पागल दरजी की बात
ऋषिकेश से हम महेसाणा आये । यहाँ नारायणभाई तथा सरस्वतीबेन के घर पूरा एक महिना और इक्कीस दिन रहें । फिर राजकोट गये । हमारे साथ ताराबेन तथा उसका पुत्र नरेन्द्र भी था । राजकोट के भक्तिनगर में चंपकभाई ने नया मकान बनवाया था । उनकी इच्छा थी की मैं उस घर में रहूँ, बाद में वो वहाँ रहने जाय । उनके नये मकान में हम कुल मिलाकर चौबीस दिन रहें । उन्होंने बडे प्यार से मेरी खातरदारी की । अब वो संपूर्ण रोगमुक्त हो गये थे ।
राजकोट में काफि सारे लोग सत्संग के लिये आते थे । एक दिन एक निवृत सरकारी अधिकारी अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आये ।
उनकी पत्नीने मुझे पूछा, क्या आप पूर्वजन्म में विश्वास करते है ?
मैंने उत्तर दिया, हाँ, क्या बात है ?
उन्होंने कहा, मेरा बारह साल का लडका है । जब-से वो पाँच साल का था तब-से अपने पूर्वजन्म की बात बताता था । वो कहेता था की मैं पूर्वजन्म में पागल दरजी था और वढवाण में हमारे घर के पास रहता था । वो मुझे धर्म की बहन मानता था । उसे साधुसंतो का समागम करना अच्छा लगता था । वो साधुओं को लड्डू और गांठिया खिलाता था और खुद रुखासुखा खाता था । उसे सब्जी अच्छी लगती थी, इसलिये मैं कभीकभी उसे सब्जी देने जाती थी । फिर उसकी मौत हो गयी । हमारा तबादला वढवाण से राजकोट हुआ और हम यहाँ आ गये । यहाँ मेरे घर उसका जन्म हुआ । बचपन से उसे सब्जी बहुत पसंद है, यहाँ तक की किसी और की थाली में परोसी गयी सब्जी वो खा जाता है । उसके आग्रह पर हम उसे अपने पूर्वजन्म के घर वढवाण ले गये । वहाँ जाकर उसने अपनी पूर्वजन्म की पत्नी को कहा की मरने से पहले मैंने सब हिसाब चुकता कर दिया था मगर घर में जो धन छुपाया था, इसके बारे में बताना भूल गया था । उसने जो जगह बतायी, और वहाँ खनन करने पर सचमुच धन निकला । फिर हम वहाँ से लौट आये । अब तो वो बडा हो गया है । शर्म या किसी अन्य कारण से अब वो अपने पूर्वजन्म की बात नहीं करता ।
ये बात औरों के लिये भले आश्चर्यकारक होगी, मेरे लिये नहीं है । जो व्यक्ति पूर्वजन्म में विश्वास रखता है, वो इसे कुछ हद तक समज पायेगा । हमारे यहाँ अक्सर एसे जन्मांतर ज्ञान वाले बच्चे पैदा होते है । लोग भले पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को न मानें, मगर उसे मानने के लिये प्रेरित करे एसे बनाव बनते रहते है । पागल दरजी का प्रसंग उनमें से एक है ।
*
मास्टर महाशय की शक्ति
राजकोट के सत्संग में एक बहन आयी थी जो की अविवाहिता थी । उसने अपने जीवन का एक प्रसंग हमे बताया । कुछ साल पहले वो अपनी माता के साथ मास्टर महाशय को मिलने कोलकता गयी थी । उस वक्त मास्टर महाशय की तबियत ठीक नहीं थी । वो अपने घर के अंदृनी कमरे में आराम फरमा रहे थे । जैसे ही वो उनके प्रवेशद्वार पर पहूँचे, मास्टर महाशय बोले, आईये ब्रह्मचारिणी । यह सुनकर उनको बडा आश्चर्य हुआ । जब वो मास्टर महाशय के कमरे में गये तो मास्टर महाशय ने पूछा, 'क्यों माता, मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा ?'
