प्रश्न – जिसकी कुंडलिनी जाग्रत हुई हो, उसको सांसारिक चीजवस्तुओं का मोह हो सकता है ?
उत्तर – कुंडलिनी जागृति एक वस्तु है और संसार की चीजवस्तुओं और विषयों का मोह अलग वस्तु है । जिस तरह आसन व प्राणायाम की प्रक्रिया है इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कुंडलिनी जागृति की प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया का प्रभाव शरीर पर सदा के लिए पडता है परन्तु मन पर उसका प्रभाव होता है ऐसा नहीं कह सकते । मन पर उसका असर हो सकता है या नहीं भी हो सकता । इसका आधार उसके अभ्यासी पर होता है । आप जिस सांसारिक मोह की बात कर रहे हैं, उसका मूल मनमें होता है । इसका मतलब यह है कि मन को बदलने में या मन की शुद्धि साधने में न आए तो यह मोह नहीं मिट सकता । क्रिया या प्रक्रिया एक या दूसरे रूप में आगे बढ़ने में सहायक अवश्य होगी किन्तु मोह की निवृत्ति के लिए मन को सुधारना पडेगा या उसकी उदात्तता की ओर ध्यान देना पडेगा और ज्ञान की सहायता लेनी पडेगी ।
प्रश्न – संसार की वस्तुओं का मोह संपूर्ण रूप से क्या मिट सकता है ?
उत्तर – जब सदबुद्धि का सूर्योदय होगा तब संसार या उसके पदार्थों के सत्य स्वरूप का विचार करने के लिए या उनकी असारता अथवा क्षणभंगुरता और अस्थायी रसवृत्ति को भलीभांति समझ लेने पर उसकी ओर उपरामता, उदासीनता या वैराग्य होगा । उस वैराग्य की सहायता से उसका मोह अपने आप कम हो जाएगा । यदि थोडी बहुत मोहवृत्ति शेष रहेगी वह भी परमात्मा के प्रति उत्कट प्रेम होने से और इसके परिणामस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार होने पर पूर्णतया शांत होगी । परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होने पर संसार का मोह स्वाभाविक रूप से ही मिट जाएगा ।
प्रश्न – इसके लिए और किसी दूसरे उपाय का आधार ले सकते हैं क्या ?
उत्तर – प्रार्थना का आधार ले सकते हैं । प्रार्थना में अत्यधिक शक्ति है परन्तु यह प्रार्थना होठों से नहीं परन्तु हृदय की गहराई में से निकलनी चाहिए । तभी वह अभिष्ट प्रभाव डाल सकेगी । ऐसी प्रार्थना से ईश्वर-कृपा हासिल करने में और अशुद्धियों का अन्त करने में सहायता मिलती है ।
प्रश्न – कुंडलिनी की जागृति के लिए योगसाधना में कौन कौन से साधन उपलब्ध है ?
उत्तर – शीर्षासन, सर्वांगासन, भस्त्रिका प्राणायाम तथा षण्मुखी मुद्रा – ये सब कुंडलिनी की जागृति में सहायक सिद्ध होते हैं । तदुपरांत निरंतर नामजप करने से भी उसकी जागृति हो सकती है । इन साधनों का अभ्यास प्रमाद का परित्याग करके नियमित रूप से करना चाहिए ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)