परमात्मदर्शी महापुरुषों के दर्शन-अनुग्रह का लाभ बडी मुश्किल से मिलता है । पुण्यपुंजवाले किसी असाधारण मनुष्य को ही ऐसा लाभ उपलब्ध होता है । उनमें जो अलौकिक शक्ति छिपी रहती है, वह गहन एवं अनोखी रीति से कार्य करती है, जिसे समझना आसान नहीं । समझदार आदमी भी इसमें गलत साबित हो जाते हैं और अधकचरे अभिप्राय देते हैं । ऐसे महापुरुषों को पहचानना और पहचानने के बाद उनमें श्रद्धाभक्ति को बनाये रखना और भी कठिन होता है । उनके बाह्य रूपरंग से उनकी लोकोत्तरता की परख करने में लोग ज्यादातर गलती कर बैठते है, किन्तु जो उनको परख लेते है, उनसे प्यार कर बैठते है । वे उनके न्यूनाधिक अनुग्रह से कृतकृत्य हो जाते हैं ।
बंबई के निकट व्रजेश्वरी के पास गणेशपुरी में ऐसे ही प्रातःस्मरणीय समर्थ महापुरुष निवास करते थे, जिनका नाम था महात्मा नित्यानंदजी । उनके संसर्ग में आनेवाले अधिकतर आदमीयों को उनकी योग्यता का पता नहीं चलता था । वे उन लोकेषणाप्रिय महात्माओं में नहीं थे जो यह चाहे कि लोग उन्हें जाने-पहचाने । लोगों पर सिक्का जमाने वे चमत्कारों का सहारा नहीं लेते । वे मितभाषी थे और जनसंपर्क से दूर ही रहते थे ।
उनके बाह्य दिखावे से तनिक भी प्रतीत नहीं होता कि वे उच्च कोटि के महात्मा थे । उनकी आँखे बडी तेजस्वी और लाक्षणिक थी । उन्हें देखकर सहज कहा जा सकता था कि उन्होंने अपनी आत्मा के रहस्यमय जलनिधि में गहरा गोता लगाकर आत्मानुभूति रूपी अनमोल मोती प्राप्त कर लिया है और वह सनातन शांति, जिनके लिए संसारी साधक आश लगाते हैं, परिश्रम करते हैं, तडपते हैं, हासिल कर ली है ।
महापुरुष के मूल्यांकन में उनकी आँखे व मुखाकृति का बडा महत्व होता है जिन्हें झाँककर हम उनका परिचय प्राप्त कर सकते है ।
नित्यानंदजी का लोगों के साथ बर्ताव बडा विचित्र था । कभी कभी तो वे दर्शनार्थियों को गालियाँ देते और पत्थर भी मारते । धन एवं दुन्यवी इच्छावाले और सट्टा खेलकर रातोरात धनवान बनने की लालसावाले लोग उनके पास आकर उनकी शांति में खलल पहुँचाते तो स्वामीजी उसके सिवा और करते भी क्या ? वे जो कुछ भी करते, उनका परिणाम प्रायः अच्छा ही आता ।
संसार में विभिन्न रुचि और प्रकृतिवाले लोग रहते हैं । केवल अपनी लालसा-पूर्ति के लिए सब लोग वहाँ नहीं जाते । आत्मविकास की कामनावाले लोग भी ऐसे समर्थ महापुरुष के दर्शन-सत्संग का लाभ लेने जाते है । ऐसे साधक भी कभी उनके पास आ जाते ।
ऐसे एक साधक की बात जानने योग्य है । वह साधक जवान था और उसे योगसाधना में गहरी दिलचस्पी थी । पिछले कुछ सालों से उसने अष्टांगयोग की साधना शुरू की थी । ध्यानयोग की साधना द्वारा समाधि का आनंद प्राप्त कर अंत में आत्मसाक्षात्कार करने की उसकी अभिप्सा थी । इसकी पूर्ति के लिए वह नियमित रूप से सच्ची लगन से अभ्यास करता था लेकिन उसमें सफल न हो सका था । बरसों के परिश्रम के बाद भी उसका मन शरीर में ही भटकता रहता । देहाध्यास से उपर उठकर अतिन्द्रिय अवस्था की अनुभूति न होने से वह चिंतातुर रहा करता था । उसने सोचा की अगर किसी सिद्धपुरुष का मिलाप हो और उनकी कृपा हो तो शायद उसकी मनोकामना पूर्ण हो सकती है । इन दिनों उस युवक को गणेशपुरी में रहनेवाले स्वामी नित्यानंदजी के पास जानेकी इच्छा हुई ।
मगर नित्यानंदजी तो किसीके साथ बोलते ही नहीं थे । बहुत सारे दर्शनार्थी दर्शन के लिए आते फिर भी वे तो उदासीन ही रहते । उस दिन बहुत समय बीत गया फिर भी वह युवक बैठा रहा । वह तो किसी भी तरह उनकी कृपा प्राप्त करना चाहता था और उसे आत्मविश्वास था ।
जैसे मूक एवं सच्चे हृदय की पुकार परमात्मा को पहुँचती है उसी तरह कृपा के सागर समान संतो तक नहीं पहुँचती ऐसा कौन कहता है ?
वह विरक्त महात्मा युवक के दिल की बात समझ गये । तुरन्त खडे हो गये और रोषपूर्वक बोले, ‘यहाँ क्यों आया ?’