उनकी माता ने कहा, नहीं, आपने बिल्कुल सच कहा ।
कुछ देर तक मास्टर महाशय के साथ बातचीत करके जब वो निकले, तो उन्होंने कहा, जब प्रत्येक साँस में प्रभु का नाम निकलेगा तब तुम्हारा ब्रह्मचर्य सफल होगा ।
मास्टर महाशय श्री रामकृष्ण कथामृत के लेखक है । परमहंसदेव के अंतरंग भक्तों में से कुछ भक्तों ने आत्मोन्नति की असाधारण उँचाईयों को छूआ था । इसका प्रमाण मास्टर महाशय के इस प्रसंग से मिलता है ।
*
वीरपूर, जूनागढ, आनंदाश्रम
राजकोट के दिन चंपकभाई के साथ आनंदपूर्वक व्यतीत हो गये और हमारे जाने का समय हो गया । तब राजकोट के एक भाई ने मुझे आनंदाश्रम बताने की इच्छा जताई । उनकी कार में हम राजकोट से रवाना हुए । हमारे साथ ताराबेन, चंपकभाई तथा उनके मित्र वल्लभभाई थे । वल्लभभाई बहुत समजदार और प्रेमी पुरुष थे । उनका भाई अमरिका में पढाई करके भारत लौटा था, और आत्मोन्नति की साधना में रत रहता था । वो उसका पूरी तरह से खयाल रखते थे । दोनों भाईयों को मिलकर मुझे खुशी हुई ।
राजकोट से गोंडल होकर हम वीरपुर आये । वीरपुर सौराष्ट्र में हो गये महान संत जलाराम का गाँव है । यहाँ हनुमानजी की मूर्ति और जलाराम भगत की समाधि है । यहाँ पर सदाव्रत चलता है । जलाराम केवल सौराष्ट्र के ही नही, भारत में पीछले पचास साल में हो गये प्रतापी महापुरुषों में से एक थे । भूखों को खाना खिलाना, साधुसंतो की सेवा करना और रामनाम जपना उनका जीवनमंत्र था । इसके बल पर वो सिद्ध हुए थे, प्रभुरूप हुए थे और कई लोगों को भला कर गये । उनके बारे में कहा जाता है की 'जला सो अला' । जलाराम की लीलाभूमि का दर्शन करके हमें खुशी हुई ।
वहाँ से जुनागढ होकर हम आनंदाश्रम आये । आनंदाश्रम बीलखा के पास गिरनार पर्वत की तलेटी में स्थित है । इसे महात्मा नथुराम शर्मा ने तैयार किया था । नथुराम शर्मा सौराष्ट्र के महान ज्ञानी, योगी और विचारक महात्मा थे । आज उनके लाखों भक्त है । आश्रम में उनका मंदिर, अंगत कक्ष, ध्यान कक्ष तथा पुस्तकालय बनाया गया है । यह स्थान शांत, भव्य और कोलाहलरहित है । यहाँ के संचालक सेवाभावी और नम्र है । हम जब आनंदाश्रम पहूँचे तो दोपहर को एक बजा था । वैसे तो ये आराम का समय था, फिर भी व्यवस्थापकों ने हमारे लिये भोजन की व्यवस्था की । एसा करके उन्होंने हमारे मन पर सेवा और सत्कार की गहरी छाप छोडी ।
थोडी देर बातचीत करके करीब तीन बजे हम वहाँ से निकले । इस स्थान को देखकर मुझे वांकानेर का जडेश्वर याद आया । वो स्थान भी यहाँ की तरह शांत, और एकांत था । सौराष्ट्र में अब भी एसे स्थान है, यह खुशी की बात है ।
साडे तीन बजे हम जूनागढ स्टेशन पहूँचे । प्लेटफोर्म पर सोमनाथ मेल हमारी प्रतीक्षा कर रहा था । जैसे ही डिब्बे पर रीजर्वेशन की सूचि लगायी गयी, ट्रेन छूटी । चंपकभाई और वल्लभभाई जेतपुर उतरे, और वहाँ से राजकोट के लिये रवाना हुए । बिछडते वक्त चंपकभाई और वल्लभभाई - दोनों की आँखो में आँसू थे । प्रेम की बात न्यारी है, इसमें स्मित के साथ आँसू होते है और हास्य के साथ रुदन । जो दोनों का लुत्फ उठा सकें, वो हमेशा खुश रहता है ।