मसूरी में मेरे व्याख्यान सुनने सरीलानरेश भी आते थे । एक दिन उन्होंने मुझे सरीला आने का निमंत्रण दिया । अपनी बात दोहराने के लिये उन्होंने मुझे खत लिखा:
सरीला लोज
मसूरी
६–९–१९६५
श्री १०८ श्री योगेश्वरजी महाराज,
मैं आपको निमंत्रण देता हूँ कि इस जाडे में आप सरीला पधारें और हमारे परिवार तथा सरीला की जनता को श्री गीता सुनायें । आपकी अति कृपा होगी ।
आपके पधारने के लिये १ दीसम्बर का दिन अच्छा रहेगा ।
दिल्ली से झांसी ओर वहाँ से मानिकपुर लाइन पर हरपालपुर स्टेशन पडता है ।
आपका शुभ चिंतक
महिपालसिंह
(सरीला नरेश)
उनका निमंत्रण मिलने पर हमने सरीला जाना तय किया । हमारे जाने के कुछ दिन पहले सरीलानरेश हमें दिल्ली में मिले । फिर कार्यक्रम की उचित व्यवस्था करने वे दो-तीन दिन पहले सरीला गये । दिल्ली से हम झांसी होकर हरपालपुर स्टेशन पहूँचे । वहाँ उनके प्रतिनिधि ने हमारा सत्कार किया । उनकी कार में हम सरीला गये । सरीला का रास्ता नहर के कारण मनभावन लगा ।
राजप्रासाद में हमारे लिये निवास का अलायदा प्रबंध किया गया था । मैंने सरिलानरेश को इसके लिये आवश्यक सूचना दी थी ।
मसूरी में उन्होंने पूछा था: 'क्या आपके लिये हमारा भोजन ठीक रहेगा ? '
मैंने कहा, 'क्या आप शाकाहारी है ?'
'नहीं, मांसाहारी हूँ, मगर आपके लिये शाकाहारी खाना बन जायेगा ।'
मैंने पूछा, 'आपका रसोई कौन बनाता है ?'
'हमारा बावरची मुसलमान है, और बहुत अच्छी रसोई बनाता है ।'
'फिर तो हमारे लिये अलग व्यवस्था करनी पडेगी ।'
वादे के मुताबिक उन्होंने हमारे लिये अलग भोजन का प्रबंध किया था । राजप्रासाद के आँगन में सुशोभित मंडप लगाया गया था । वहाँ कुल मिलाकर सत्रह दिन श्री गीताजी पर मेरे प्रवचन हुए । सरीलानरेश अपने परिवार के साथ भारतीय पोशाक में सज्ज होकर हररोज प्रवचन सुनने आते थे । प्रवचन के अंतिम दिन, उनके पौत्र का मेरे द्वारा नामकरण किया गया ।
सरीला नगर साधारण और विकास की दृष्टि से पीछडा लगा । भारतीय संघ में विलीन होने से पहले सरीला का महत्व इतना नहीं था । फिर भी सरीलानरेश की नामना अच्छी थी तथा राजघरानों में उनका नाम आदर के साथ लिया जाता था । सरीलानरेश नम्र, उदार और परगजु इन्सान लगे । उन्हें देखकर लगा की भारत में अच्छे राजाओं की कमी नहीं है ।
सरीला से हम खजूराहो और चित्रकूट गये ।
बंबई में रत्नाकर सेनेटोरियम में हमारी भेंट महात्मा वेदबंधु से हुई । पूर्वसंस्कारों से उन्होंने वैवाहिक जीवन में प्रवेश किया था और वो बंबई के बाणगंगा इलाके में रहते थे । अपनी आयुर्वेद की अभिरुचि के कारण लोग उन्हें वैद्यजी के नाम से पहचानते थे । वैवाहिक जीवन में प्रवेश के बावजूद उनका आत्मा जाग्रत और साधनापरायण था, यह जानकर मुझे खुशी हुई । अपने पूर्वसंस्कारों के कारण किसीको वैवाहिक जीवन में प्रवेश करना पडता है, तो कोई अविवाहित रहता है । जो जैसे भी रहें, उसकी आत्मविकास की अभिरुचि बनी रहनी चाहिये । वेदबंधु इस कसौटी पर खरे उतरे थे ।