मेरी आत्मकथा को शुरु से पढते आये वाचको के लिये पीछले प्रकरण के अन्त में लिखा गया 'माँ की प्रेरणा' शब्द नया नहीं है । जब मैं लिखता हूँ की 'माँ की प्रेरणा से' या माँ के आदेश से एसा किया – तो मैं ये केवल लिखने के लिये नहीं लिखता । मेरा जीवन बरसों से इसी तरह चलता है । एसा नहीं है की मुझे ये लिखने की आदत हो गयी है । साधक के जीवन में अंतःप्रेरणा या इश्वरीय प्रेरणा की बातें अक्सर आती है । मेरे लिये ये साहजिक है, इसलिये मैं इसका उल्लेख हर जगह करता हूँ । एसा करने के पीछे मेरा मकसद आपबडाई करना या मैं अन्य साधकों के सविशेष हूँ एसा जताना नहीं है । मैं तो जो सच है, उसे पेश करने की कोशिश कर रहा हूँ । इश्वर की शक्ति हमारी रोजबरोज की जिन्दगी में किस तरह से कार्य करती है इसका आपको अंदाजा हो तथा आप भी उस पर भरोंसा करें, इसलिये मैं एसा करता हूँ । मुझे विश्वास है की यह पढकर बहुत सारे साधकों को प्रेरणा मिलेगी । और अगर एसा होता है तो सबसे ज्यादा आनंद मुझे होगा ।
आत्मकथा लिखना कितना आसान या मुश्किल है इसकी चर्चा हम यहाँ नहीं करेंगे मगर एक बात निश्चित है की आत्मकथा लिखना अपने आप में कला है । जिस तरह से कोई तसवीर बनाने में, स्वेटर बुनने में, या संगीत के सूर निकालने में शांति, संयम और समजदारी की जरूरत पडती है, एसी ही धीरज, हिंमत और विवेचनशक्ति की आवश्यकता जीवनकथा को प्रस्तुत करने के लिये जरूरी होती है । व्यक्ति को अपने जीवन का इतिहास, जैसा है वैसा ही प्रकट करना है । जो हुआ है, उसे उसके मूल स्वरूप में लोगों के आगे रखना है । उसे ना तो कम करना है, ना ही बढा-चढा के पेश करना है । अगर वो एसा कर पाता है तो अपनी आत्मकथा के साथ न्याय कर पायेंगा । वरना वो केवल दिलचस्प साहित्य का सर्जन करेगा जिसका उस व्यक्ति की निजी जीन्दगी से कोई वास्ता नहीं होगा ।
और भी एक बात है । प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग जीवनइतिहास होता है, जो अन्य व्यक्ति से मिलताजुलता न भी हो । कुछ बातें एसी भी हो सकती है जिसे लोग समज ना सकें, उसका स्वीकार न कर सकें, उसके बारे में शंका या टिप्पणी करें । मगर इसके डर से उसे अपनी बात बदलने की, उसे जूठे वस्त्रों से सजाने की जरूरत नहीं है । आत्मिक साधना के साधक को अपनी जीवनकथा पूरी प्रामाणिकता से प्रकट करनी है । लोगों के प्रत्याघात का विचार करके उसे अपनी कहानी में बदलाव नहीं करना है । अगर वो एसा करता है तो वो आत्मकथा के साथ धोखाधडी होगी, अन्याय होगा । तभी तो मैंने कहा की आत्मकथा का आलेखन करने में धीरज, हिंमत, समजदारी तथा संयम की जरूरत पडती है ।
अब हम ऋषिकेश की पुण्यभूमि में चलते है । पीछले साल हम ऋषिकेश आकर भरत मंदिर में रहें थे । इस साल, वहाँ हमारा पसंदीदा कमरा मंदिर के निजी कर्मचारी को दिया गया था । वैसे तो धर्मशाला में अन्य कमरे थे, मगर हमे वो कमरा पसंद आ गया था । इसलिये हमें दूसरी जगह ढूँढनी थी । भरत मंदिर के मेनेजर भट्टजी ने हमारे रहने का इन्तजाम राधास्वामी मंदिर में करना चाहा मगर वो भीडभाड के बीच था इसलिये हमे ठीक नहीं लगा । आखिरकार हमने भगवान आश्रम में रहना तय किया । यहाँ हम रह चुके थे । भगवान आश्रम की स्वच्छता और व्यवस्था अच्छी थी । हम यहाँ करीब देढ महिना रहें ।
नवरात्री में माँ की विशेष कृपा के लिये व्रत करने का खयाल था, मगर पीछले साल की तरह माँ ने अनशन के लिये मना किया । इसलिये मेरी इच्छा के बावजूद मुझे उपवास का खयाल मन से निकालना पडा । इसके बारे में २८ सितम्बर और १ अक्तूबर, १९५८ को सुबह साडे छ बजे माँ के साथ देहातीत दशा में बातचीत हुई ।
आप बताओ मैं यहाँ से कब निकलूँ ? नवरात्री की पाँचम को ?
हाँ, पाँचम ठीक रहेगी ।
फिर ऋषिकेश जाउँ ?
