उत्तरप्रदेश में गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में बाबा गोरखनाथ की मनमोहन प्रतिमा है । इसका दर्शन करते हुए मछंदरनाथ, गोरखनाथ, चर्पटनाथ, गहिनीनाथ जैसे महापुरुषों के जीवन के प्रेरणास्पद प्रसंगो का इतिहास नजरों के सामने खडा हो जाता है । नाथ संप्रदाय का विचार करते वक्त योगसाधना का निम्न लिखित सूत्र बरबस याद आ जाता है :
‘योगाग्नि से प्रदीप्त देहधारी योगी को मृत्यु का भय नहीं रहता, वृद्धावस्था उसे नहीं सताती, रोग नहीं होता । ऐसा योगी मृत्युंजय एवं अखंड यौवनवाला हो जाता है ।’
नाथ संप्रदाय के योगी इन्द्रिय व मन पर काबू पाकर परमात्मा का साक्षात्कार करके परमशांति या मुक्ति प्राप्त करने में तो मानते ही थे, साथ ही वे अपनी सूक्ष्म व स्थूल प्रकृति को परिवर्तित कर उसे दिव्यातिदिव्य बनाने में भी रुचि रखते थे । ऐसे द्विविध रस के परिणाम स्वरूप होनेवाली निश्चित साधना से मछंदर व गोरखनाथ जैसे महायोगी आत्मविकास के उच्चतम शिखर पर आसीन होकर नर से नारायण बन गये थे । इस साधना में आसन, प्राणायम, षट् क्रिया एवं खेचरी मुद्रा समान अन्य मुद्राओं को विशेष महत्व दिया जाता था ।
नाथ संप्रदाय में आज पहले जैसे समर्थ पुरुष शायद ही देखने को मिलते हैं किन्तु इस संप्रदाय के सच्चे प्रतिनिधि जैसे एक आदर्श पुरुष गत सदी में हो गये । वे थे गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर के महंत गंभीरनाथजी । एकांत व शांत स्थानों में रहकर गुरुगम्य अनेकों साधनाओं का आश्रय लेकर वे सिद्धपुरुष बने । जीवन के उत्तरार्ध में वे योगीपुरुष गोरखनाथ मंदिर में रहते । अनेक भक्त, जिज्ञासु और दर्शनार्थी उनके सत्संग का लाभ लेते । इनके जीवन की एक सुंदर घटना यहाँ प्रस्तुत करना अनुचित नहीं होगा ।
गोरखपुर के ही एक श्रीमंत भक्त ने एक दिन बाबा गंभीरनाथजी को वंदन करते हुए कहा, ‘बाबा, मेरे युवान पुत्र की बिमारी की चिंता से मेरा मन अस्वस्थ है । इंग्लेंड में रहनेवाले उस पुत्र की बिमारी का खत बहुत दिन पहले मिला था । तब वह बहुत बिमार था । अभी उसका कोई समाचार नहीं है । योगीपुरुष अपनी दुरदर्शन व दूरश्रवण की शक्ति से सब बात जान सकते हैं ऐसा हमारा विश्वास है । आप कृपया मेरे पुत्र संबंधी कुछ जानकारी दें ताकि मुझे शांति मिले ।’
योगी गंभीरनाथजी सिद्धि से प्राप्त चमत्कारों के जाहिर प्रदर्शन में नहीं मानते थे फिर भी भक्त की चिंता और दुःख देखकर वे पिघल गये । भक्त को थोडी देर बैठने के लिए कहकर अपने साधना-खंड में जाकर पद्मासन लगाकर बैठ गये । थोडी देर बाद बाहर आकर उससे कहा, ‘आपके पुत्र की बिमारी दूर हो गई है और वह स्टीमर से भारत लौट रहा है । कुछ ही दिनों में आपको वह मिलेगा ।’
योगी की शब्दों से उस भक्त का मन शांत हुआ, उसे संतोष की अनुभूति हुई । एकाध सप्ताह में उसका पुत्र घर आ गया । उसे भला-चंगा देखकर उस धनिक भक्त को बाबा गंभीरनाथजी की अदभूत शक्ति का परिचय मिला और उनके प्रति आदर की भावना पैदा हुई ।
दूसरे ही दिन, बाबा के दर्शन को जाते वक्त पुत्र को साथ आने के लिए कहा मगर वह आने को तैयार न था । फिर भी पिता के अति आग्रह के कारण साथ चलने को तैयार हुआ । गोरखनाथ के मंदिर में गंभीरनाथ को देखकर वह दंग रह गया । उसने सस्नेह वंदन करते हुए पिताजी से कहा, ‘इन महात्मा को मैंने देखा है ।’
यह सुन पिता अचरज में पड गये, बोले ‘तुमने उन्हें देखा कैसे ? तुम तो पहली दफा यहाँ आ रहे हो !’
‘सप्ताह पूर्व जब मैं स्टीमर से भारत आ रहा था तब एक दिन शाम को हम मिले थे । उनका स्वरूप ऐसा ही शांत व तेजस्वी था । मेरे साथ बातचीत करके वे कहाँ गये यह पता न चला।’
पुत्र की बात से उस भक्त को सप्ताह पूर्व की घटना याद आ गयी । उसे अब पक्का विश्वास हो गया कि स्वामीजी ने उस दिन उस कमरे में दाखिल होकर इस लडके की मुलाकात अवश्य ली होगी ।
‘आश्चर्य की कोई बात नहीं,’ योगीजी ने खुलासा पेश किया ‘आपके बेटे ने सच कहा है । मैं उसे स्टीमर पे मिला था और उसकी बिमारी का हाल भी पूछा था ।’ बाप-बेटे की जिज्ञासा तृप्त करने के लिए गंभीरानंदजी ने अधिक स्पष्टता करते हुए कहा, ‘योग की कुछेक क्रियाएँ-साधनाएँ ऐसी होती हैं जिनके साधक अपने स्थूल व सुक्ष्म शरीर पर संपूर्ण काबू पा सकता है और सूक्ष्म देह या स्थूल शरीर द्वारा दूर-सुदूर के प्रदेश में जा सकता है । वहाँ की वस्तु या व्यक्ति के बारे में जानकारी हासिल कर सकता है ।’
अपनी ईच्छानुसार गति करने की वह विद्या नाथ संप्रदाय के योगियों के पास थी । उस विद्या का उपयोग करके वे हैरत में डालनेवाले कार्य कर दिखाते । आजकी स्थिति करुण होने पर भी भारत अभी ऐसे समर्थ संतो से रहित नहीं है । अब भी ऐसे समर्थ कुछ जगहों में बसते है ।
बाबा गंभीरानंदजी की मुलाकात के बाद वह धनिक भक्त का पुत्र भी उनका शिष्य हो गया । वे महापुरुष चमत्कार, विशेष शक्ति या सिद्धि को जीवन-ध्येय नहीं मानते थे । चमत्कार के सामुहिक प्रदर्शन में उन्हें दिलचस्पी न थी । चमत्कार के चक्कर में पड जीवन के मुलभूत हेतु को भूल न जाने का उपदेश भी वे देते थे परंतु श्रद्धाभक्ति संपन्न शिष्यों और भक्तों को सहायक बनने के पुनित प्रसंग उनके जीवन में सहज रूप से उपस्थित हुए थे । केवल गोरखपुर की ही नहीं किन्तु भारत की भूमि को पावन करनेवाले ऐसे महायोगी को मेरे सदैव वंदन हो !
- श्री योगेश्वरजी