प्रश्न – साधक को अपनी साधना की शरूआत साकार साधना यानि किसी मंत्र, मूर्ति, रूप या अन्य प्रतीकों को नज़र के सामने रखकर, उसका आलंबन लेकर करनी चाहिए या उसका आधार लिए बिना ? इन दोनों में से कौन-सी पध्धति उत्तम अथवा तो अधिक अनुकूल कह सकते हैं ?
उत्तर – उसका निर्णय आपको करना है । आपकी रुचि, वृत्ति, योग्यता या आपकी फितऱत ध्यान में रखकर जो उचित लगे उस साधन की पसंदगी अपने आत्मविकास के हेतु से करनी चाहिए और उससे प्रेम और विश्वास के साथ लगे रहने की आवश्यकता है । ऐसी पसंदगी के लिए आप स्वतंत्र है । अगर आप उसकी पसंदगी न कर सके तो किसी अनुभवी पुरुष की सलाह ले सकते हैं । किसी भी प्रकार के प्रतीक का आधार लिए बिना निराकार साधना के पथ पर आगे बढ़ने का कार्य प्रारंभिक साधक के लिए मुश्किल हो जाएगा । उसके मन की स्थिरता व एकाग्रता आसानी से नहीं हो सकती इसलिए मानव का स्वभाव अथवा तो उसकी निर्बलता को ध्यान में रखकर प्रारंभ में साकार साधना का आधार लेना उचित है । अथवा तो किसी मंत्र या रूप में मन को जोड़ना ऐसी सिफारिश की गई है । अर्थात् दोनों प्रकार की साधना उपयोगी है । आपके लिए कौन सी साधना पध्धति अनुकूल है उसका निर्णय आपको कर लेना चाहिए ।
प्रश्न – क्या यह बात सच है कि साकार साधना करनेवाले को निराकार साधना में प्रवेश करना चाहिए ? ऐसे प्रवेश के बिना साधना का विकास अधूरा रह जाता है, ऐसी मान्यता है । इसके बारे में आपका क्या मत है ?
उत्तर – यह कथन संपूर्णतया सच नहीं है अथवा यह रुचिभेद पर आधारित है ।
प्रश्न – कैसे ?
उत्तर – ईश्वर के साकार दर्शन करने की उम्मीद से प्रेरित होकर किसीने अगर साकार साधना का सहारा लिया हो तो उसे उसी साधन के साथ सदा के लिए जुट जाना चाहिए । साधना का आधार लेकर ईश्वर-प्रेम पैदा करने से, ईश्वर के प्रति लगन लगाने से तथा व्याकुलता जगाने से ईश्वर-दर्शन मुमकिन होगा । उसे निराकार साधना में प्रवेशित होने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि ऐसे प्रवेश से वह संतुष्ट नहीं होगा । जिसे निर्विकार समाधि की इच्छा हो उसके लिए ही प्रथम साकार साधना और तत्पश्चात् निराकार साधना का विधान किया गया है, अन्य के लिए नहीं ।
- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वर-दर्शन’)