भगवान कृष्ण, श्रीरामचंद्रजी, शंकराचार्य, व्यास, शंकर, बुद्ध, महावीर, ईसामसीह इत्यादि कई महापुरुष अपने स्थूल शरीर के त्याग के बाद अधिक व्यापक, विराट एवं प्रभावी रूप से कार्य करते नजर आते है । इनमें से कुछेक अपने जीवन-कार्य, सदुपदेश या साहित्य द्वारा व्यक्ति या समष्टि को प्रभावित करते हैं तो कुछेक अपने भक्तों, प्रसंशको व शरणागतों को प्रेरणा प्रदान करके, कभी कभी उनको दर्शन देकर या पथप्रदर्शन देकर उनके जीवन में परिवर्तन उपस्थित कर देते है । अजीब होती है उनकी करुणा और अमूल्य होता है उनका अनुग्रह ।
ऐसे प्रातःस्मरणीय महापुरुषो में शिरडी के संत श्री सांईबाबा का स्थान प्रथम पंक्ति में आता है । बाबा ने १९१८ में समाधि ली परंतु उनकी शक्ति उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य करती गई, जिसका अनुभव अनेकों स्त्रीपुरुषों को हुआ और हो रहा है । स्थूल देहत्याग के बाद उनकी शक्ति अधिक सक्रिय रूप से कार्य कर रही है, इसका अनुभव मुझे भी हुआ ।
मेरे हिमालय-निवास दरम्यान सांईबाबा ने अपनी अहेतुकी कृपा से मुझे दर्शन दिये । तत्पश्चात उन्होंने अनेकों बार विविध रूप से दर्शन देकर मेरी सहायता की जिससे मैं उनकी ओर आकर्षित हुआ । मैंने उनके समाधिस्थान की प्रत्यक्ष मुलाकात लेनी चाहि और तदनुसार चार-पाँच बार मुलाकात भी ली । तकरीबन पाँच दफा शिरडी की मुलाकात लेने के बाद मेरे मन में एक खयाल आया कि मैं सांईबाबा की सूचना या इच्छा से हर बार शिरडी जाता हूँ पर वे मेरा स्वागत कभी नहीं करते । वे तो शांति व स्थिरता से अपनी जगह पर बैठे ही रहते हैं । क्या उन्हें स्वागत नहीं करना चाहिए ? हाँलाकि हम अपने सत्कार की इच्छा से शिरडी नहीं जाते, ऐसे जाना भी नहीं चाहिए, फिर भी शिरडी में हर बार हमें उतारे की व्यवस्था करनी पडे, यह क्या ठीक है ?
हमारे शिरडी प्रवेशते ही वे किसी भी रुप में आकर हमारे ठहरने का प्रबंध करे तो कितना अच्छा । हम जब इतने प्रेम से प्रेरित हो वहाँ जाते हैं तो उन्हें भी अपना धर्म याद कर कुछ करना चाहिए । ऐसी ऐसी बातें करते हुए हम बंबई से शिरडी पहुँचे । वह दिन गुरुवार (बृहस्पतिबार) का था अतएव वहाँ दर्शनार्थियों की बडी भीड थी । खचाखच भरी हुई मोटर-कारें लोगों को लाती थी । जहाँ देखो वहाँ जनसमुदाय नजर आता था । ऐसे में रहने की जगह ढूँढना बडा मुश्किल था लेकिन सांईबाबा की इच्छा अलग ही थी ।
जैसे ही हम मोटर से उतरकर कार्यालय के मकान की ओर गये, जनसमुदाय में से एक किसान-सा आदमी हमारे पास आया और मुझे पूछने लगा, ‘आप यहाँ रहना चाहते है ?’
मैंने कहा, ‘हाँ, रहना है ।’
‘आपको रहने की जगह चाहिए ? शिरडी के सुंदर स्थान में मैं आपका स्वागत करता हूँ । आज भीड ज्यादा है इसलिए आपको जगह मिलना मुश्किल है, लेकिन मेरे पास अच्छी जगह है, एक अलग कमरा है ।’
‘तुम्हारा मकान कहाँ है ?’
‘समाधि मंदिर के करीब ।’
‘मगर इतने सारे लोगों की भीड में किसी और के पास जाने के बजाय तुम यहाँ कैसे चले आये ?’
‘मुझे बाबा ने प्रेरणा की है ।’
‘प्रेरणा ?’
‘हाँ, आपको देख मुझे निमंत्रण देने का मन हुआ । उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है ।’
मुझे आश्चर्य और आनंद हुआ । मेरे कहने से मेरे साथ आयें सज्जन उस आदमी का मकान देख आए । उन्होंने ठिकाना अच्छा है ऐसा कहा तब हम सब उनके यहाँ गये ।
मकान समाधिमंदिर के नजदीक और नितांत स्वच्छ व सुंदर था । हमें बहुत पसंद आया । मेरे साथ आनेवाले भाईयों की श्रद्धाभक्ति इस घटना से बहुत ही बढ गई ।
उन भाईओं ने कहा, ‘शिरडी के संतपुरुष ने हमारा स्वागत किया और वह भी ऐन मौके पर, जब उसकी बडी आवश्यकता थी उस वक्त ।’
मैंने कहा, ‘बिल्कुल सच है । उन शक्तिशाली समर्थ संतपुरुष ने इस तरह अपना प्रेम व अनुग्रह दिखाया ।’
मैले वस्त्रधारी, पगडीधारी, साँवरे शरीरवाले उस किसान-से यजमान को मैं आज तक नहीं भूल सका और कभी भी भूल नहीं सकूँगा ।
- श्री योगेश्वरजी