गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में रघुकुल के बारे में लिखा है,
‘रघुकुल रीति सदा चली आई,
प्राण जाय अरु वचन न जाई ।’
रघुकुल में जन्मे हुए महापुरुषों की विशेषता एवं सत्यप्रियता इस पंक्ति में मुखरित है । यह विधान अन्य महापुरुषों पर भी लागु हो सकता है । अत्यधिक सहन करना पडे और सबकुछ का त्याग करना पडे फिर भी वे अपने वचन निभाते है । प्राण जाय फिर भी वचन का त्याग नहीं करते । यद्यपि आज के जमाने में वैसे पुरुष विरल ही होते हैं फिर भी उनका नितांत अभाव नहीं हैं । इतना ही नहीं, ऐसे पुरुषों की संख्या इस युग में बडी है जो बोलते कुछ हैं और करते कुछ ओर हैं । वे मानते हैं की वचन और प्रतिज्ञा, भंग करने के लिए ही हैं ।
ऐसे एक सज्जन की बात मुझे इस बारे में याद आती है । ऋषिकेश में एक व्यापारी की बडी पीढी चलती थी । वे दाने का व्यापार करते । उस वक्त सन १९४९ में ऋषिकेश से बदरीनाथ जाने के मार्ग में, देवप्रयाग में मेरा निवास था । वहाँ वे व्यापारी अक्सर आते थे । एक बार एक भाई के साथ मुझे उनके घर ऋषिकेश में रुकना पडा ।
रात के भोजन के बाद जब सत्संग खत्म हुआ तो व्यापारी ने मुझे पूछा, ‘आपको हररोज कितना दूध चाहिए ?’
‘पौना शेर ।’ मैंने उनको पूछा, ‘मगर आपको क्यों पूछना पडा ?’
‘मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ । कल आप देवप्रयाग जाएँगें तो आपको नियमित रूप से पौना शेर दूध मिले ऐसा प्रबंध हो जायेगा । उसके पैसे मैं दूँगा ।’
‘मगर आपको यह सब करने की कोई जरूरत नहीं । मैं आपको कष्ट देना नहीं चाहता ।’ मैंने कहा ।
‘इसमें कष्ट कैसा, यह तो मेरा फर्ज है ।’
‘लेकिन इश्वरकृपा से मुझे कोई तकलीफ नहीं है ।’
‘हाँ, जिसके चरणों में आपने समस्त जीवन अर्पित किया है, वही सम्हालेगा न ? किन्तु कृपया मुझे सेवा का मौका दें ।’ उन्हों ने हाथ जोडे ।
मैंने उनकी बात का स्वीकार किया तब वे बोले, ‘मेरी एक और प्रार्थना है । आप आवश्यक अनाज देवप्रयाग की दुकान से मेरे नाम पर लेते रहिए, कम-से-कम दिवाली तक । आपको मेरी प्रार्थना स्वीकृत करनी पडेगी ।’
‘अब आप कुछ ज्यादा माँग कर रहे हैं ।’
तब वे हँसकर बोले, ‘इसमें अतिरिक्त कुछ नहीं है । भक्त के नाते मैं अपना फर्ज समझकर ही कहता हूँ । संकोच न करो । आपको मेरी प्रार्थना स्वीकार करनी ही पडेगी ।’
मजबूर होकर मैंने उनकी माँग स्वीकृत की । उनके मुख पर खुशी लहरा गई । उन्होंने मेरा शुक्रिया माना । दूसरे ही दिन मैं देवप्रयाग गया और उस व्यापारी के कथनानुसार दूध एवं अन्य सामग्रीयाँ लेने लगा ।
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इस बात को हुए करीब तीन महिने बीत गए पर वह व्यापारी सज्जन दिखाई ही नहीं दिये । हाँ, दो-तीन बार देवप्रयाग आ गये मगर उनसे मुलाकात न हुई ।
अब तो वह दूधवाला और दुकानदार भी मेरे पास पैसे माँगने लगे । अंत में मजबूर होकर मैंने पंडे के साथ उस व्यापारी को सूचना भेजी । पंडेने ऋषिकेश जाकर सब बातें कही । उस व्यापारी ने मुँह मोडकर कहा, ‘मैंने किसी महात्मा को मेरी ओर से दूध या अनाज लेने को नहीं कहा । मैं ऐसा क्यों कहूँगा ? वह झूठ बोल रहे हैं ।’
पंडाजी ने उत्तर दिया, ‘वे झूठ बोले ऐसे तो नहीं है । मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ । वे क्यों झूठ बोलेंगे ? झूठ तो आप बोलते हैं । वचन देकर मुकर जाते हैं ?’