युवक को लगा वे महात्मा कम-से-कम मेरे साथ बोले तो सही, फिर चाहे रोष में ही बाले हो । ऐसा कहा जाता है की ‘देवता और संतपुरुष का क्रोध भी वरदान और आशीर्वाद समान होता है ।’ अतः नित्यानंदजी का क्रोध मेरे लिए मंगलमय साबित होगा । ऐसा मानकर वह टस से मस न हुआ, वहीं खडा रहा । वह यह जानता था कि नित्यानंदजी अंतर्यामी है इसलिए उन्हें कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है । अगर उनमें ऐसी (मन के विचार जान लेने की) शक्ति न हो तो फिर उनसे अपनी बात का निरुपण करने से क्या लाभ ? लेकिन युवक की धारणा व श्रद्धा फलवती हुई । नित्यानंदजी आगबबूला हो गये । उस युवक का हाथ पकडते हुए उन्होंने कहा, ‘यहाँ क्यों आया ? यहाँ दृष्टि लगा, दृष्टि लगा, प्रकाश, प्रकाश, आनंद, आनंद ! भाग, भाग यहाँ से ।’ और उन्होंने धक्का मारा ।
उपदेश या संदेश देने की यह कैसी अजब रीति ? परंतु उस युवक को कोई शंका पैदा न हुई । उसमें उसे स्वामीजी के आशीर्वाद का दर्शन हुआ । उसको यह पद्धति पसंद आई । ठीक दूसरे ही दिन, प्रतिदिन की तरह ध्यान में बैठा तो उसने रोज से भिन्न अवस्था का अनुभव किया । उसका मन एकाग्र हो गया और आज्ञाचक्र में प्रकाश का दर्शन हुआ । कुछ ही वक्त में उसे समाधि का अनुभव हुआ । तुर्यावस्था के बीच आनेवाला बंध द्वार खुल गया । इस प्रसंग से आपको पता चलेगा कि महापुरुष का दर्शन, स्पर्शन व संभाषण उस युवक के लिए कितना श्रेयस्कर सिद्ध हुआ !
नित्यानंदजीने अज्ञात रूप से ऐसे कई साधकों को सहायता की होगी यह कौन कह सकेगा ? उनका बाह्य दिखावा नितांत साधारण होते हुए भी उनकी आत्मशक्ति असाधारण थी इसमें क्या संदेह ? यह घटना इसी बात की परिचायक है । ऐसे प्रातःस्मरणीय महापुरुष को हम मन ही मन वंदन करें यह सर्वथा उचित है ।
जो लोग उनके पास धन-वैभव, संतानप्राप्ति, नौकरी-धंधा और रोगनिवारण जैसी लौकिक कामनाओं से प्रेरित होकर गये होंगे उन्हें मानवजीवन में नयी चेतना जगानेवाली उनकी अजीब शक्ति का खयाल भी कैसे आयेगा ? अगर वे उस शक्ति को समझते तो उसके द्वारा अपनी आत्मशक्ति जगाकर आत्मकल्याण कर सकते ।
मनुष्यजीवन की यह सबसे बडी करुणता है कि हम महापुरुषों के पास केवल दुन्वयी स्वार्थ के लिए जाते हैं, आत्मा के मंगल या कल्याण के लिए नहीं जाते । हमारी ऐसी वृति या प्रवृत्ति को महात्मा यदि परिपोषित करें, प्रोत्साहित करें तब तो करुणता और भी अधिक बढ़ जाती है । ज्ञानी कवि अखा के शब्दो में कहें तो ऐसे महापुरुष सबकुछ भले ही हरे, पर धोखा नहीं हरते ।
नित्यानंदजी ने जिस शक्ति का प्रदर्शन किया उसका उल्लेख योग के ग्रंथो में आता है । तदनुसार महापुरुष अपने दर्शन, स्पर्शन, संभाषण और संकल्प के द्वारा दूसरों की सुषुप्त शक्ति को जागृत कर सकते है और जागी हुई शक्ति को आगे बढाते हैं ।
श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन की यह बात बडी प्रसिद्ध है कि गुरु तोतापुरी ने उनकी दो भ्रमरों के बीच काँच का टूकडा दबाकर उन्हें समाधि अवस्था की अनुभूति कराई थी । दो भ्रमर के मध्य के प्रदेश में नजर स्थिर करने का संदेश भी योग में बडा महत्वपूर्ण है । इस बारे में एक और बात भी विशेष याद रखने योग्य है कि महापुरुष और योगी-महात्मा हमारे जीवन के विकास में हमें सहायता करेंगे, मार्ग दिखायेंगे या प्रेरणा प्रदान करेंगे किन्तु इसके लिए आवश्यक भूमिका हमें तैयार करनी पडेगी, साधना तो हमें करनी ही पडेगी । सच्ची लगन और उत्साह से साधना करनेवाला ही लंबे समय के बाद कोई ठोस चीज प्राप्त कर सकेगा । अतः साधको को किसी दूसरे पर संपूर्ण आधार रखना नहीं चाहिए । प्रथम आत्मकृपा प्राप्त करने से बाद में महापुरुष की कृपा, गुरुकृपा एवं ईश्वरकृपा आखिरकार मिल ही जाएगी ।
- श्री योगेश्वरजी