनको प्रश्न पूछना शुरु किया ।
पहेला प्रश्न मेरी साधना के उपलक्ष में पूछा । मैंने कहा: 'मुझे जगदंबा के साक्षात दर्शन की इच्छा है । मुझे जगदंबा का दर्शन कई बार मिल चुका है मगर इच्छानुसार नहीं मिला इसलिये मेरे मन में असंतोष है । आप तो त्रिकालज्ञ है, सब जानते है । क्या आप बताने की कृपा करेंगे की मुझे मेरी इच्छा के मुताबिक माँ का साक्षात दर्शन कब मिलेगा ? '
उन्होंने दबे आवाज में उत्तर दिया, 'अगर दिल में प्रेम है, तो दर्शन अवश्य होगा । दर्शन के लिये मन में लगन और दिल में बैचेनी चाहिये । तभी दर्शन होता है ।'
'हाँ, वो तो ठीक है मगर मुझे एसा दर्शन कब मिलेगा ?' मैंने अपना प्रश्न दोहराया ।
उन्होंने कहा: 'इसका कोई निश्चित वक्त नहीं होता । अगर वो चाहे तो पल में हो जाय और न चाहे तो युग भी निकल जाये ।'
मैंने कहा: 'वो तो मैं भी जानता हूँ । ये तो सिद्धांत की बात है । आप त्रिकालदर्शी है इसलिये मैं आपकी विशेष शक्ति से मैं ये जानना चाहता हूँ की मुझे माँ के दर्शन कब होंगे ? मुझे कोई निश्चित तारीख बताओ । '
वो सोच में पड गये । फिर बोले, 'अभी कुछ वक्त लगेगा ।'
मुझे उनके उत्तर से संतोष नहीं हुआ ।
मैंने पूछा, 'कितना वक्त लगेगा ? छे महिना, साल, दो साल ?'
उन्होंने कहा की अभी वक्त लगेगा । फिर बोले, एक साल लगेगा ।
मुझे उनका उत्तर संतोषकारक नहीं लगा । उनके उत्तर में एक त्रिकालदर्शी महापुरुष की दृढता नहीं थी । वो अपनी नासिका पर हाथ रखकर उत्तर देते थे, इसलिये मैंने अनुमान किया की शायद वो स्वरोदय शास्त्र के अभ्यासी है । अब यहाँ आये है तो क्यूँ न अन्य बातों पर उनकी राय जान ले, एसा सोचकर मैंने दूसरा प्रश्न पूछा ।
मेरी आत्मकथा के वाचक नंदपांचम से परिचित होंगे । बडे-बडे विद्वान नंदपाँचम या नंदपंचमी के बारे में नहीं जानते क्योंकि ये प्रचलित नहीं है । शायद हनुमानदासजी को इसके बारे में पता हो, एसा मानकर मैंने पूछा तो उन्होंने कहा की शायद नागपंचमी को नंदपांचम कहते होंगे ।
मैंने कहा, नागपंचमी तो श्रावण मास में आती है । उसे कोई नंदपांचम कहेता हो, एसा मेरे ध्यान में नहीं है । तब उन्होंने कहा की शायद नंदपांचम नंदजी के साथ जुडी होगी ।
मैंने उनको तीसरा प्रश्न पूछा: 'कुछ लोगों का मानना है की रामकृष्ण परमहंसदेव तथा विवेकानंद फिर-से धरातल पर अवतीर्ण हुए है । आपका इसके बारे में क्या मंतव्य है ?
मैंने कहीं पढा है की एक विद्यार्थी अभ्यास करने अमरिका गया । वहाँ उसका मन पढाई में नहीं लगा । पूर्वसंस्कारो की प्रबलता से उसे आध्यात्मिक अभिरुचि हुई । उसे कुछ अनुभव मिले, जिससे उसे पता चला की वो पूर्वजन्म में स्वामी विवेकानंद था । तो क्या ये सच है ? आप क्या कहते है ?'
हनुमानदासजी सर हिलाकर कहने लगे, 'नहीं, मैं नहीं मानता । आजके हालात देखकर एसा नहीं लगता कि उनका जन्म हो चुका है । वरना संसार में संकट नहीं रहते, सभी जगह शांति और खुशहाली होती । आप देख रहे है की कष्ट और क्लेश बढते जा रहे है । लोगों की मुसिबतों का पार नहीं है । एसे में इनका पुनर्जन्म हुआ है यह बात कैसे मान लें ?'
मेरी धारणा थी की हनुमानदासजी अपनी आर्षदृष्टि से इस बात का खुलासा करेंगे मगर उन्होंने साधारण तर्क का आश्रय लिया । उनका खुलासा मुझे तर्कसंगत नहीं लगा । संसार में जब अधर्म और अशांति बढती है तो इश्वर अवतार लेते है । इश्वर के अवतार का प्रयोजन यही है की वो अधर्म का नाश करें और धर्म की प्रतिष्ठा करें । अगर उनके जन्म मात्र से विश्वभर में शांति छा जाये तो उनके लिये कुछ करना शेष नहीं रहेगा । मगर इतिहास से हमें पता चलता है की उनके जन्म होने से संसार में अशांति का अन्त नहीं हुआ था । भगवान राम और कृष्ण मौजूद थे तब क्या अधर्म और अशांति नहीं थी ? क्या उनके वक्त लोगों को आपत्ति या कष्ट का अनुभव नहीं होता था ? क्या बुद्ध और इशु के वक्त में सभी जगह शांति थी ? अशांति और अधर्म का नाश करने के लिये ही इश्वर और इश्वरतुल्य महापुरुषों का अवतार होता है । इसलिये केवल अवतार होने से संसार में शांति फैल जाये, एसा मानना गलत है । इस हिसाब से देखा जाय तो शायद ही कोई अवतार कहा जायेगा ।
ये मेरे अंगत विचार है । हनुमानदासजी वयोवृद्ध महात्मा थे । मैं उनके पास एक जिज्ञासु होकर गया था इसलिये उनसे चर्चा या वादविवाद करना ठीक नहीं लगा । मुझे कुछ अन्य विषयों में उनकी राय लेनी थी इसलिये मैंने इस बात को आगे नहीं बढाया ।