सन १९६७ में सत्संगप्रेमी बहन अमरकुमारी के निमंत्रण से हम कोलकता गये तब दक्षिणेश्वर जाने का संयोग अनायास उपस्थित हुआ । दक्षिणेश्वर के शांत, सुंदर और स्वर्गीय वायुमंडल में बैठकर हम भूतकालिन स्मृतिओं में खो गये । नवरात्री के दिन समीप थे । हमारी इच्छा थी की वहाँ के शांत और दिव्य वातावरण में रहकर नवरात्री की आराधना की जाय । इस हेतु से हमने वहाँ के आंतरराष्ट्रिय अतिथीगृह का निरीक्षण किया । इसका उदघाटन श्री मोरारजी देसाई द्वारा किया गया था । उसके प्रांगण में रामकृष्णदेव की मनोहर मूर्ति थी, मगर इसके अलावा हमे वहाँ कुछ खास अच्छा नहीं लगा । जहाँ देशदुनिया के लोग आते है, वहाँ स्वच्छ, सुंदर और अद्यतन अतिथीगृह होना चाहिये था । अतिथीगृह के मौजूदा हालात देखकर हमें निराशा हुई । हमें लगा की ट्रस्टीमंडल इसकी उपेक्षा कर रहा है । दक्षिणेश्वर के बुलंद घुम्मट तथा उसके विशाल चौगान की हालत देखकर भी हमें दुःख हुआ । हमें लगा की इसका नवसर्जन होना चाहिये । दक्षिणेश्वर के बाहर राणी रासमणिदेवी की प्रतिमा थी, वो मंदिर की दयनीय हालत से दुःखी लगी ।
मंदिर के पीछे गंगाजी का प्रवाह है । उसे देखकर हमें अपने लक्ष्य की ओर बढनेवाले निष्ठावान साधक की स्मृति होती है । गंगाजी का प्रवाह यानी साधक के हृदय का हर्ष और उल्लास, महेनतकश आदमी की प्रेरणा, कर्मवीर की दीक्षा, कवि की कविता और ज्ञानी का ज्ञान । गंगा का प्रवाह हमे संदेश देता है की हे मानव, तू पूर्णता की और कदम बढा । चाहे रात हो या दिन, धूप हो या छाँव, सुख हो या दुःख, तू चलता रहे । तेरा मार्ग आसान हो या मुसिबतों से भरा भरा, तू चलता रहे । तेरा मार्ग चाहे घने जंगल से गुजरे या शहर की भीडभाड से, तू चलता रहे । तेरे पास कोई हँसता-खिलखिलाता आये या रोता-बिलखता आये – तू चलता रहे । कोई तुझे फूल दें, तेरी आरती उतारें, तेरी स्तुति करें तो ज्यादा खुश मत हो । कोई तुझ पर पत्थर फेंकें, तेरा अपमान करें, निंदा करें, तो इससे दुःखी मत हो । ये संसार विविधताओं से भरा है, उसे केवल साक्षीभाव से देख । तू ना किसीके लिये दुआ कर, ना किसीको श्राप दे । तू राग, द्वेष, वैमनस्य से दूर रहे तथा शुद्ध प्रेम में प्रतिष्ठित होकर अपनी जीवनयात्रा करता चल ।
कोलकता से हम जगन्नाथपुरी और तारकेश्वर हो आये । कोलकता के सुप्रसिद्ध काली मंदिर में अब भी पशुओं का बलिदान दिया जाता है, यह जानकर हमें बहुत दुःख हुआ । आजादी के इतने साल बाद भी इस पाशवी प्रथा का अंत नहीं आया, ये आश्चर्यजनक है । देश में कहीं पर भी जीवहिंसा न हो, इसके लिये हमें कटिबद्ध होना चाहिये । बलि देने की प्रथा का फौरन अंत होना चाहिये ।
कोलकता में हम नेताजी सुभाषचंद्र बोझ का निवासस्थान देखने गये । सुभाषबाबु के भाईने हमें उनकी कुछ चिजें बतायी ।
मैंने पूछा: 'नेताजी जब यहाँ रहते थे, तब कुछ पढते थे ?'
उन्होंने उत्तर दिया, 'हाँ, नियमित रूप से वाचन करते थे ।'
'क्या पढते थे ?'
'उन्हें दो किताब अति प्रिय थी – एक तो स्वामी विवेकानंद के प्रवचन और दूसरी श्रीमद् भगवद् गीता ।'
'भगवद् गीता ?'
'हाँ । वो कहते थे के मुझे गीता से निष्काम कर्मयोग की, मातृभूमि के लिये कुछ करने की, मर मिटने की प्रेरणा मिलती है । उसे सार्थक करने के लिये मैं कुछ करने का सोच रहा हूँ ।'
उनके शब्द आश्चर्यकारक थे । भगवद् गीताने केवल सर्वसंगपरित्यागी विविक्त महापुरुषों को प्रेरणा नहीं दी, किन्तु बस्ती में रहनेवाले, राजकारण में डूबे हुए कर्मवीरो कों भी प्रेरणा दी है । भगवद् गीता ने नेताजी के मन पर जो प्रभाव छोडा था, इसकी माहिती हमें उनके भाई से मिली ।