अपनी आखिरी साँस तक चंपकभाई एक आम आदमी की जिन्दगी जीते रहे । उनका स्वभाव बडा उदार था । खिस्से में फूटी कौडी न होने पर भी वो बहुत कुछ करने का हौसला रखते थे । एसा नहीं की वो केवल अपने परिचित-दोस्तों के लिये ही खर्च करते थे । अपरिचित और विरोधीओं के लिये पैसा खर्च करने में वो कभी हिचकिचाते नहीं थे । गरीब, अनाथ, पीडित और दीनदुःखी की मदद करने के लिये वो हमेशा तैयार रहते थे । उनके पास आकर कोई भी व्यक्ति अपना गम सुना सकता था, अपनी तकलिफों को बेझिझक बता सकता था । वो गरीबों के बेली थे, एसा कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है । हो सके तो खुद सहायता करना, अन्यथा किसी और से सहायता करवाना उनका स्वभाव था । इसी भावना को लेकर उन्होंने राजकीय और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में कदम रक्खा था । यश, समृद्धि, कीर्ति, ओहदे, या बडप्पन की भावना ने उन्हें कभी छूआ नहीं था । वो सच्चे और मूक लोकसेवक थे । उनका सार्वजनिक जीवन नखशीख निर्मल था । वर्तमान लोकसेवकों को उनके जीवन से बहुत कुछ सिखना है ।
सन १९४७ में क्षयरोग से मुक्त होने के बाद उन्होंने वैवाहिक जीवन में प्रवेश किया था, मगर उनका आत्मा सांसारिक बंधनो से अलिप्त था । लग्नजीवन की मोहिनी ने उन्हें स्पर्श नहीं किया था । संयम की महत्ता को वो समज चूके थे । शादी के बाद उन्होंने पत्नी से कहा था की अंबाजी के दर्शन करने के बाद ही वो शरीरसंबंध करेंगे । उनकी पत्नी कनकबेन ने भी एसा व्रत लिया था की पाटवारा के हनुमानजी के दर्शन करने के बाद ही शरीरसंबंध करेंगे । शरीरसुख की उन्हें लालसा नहीं थी । शादी से उनको तीन संतान हुए थे, तीनों लडकीयाँ थी । वो लडका और लडकी में कोई भेद नहीं करते थे । तीनों लडकीयों को लडकों की तरह प्यार करते थे । लग्नजीवन को शरीरसुख और आजीवन कामनापूर्ति का साधन समजने वाले लोगों को एसा संयमी वैवाहिक जीवन जीने के लिये कितने आत्मबल की जरूरत पडती है, ये बताने की जरूरत नहीं है । विलासीता में राचनेवाले आजकल के युवक-युवतीओं को स्वैच्छिक संयम की बात अजीब लगेगी । फिर भी व्यक्तिगत और समष्टिगत हित के लिये एसा जीवन आदर्श और अनुकरणीय है । अगर सभी लोकसेवक अपने व्यक्तिगत जीवन में विशुद्धि का आग्रह रखें तो लोगों पर उसकी छाप अच्छी पडेगी और अंततोगत्वा उन्हें ही लाभ होगा ।
चपंकभाई के संयमीत वैवाहिक जीवन में नहीं बल्कि उनके पूरे जीवन में उनकी प्रेरणा तथा सहायक बने कनकबेन धीरज, हिंमत और मनोबल की मूर्ति थी । उन्होंने चंपकभाई का हमेशा साथ दिया । इतना ही नहीं जब चंपकभाई दफ्तर के कामकाजों में व्यस्त थे, तब उन्होंने कुशलता से घर का कार्यभार सम्हाला । उन्होंने घर की आर्थित हालत को देखते हुए शादी के बाद हाइस्कूल में शिक्षिका की नौकरी जारी रक्खी । इससे चंपकभाई का सेवामार्ग आसान हो गया । कनकबेन ने एक आदर्श गृहिणी की तरह अपने सभी कर्तव्य पूरी निष्ठा से अदा किये ।
चंपकभाई लोकसेवकों के लिये मिसाल थे । वो अपने जीवन के अंत तक सेवाकार्य करते रहे । धन की उन्हें जरा-भी लिप्सा नहीं थी । वो अपने पीछे बंगला, गाडी, नोकरचाकर या लौकिक संपत्ति के बजाय अपने उत्तम कर्मों की एसी सुवास छोड गये है, जिसकी कीमत किसी धनभंडार के कम नहीं है । राजकोट शहर में उनके सेवाकार्यों की महक लोगों को प्रेरणा देती रहेगी । जैसे की लोकोक्ति में कहा गया है नाम रहंता ठक्करा, नाणां नव रहंत, कीर्ति केरा कोटडां, पाड्या नव पडंत । अर्थात पैसा अमर नहीं है, नाम अमर है । इंट-चूने से बने मकान नामशेष हो जाते है, मगर कीर्ति की इमारत अक्षय रहती है । चंपकभाई का देह भले नहीं रहा, उनके सेवाकार्यों की सौरभ अमर रहेगी । उसे ना कोई जंग लगेगा, ना ही उसे बुढापा आयेगा ।
