अलौकिक नामकरण
कालचक्र निरंतर चलता रहता है, वो एक पल के लिये भी नहीं रुकता । पानी के प्रवाह या पवन की ललित लहरी की तरह वक्त हमारे हाथ से निकल जाता है । कहने के लिये भले सभी दिन समान हो, मगर हरएक लम्हें का अपना अलग रुत्बा होता है । कुछ पल हमारे जीवन में शकवर्ती होते है, वो हमारे जीवन पर अपनी अमीट छाप छोड जाते है ।
सन १९६० का साल मेरे लिये अमोघ आशीर्वादरूप सिद्ध हुआ । इसमें, मेरे दो पुस्तक 'अनंत सूर' और 'सरल गीता' के प्रकाशन की योजना बनी । 'अनंत सूर' बंबई के श्री शांतिलाल दलाल अपनी धर्मपत्नी की पुण्यस्मृति में प्रसिद्ध करना चाहते थे । 'सरल गीता' श्री जटाशंकरभाई तथा धनेश्वरभाई के संयुक्त सहयोग प्रकाशित हो रही थी । प्रकाशन की सभी तैयारीयाँ पूरी हो गयी तब जाकर एक समस्या खडी हुई । बचपन से मुझे जो नाम मिला था वो मुझे इतना पसंद नहीं था । मेरी इच्छा थी की मैं कोई मीताक्षरी और सारवाही नाम धारण करूँ । मैंने विभिन्न नामों पर विचार किया । एक के बाद एक, वर्णमाला के सभी अक्षरों को लेकर कौन सा नाम मेरे लिये ठीक रहेगा, इसकी विचारणा की । कई दिनों के मनोमंथन बाद कोई नतीजे पर नहीं पहूँच सका, तब मैंने परमात्मा को प्रार्थना की । माँ से गुजारिश करके कहा की मेरे लिये जो नाम उचित है, कृपया मुझे बताओ ।
कुछ दिनों की प्रेमपूर्ण प्रार्थना के बाद एक दिन प्रातःकाल में माँ की कृपा हुई । माँ ने ध्यानावस्था में दर्शन देकर मेरी चिंता और वेदना का कारण पूछा ।
मैंने कहा की मेरे लिये कौन सा नाम उपयुक्त होगा इसका निर्णय मैं नहीं कर पा रहा ।
माँ ने सुधासभर शांत स्वर में कहा, 'इसमें चिंता करने की क्या बात है ? तुम्हारे लिये 'योगेश्वर' नाम सभी प्रकार से योग्य रहेगा ।
माँ के अलौकिक आदेश या नामकरण से मेरी समस्या का सुखद समाधान हुआ । मेरे तर्कवितर्क शान्त हुए, मेरी चिंता तथा वेदना का शमन हुआ ।
जगदंबा ने जो नाम मुझे दिया, उसके बारे में मैंने सोचा ही नहीं था । मुझे फिर एक बार प्रतीति हुई की परमात्मा अपने शरणागत भक्त को सभी प्रकार से सहायता पहूँचाते है ।
दोनों किताबे यही नाम से प्रसिद्ध हुई । श्री शांतिलाल दलाल ने बंबई के सुंदराबाई होल में विमोचन का कार्यक्रम रक्खा । 'जन्मभूमि' के तंत्री श्री रविशंकर महेता के अध्यक्षपद तथा श्री मंगलदास पकवासा के अतिथीविशेष पद में शानदार समारोह संपन्न हुआ ।
पुस्तक प्रकाशन की प्रवृत्ति का इस तरह से श्रीगणेश हुआ और यह प्रवृत्ति इसके बाद फैलती गयी । जैसे बीज में से वृक्ष का विकास होता है, इन दो ग्रंथो के प्रकाशन बाद कई अन्य ग्रंथो का प्रकाशन हुआ । इसकी उपलब्धि धर्मप्रेमी जनता के लिये आशीर्वादरूप सिद्ध हुई ।
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अदभूत अनुभूति – सिद्धिप्राप्ति
हम जो बीज जमीन में बोते है, वो तुरन्त नहीं उगता । हालाकि जमीन के नीचे उसकी वृद्धि होती रहती है । फिर एक धन्य क्षण, वो अंकुर के रुप में हमें दिखाई देता है । जिसे ये पता नहीं है की जमीन में बीज बोया गया है, वो अंकुर फूटने की घटना से आश्चर्यचकित हो जाता है । मगर जिसे हकीकत का पता है वो इसे साहजिक रूप से स्वीकार करता है, इसे एक नैसर्गिक प्रक्रिया के भागरूप मानता है ।
