दक्षिणेश्वर का नाम किसने नहीं सुना ?
भारत में ही नहीं, भारत के बाहर विदेशों में भी यह नाम प्रसिद्ध है । विदेशी भी उसके दर्शन को आते है । इसके साथ केवल भारत की ही नहीं अपितु विश्व की आध्यात्मिक विभूति – श्री रामकृष्ण परमहंसदेव का नाम जुडा है । उन्होंने वहीं रहकर अपने जीवन की साधना व अनमोल लीला की थी ।
कलकत्ता के गंगातट समीप शांत व एकांत स्थान में उनकी यादों का दीपक आज भी जलता है । वहाँ के पवित्र वातावरण में उनकी दीर्घकालीन तपश्चर्या एवं साधना के परमाणु आज भी विचरित होकर प्रेरणा प्रदान कर रहें हो ऐसा लगता है । इससे दर्शनार्थीयों को गहरी शांति का अनुभव होता है । किसी नयी दिव्य दुनिया में कदम रक्खा हो ऐसी अनुभूति होती है ।
सन १९४५ में प्रथम बार मैंने उस सुंदर स्थल की मुलाकात ली और कुछ दिनों वहाँ रहा । उस वक्त मेरा हृदय ईश्वरभक्ति एवं रामकृष्ण परमहंसदेव के प्रति प्रेम से परिपूर्ण था । मन में ऐसी आश थी की उनका दर्शन हो और उनकी ओर से एक नया अनुभव उपलब्ध हो ।
उन दिनों मेरा दिनरात का समय ध्यान व प्रार्थना में ही बीतता था । मेरे अंतर में शांति के लिए जो तडपन थी उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता ।
उन दिनों उस शांत, एकांत व रमणीय स्थान में रामकृष्णदेव के जीवनप्रसंग मेरे दृष्टिपट पर आने लगे । एक दिन तो एक अजीब अनुभव हुआ । दक्षिणेश्वर के पंचवटी स्थान में मैं जहाँ बैठता था वहाँ मुझे एक अजीब महात्मा का दर्शन हुआ । उन्होंने लाल वस्त्र पहना था और वे बिना कुछ बोले चक्कर लगाते थे और बीच बीच में कुछ देर मेरे पास बैठे रहते थे । उनके नैनों से आँसू की धारा बहती थी ।
ईश्वरीय प्रेम में आकंठ निमग्न वह महापुरुष सचमुच बडे दर्शनीय व अदभुत थे । एक बार मन में विचार आ गया – ईश्वरदर्शन का रामबाण इलाज क्या है, यह उनसे पूछ लूँ । वे महापुरुष मेरे विचार को मानो जान गये । उन्होंने मेरे समीप आकर अपनी अश्रुचूती हुई आँखो की ओर संकेत किया । इस तरह उन्होंने सूचना दी कि ऐसा प्रेम हो, एसा प्रखर प्रेम हो, तभी ईश्वरदर्शन हो सकता है ।
मुझे इस सूचन से संतोष हुआ । उनकी आँखो से अजस्र आँसू निकलते और वे माँ माँ पुकारते रहते ।
वे कौन होंगे ? कोई भक्त होंगे ? सर्व सिद्धिप्राप्त महापुरुष होंगे ? आत्मभाव में आसीन योगी होंगे या रामकृष्ण परमहंसदेव स्वयं होंगे ? वे कुछ भी हों पर प्रेरणादायक थे इसमें कोई संदेह नहीं ।
तीनचार दिनों के बाद वे अप्रत्याशित ढंग से अदृश्य हो गये । वे कहाँ चले गये इसका कुछ पता नहीं चला । उनकी आकृति स्मृतिपट पर अंकित हो गई । बरसों बीत गये किंतु उनकी छाप ऐसी ही अमिट है और रहेगी ।
अमृत बरसानेवाली, अलौकिक, प्रेमभरी वह आकृति मानो रामकृष्णदेव के शब्दों में संदेश दे रही है: ‘संसार में जब किसी स्वजन की मृत्यु होती है तो उसके शोक में मानव खून के आँसू रोता है । प्रियजन के वियोग से या धंधे में घाटा होने से अथवा ऐसी ही आपत्ति आने से फूट-फूटकर रोने लगता है किन्तु ईश्वर के लिए कौन रोता है, अरे एक भी आँसू कौन बहाता है ? उनके प्रति पवित्र व सच्चा स्नेह किसे है ? फिर ईश्वर कैसे मिलेगा ?’
गीता में ईश्वरप्राप्ति के विभिन्न मार्गो की चर्चा करते हुए प्रकाश डाला गया है कि, ‘हे अर्जुन, समस्त विश्व जिनके आश्रय में रहता है और जो इस सृष्टि में व्याप्त है, वे परमात्मा भक्ति द्वारा मिल सकते हैं ।’
यह श्लोक भी उन महापुरुष की चर्चा करते वक्त याद आता है । दक्षिणेश्वर के उन महापुरुष को मेरे सप्रेम वंदन, बार-बार वंदन । वे महापुरुष अद्वितीय भक्ति एवं प्रखर प्रेम के मूर्तिमान स्वरूप जैसे थे । ऐसे महापुरुषों को मुख खोलने की जरूरत नहीं होती । खास बात तो यह होती है कि जो हेतु शास्त्राध्ययन और प्रवचनों से नहीं सिद्ध होता, वह उनके दर्शन मात्र से सिद्ध हो जाता है । उनकी वाणी नहीं अपितु आचरण बोलता है । ऐसा महापुरुष जहाँ भी और जिस रूपरंग में रहते हों उस देश और समग्र विश्व के लिए निधि के बराबर है । कोई भी प्रजा ऐसे सिद्ध-तपस्वी महापुरुषों के लिए गौरव ले सकती है । आँख खुली हो तो उनसे प्रेरणा प्राप्त कर आगे बढती है ।
भारत की पुण्यभूमि में आज भी ऐसे अज्ञात ईश्वरप्रेमी महापुरुष कहाँ और कितने होंगे यह कौन कह सकेगा ? लेकिन वह है और इसीसे यह देश खुशनसीब है ।
- श्री योगेश्वरजी