जिस राजकोट शहर को सर्वांगसुंदर करने के लिये उन्होंने जीवनभर पुरुषार्थ किया, वहाँ उनकी याद में कोई स्मारक बनता है तो वो म्युनिसीपालीटी और शहर की और से चंपकभाई को दी गई अंजलि होगी । इससे वो चंपकभाई के ऋणानुबंध से मुक्त हो सकेंगे । चंपकभाई जैसे प्रामाणिक और आदर्श लोकसेवकों का स्मारक हो यह इच्छनीय है । हालाकि उनका सच्चा स्मारक उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करके, उनके बताये हुए सेवामार्ग पर आगे बढना है ।
चंपकभाई के अवसान से सब लोग दुःखी हुए । लोगों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी । सब को एसा प्रतीत हुआ मानो कोई स्वजन चला गया । एसा क्यूँ ? वो इतने लोकप्रिय क्यूँ थे ? क्योंकि वे निःस्वार्थ थे, भेदभाव और पक्षापक्षी के राजकारण से पर थे । लोगों की भलाई के लिये जो बन पडे, करनेवाले लोकसेवक थे । उनकी किसीके साथ कोई शत्रुता नहीं थी, सब उन्हें प्यार करते थे, उनके प्रति आदर-सम्मान रखते थे । चंपकभाई में कुछ अलग और नया सोचने की सूझबूझ थी, कुछ कर छूटने की भावना थी ।
आज नहीं तो कल, मौत सबको आनी है । संसार में आज तक कोई मौत से बच नहीं पाया है । कोई यहाँ हमेशा के लिये रह नहीं पाया है । काल सबका हिसाब करता है । जो वक्त बीत रहा है, वो बहुत कीमती है । प्रत्येक पल हमारे जीवन को कम कर रहा है । एक दिन हमारे जाने का वक्त आ जायेगा । फिर भी हमें डरना नहीं है, नाहिंमत नहीं होना है, बैचेन नहीं होना है । बल्कि जो वक्त हमें मिला है, उसका सर्वोत्तम सदुपयोग करना है । इस धरती को अधिक सुंदर और सुखशांतिमय करने का प्रयास करना है । तभी हम अपने जीवन को यादगार, सफल और अन्य लोगों के लिये प्रेरणादायी कर सकेंगे ।
कबीर ने कहा है
कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोयें,
एसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोयें ।
अर्थात् जब हम पैदा हुए, हम रो रहे थे और लोग हमारे जन्म की खुशी मनाकर हँस रहे थे । हमें एसा जीवन जीना चाहिए की जाते वक्त हम स्मित करके सबको अलविदा कह सकें और हमारे जाने पर लोगों की आँखे नम हो, उन्हें दुःख हो ।'
चंपकभाई हँसते हँसते चले गये मगर लोगों को रुला गये । मगर ये वक्त रोनेधोने का नहीं है । जीवन की उज्जवलता के लिये संकल्प करने का, और उसे साकार करने के लिये पुरुषार्थ करने का है । एसा करना उनकी आत्मा का योग्य तर्पण होगा, इससे उनकी आत्मा प्रसन्न होगी । चंपकभाई की आत्मा परमात्मा में शांतिपूर्वक विलीन हो गयी है । चंपकभाई एसी शांति के हकदार थे ।
अकस्मात में गंभीर रुप से घायल होने के बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया । होश आने पर उन्होंने सबसे पहले रीक्षावाले की खबर पूछी थी । रीक्षाचालक की हालत के बारे में जानकर उन्होंने कहा था की रीक्षावाला गरीब आदमी है । उसे कोई परेशान न करें, उसे कोई सजा न दे, इसका ध्यान रखना ।
जो हो गया सो हो गया, उसे हम बदल नहीं सकते । उन्होंने जो कहा, वो उनकी दया, निर्वेरता, सहानुभूति तथा सेवाभावना का द्योतक था । उन्हें नारियेल का पानी दिया गया तो उन्होंने कहा की रीक्षाचालक को भी पानी पिलाओ, उसकी स्थिति मुझसे ज्यादा गंभीर है । जब रीक्षाचालक को नारियेल का पानी दिया गया, तब उन्हें तसल्ली हुई । वो कोई अनोखी मिट्टी से बने इन्सान थे । अपना वक्त पुरा होने पर उन्होंने अपनी आँखे बन्द कर ली । उन्हें जीते जी शांति मिल चुकी थी, इसलिये उनके मरणोपरांत शांति की कामना करना आवश्यक नहीं है । चंपकभाई का अदभुत स्वार्थरहित जीवन हमें प्रेरणा देता रहेगा । हमारी यादों में वो हमेशा जिन्दा रहेंगे ।