आत्मिक साधना के क्षेत्र में साधना के माध्यम से बीज का आरोपण किया जाता है । इसके फलस्वरूप जब शांति और सिद्धि के अंकुर फूटते है तो लोगों को आश्चर्य होता है । मगर उन्हें ये पता नहीं होता की ये साधक की दिन, महिने, बरसों और कई दफा जन्मों की महेनत है, जो रंग लाई है । सन १९६० का वर्ष मेरे साधनात्मक जीवन की फलश्रुति का सुनहरा अवसर लेकर आया । इससे मेरे सुदीर्घकालीन अनशन, लगातार प्रार्थना तथा पनपती बैचेनी का अन्त हुआ और संसिद्धि की अलौकिक अवस्था का प्रारंभ हुआ । इससे मेरा जीवन धन्य हो गया ।
मैं बंबई के वालकेश्वर स्थित खीमजी जीवा सेनेटोरियम के कमरे में बैठा था तब परमात्मा की जो परात्पर सर्वोपरी शक्ति का साक्षात्कार मुझे ध्यान और समाधि में होता था, वो जागृति में स्थूल भूमिका पर होने लगा । माँ जगदंबा के दर्शन की यह अनुभूति नित्यनिरंतर और प्रत्येक अवस्था में होने लगी । यह एक एसी अवस्था थी जिसमें परमात्मा की परम चेतना से मेरा संपर्क अनवरत रूप से बना रहता था । मैं मेरी मरजी के मुताबिक इससे वार्तालाप कर सकता था । इस अवस्था को दैवी शक्ति का अवतरण कहने के बजाय दैवी शक्ति का आविर्भाव कहना ठीक होगा । इससे मुझे अवर्णनीय आत्मसंतोष मिलना स्वाभाविक था । मेरे बरसों के तप, व्रत सफल हो गये । मैं शरीरधारण की धन्यता का अनुभव करने लगा । परम चैतन्य का जो अनुभव सुदीर्घकालीन साधना के पश्चात कोई बडभागी साधक को समाधि में मिलता है, वो मुझे जागृति में होने लगा । मेरे लिये इससे ज्यादा धन्य क्षण और क्या हो सकती है ? मेरा रोमरोम आनंदार्णव में अवगाहन करने लगा । माँ जगदंबा के असाधारण अनुग्रह से मेरा अंतर भावविभोर हो गया । मेरी आँखों से हर्षाश्रु छलक पडे ।
तब से परमात्मा की परम चेतना से मेरा संपर्क बना हुआ है, और यह देश-कालातीत रहा है । इस अनुभूति के पहले मुझे माँ जगदंबा के दर्शन कि लिये प्रार्थना करनी पडती थी, ध्यान करना पडता था, मगर अब एसी आवश्यकता न रही । ध्यान, समाधि और जागृति के अवस्थाभेद मिट गये । मानों मेरा शरीर एक नवीन चेतना से चार्ज हो गया । इसके फलस्वरूप अन्य कई सिद्धि और शक्तिओं का आविर्भाव हुआ । जैसे रेडियो पर हम अपनी मरजी से कोई भी स्टेशन सुन सकते है, एसे ही, समस्त संसार में सूक्ष्म रूप में विद्यमान किसी भी महापुरुष से संकल्प मात्र से संपर्क करना संभव हो गया । वैदिक काल में ऋषिमुनि देवताओं का आवाहन करके उन्हें बुलाते थे, इस तरह किसी भी आत्मा का आवाहन करके उसके साथ बात करना संभव हुआ । भूत, भावि और वर्तमान के भेद मिट गये । मेरा जीवन परमात्मा की इच्छा का अलौकिक अनुवाद हो गया, और उसकी मरजी तथा मार्गदर्शन के मुताबिक चलने लगा ।
शास्त्रों के गूढ रहस्य समजने में परेशानी होने पर मैं उसके रचयिता महापुरुष का संपर्क करके उनकी राय जानने के काबिल हुआ, उनका मार्गदर्शन मेरे लिये संभव हुआ । माँ की दिव्य शक्ति तथा कुछ महापुरुष अपनी इच्छा से मुझे माध्यम बनाकर लेखनकार्य करने लगे । मैं जानता हूँ की इस अवस्था को समजना बडे-बडे साधक और संतो के लिये कठिन है । इसे समजना तो ठीक, इसकी सुचारुरूप से कल्पना करना उनके लिये मुश्किल है । फिर भी यह वास्तविकता है, इसलिये मैं इसका सरल शब्दों में वर्णन कर रहा हूँ । 'माँ' का निरंतर सानिध्य मिलना, मेरे जीवन का परम सौभाग्य बन गया । इससे ज्यादा तो क्या लिखूँ ? इस अनुभूति के कुछ अंश व्यक्तिगत और गूढ होने के कारण सार्वजनिक करना ठीक नहीं समजता । ये मेरे पास सुरक्षित रहे ये जरूरी है ।