व्यापारी ने साफ-साफ इन्कार कर दिया, ‘मैंने ऐसा कोई वचन नहीं दिया । ऐसी कोई बात मुझसे नहीं हुई । मैं ईश्वर की कसम खाके कहता हूँ की मैंने कुछ नहीं कहा ।’
इस पर पंडाजी ने साफ साफ कह दिया, ‘क्यों झूठी कसमें खाते हो ? पैसा नहीं देना चाहते हो तो इन्कार कर दो । झूठ क्यों बोलते हो ?’
उसे अच्छी तरह से उत्तर देकर पंडाजी मेरे पास लौटे । सब बातें सुनकर मुझे सदमा पहुँचा । मनुष्य इतनी हद तक झूठ बोल सकता है इसकी मुझे कल्पना नहीं थी । मेरे जीवन का यह अजीब अनुभव था । कुछ मुश्किलों के बाद अनाज व दूध के सब पैसे दे दिये गये ।
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इस घटना के डेढ महीने बाद मैं जब ऋषिकेश गया तो पता चला कि उस वचन देकर मुकर जानेवाले व्यापारी सज्जन की हालत बुरी हो गई थी । साझेदार ने धोखा दिया अतएव उसे धंधे में भारी घाटा हुआ । दुकानें बंद हो गई । यहाँ तक की गुजारा करना मुश्किल हो गया । कुदरत ने उन्हें कर्म का बदला दिया । कुदरत का कोप उन पर उतरा हो इस तरह मानों वे पश्चाताप की आग में जल रहे थे ।
उनकी इस दुर्दशा पर मुझे तरस आई, सहानुभूति हुई । आते-जाते जब जब वे मिलते तो उनके मुख पर शर्म व संकोच की लकीर खींच जाती मगर अतीत कालीन घटना जान मैं कुछ नहीं बोला ।
एक दिन वे मेरे पास आए और रोने लगे । मैंने दिलासा दिया । वे बोले, ‘मुझे आपके आशीर्वाद चाहिए । मेरा दुःख तब तक नहीं टलेगा ।’
‘मेरे आशीर्वाद तो आप पर है ही पर सत्कर्म कर प्रभु के आशीर्वाद हासिल करो ।’
‘मैंने आपको बहुत दुःखी किया । मुझे ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए था ... ।’ वे ज्यादा न बोल सके । उनकी आँखो में से आँसू टपक पडे ।
‘जाओ, सुखी रहो पर कर्मफल से मनुष्य को कोई बचा नहीं सकता इसलिए शुभ कर्म करो।’
और वे चले गये । दो साल बाद हरिद्वार के बाजार में वह सज्जन फिर मिले । मैंने देखा कि उन्होंने घृत(घी) की छोटी-सी दुकान की थी और उनकी हालत अच्छी थी । आज भी वे हरिद्वार में हैं ।
कर्म का फल अवश्य मिलता है । जल्दी या देरी से - इस में अंतर हो सकता है, मगर मिलता ही है यह निर्विवाद है । किसी को कर्मफल इसी जन्म में, जल्दी मिल जाता है तो किसी और को लंबे अरसे के बाद । उस व्यापारी सज्जन को अपने कर्मों का फल जल्दी मिल गया । मनुष्य यदि सतर्क रहकर, आँख खोलकर चले तो उसे ऐसे कई किस्से सुनने व देखने मिलेंगे और इनसे जीवन-सुधार के लिए आवश्यक बल वह प्राप्त कर सकता है ।
- श्री योगेश्वरजी