हाँ ।
कहाँ रहूँ ?
भगवान आश्रम में ।
वहाँ ठीक रहेगा ?
हाँ, ठीक रहेगा ।
इसका मतलब की पाँचम तक यहाँ रहूँ और फिर ऋषिकेश जाउँ ?
हाँ । माँ ने उत्तर दिया ।
एक और अनुभव देकर माँ ने कहा की इस वर्ष नवरात्री में अनशन करने की जरूरत नहीं है । मेरा कहने का मतलब ये है की हर वक्त अपनी मरजी के मुताबिक प्रेरणा मिले एसा नहीं है । कभीकभी हमें एसे आदेश मिलते है जिसकी हमें कल्पना भी न हो । दैवी शक्ति सर्वतंत्र स्वतंत्र होती है, और वो उसकी मरजी के मुताबिक हमें प्रेरणा देती है । हमारा काम उसकी इच्छा का अनुवाद करना है । इसके लिये भारी समर्पण की आवश्यकता होती है । खास करके तब, जब मिला हुआ आदेश साधक की इच्छा के प्रतिकूल हो ।
नवरात्री के दिन प्रार्थना में व्यतीत हुए । माँ ने ना कहा इसलिये मैंने अनशन नहीं रखे मगर इससे साधना का उत्साह थोडा कम होता है ? वो तो जब तक ध्येय की पूर्ति नहीं हो जाती, साहजिक रूप से बना रहता है । सरिता जब तक समंदर से नहीं मिल जाती, उसका प्रवास अधूरा रहता है । आत्मिक पूर्णता के पथ पर चल पडे साधक का हाल भी वैसा है । अपने लक्ष्य तक पहूँचने के लिये उसे भारी मनोबल की आवश्यकता होती है । निरंतर जागृति तथा इश्वरकृपा के अलावा एसा कर पाना मुश्किल होता है ।
शुरुशुरु में ऋषिकेश में खास ठंड नहीं थी मगर दिपावली के बाद मौसम बदल गया । भारी ठंड पडने लगी । इसके बावजूद हमने सुबह में गंगास्नान करने का क्रम जारी रक्खा । ऋषिकेश पहाडों की तलहटी में है, यहाँ का नैसर्गिक सौन्दर्य देखनेलायक है । गंगा का निर्मल प्रवाह पहाडों की संकीर्णता का त्याग करके मैदानी इलाकों में व्यापक रूप से बहने लगती है । पहाडों से गंगा का सौन्दर्य नीखरता है या गंगा से पहाडों का ये कहना मुश्किल है । दोनों साथ में दर्शनीय लगते है । जैसे कोई सुंदर कविता या नाटक का रसास्वाद लेते हुए मन तृप्त नहीं होता, वैसे ही कुदरत के इस नजारे को देखकर जी नहीं भरता । गंगा के तट पर आप घण्टो बैठ सकते है । यहाँ से उठने को आपका मन नहीं करेगा । यहाँ मन सहज रूप से स्थिर हो जाता है तथा शान्ति का अनुभव करता है ।
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ऋषिकेश से हम मद्रास गये और वहाँ करीब दो महिना रहें । वहाँ से बंबई आये । बंबई ज्यादा रहने का विचार नहीं था इसलिये हम सेनेटोरियम के बजाय माधवबाग स्थित मुलजी निवास में ठहरे । वहाँ से हम सरोडा आये और करीब चार महिना रहें । यहाँ मैंने 'उपनिषद नुं अमृत' का लेखनकार्य पूर्ण किया । इसकी शुरुआत मैंने वर्ष के प्रारंभ में की थी । चंपकभाई ने उसके प्रकाशन के लिये एक-दो प्रकाशकों का संपर्क किया । इसके सिलसिले में वो दो दफा सरोडा भी आये । मगर कुछ कारणों से प्रकाशन के प्रयास विफल रहें ।
सरोडा छोटा-सा गाँव है, यहाँ रहना मुझे अच्छा लगता है । पिछले साल की तरह इस साल भी भगवद् गीता पर विचारणा-कार्य जारी रहा । इन चार महिनों में दसवें अध्याय से लेकर तेरहवे अध्याय का आधा हिस्सा पूरा हुआ । दोपहर को चार और पाँच के बीच कई जिज्ञासु भाईबहन इसे सुनने के लिये आते थे । ताराबेन तथा उनके बच्चे हमारे साथ थे । गर्मीयाँ शुरु होते ही भाई अंबालाल ने मकान लिया इसलिये ताराबेन बच्चों के साथ अहमदाबाद गयी । हम भी कुछ दिनों के लिये उनके घर गये । वहाँ से नडियाद होकर अषाढ सुद एकम के दिन हम हिमालय के लिये निकले । ताराबेन को बच्चा आनेवाला था इसलिये माताजी का मेरे साथ आना निश्चित नहीं था । अंत में सरोडा से समरथ बेन ताराबेन की देखभाल करने आयी, इसलिये माताजी मेरे साथ आ सके । पिछले साल की तरह इस साल भी माँ की प्रेरणा हुई की हमें मसूरी जाना है ।