वेदांतकेसरी स्वामी विवेकानंद महान ज्ञानी, कर्मयोगी एवं मानवताप्रेमी तो थे ही, उनके दिल में देश के लिए और दुनिया के छोटे-बडे पीडित व बंधनग्रस्त जीवात्माओं के लिए हमदर्दी थी, यह भी सच है । किन्तु उनके जीवन का एक ओर भी पहलू था और वह था उनका अदभुत आत्मबल । इसके मूल में स्वामी रामकृष्ण परमहंस की कृपा व अपनी गहन साधना थी, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है।
उनके इस अदभुत आत्मबल का अथवा उनकी असाधारण शक्ति का परिचय प्रदान करनेवाला प्रसंग यहाँ लिख रहा हूँ, जिससे उन महापुरुष के प्रति हमें आदर पैदा होगा । इसके अतिरिक्त विवेकानंद के पुनर्मुल्यांकन की नयी दृष्टि उपलब्ध होगी ।
यह घटना किसी मामूली आदमीने नहीं लिखी, परंतु परमहंस स्वामी योगानंद ने लिखी है, जो विवेकानंद के अनन्तर लंबे समय के बाद अमरिका गये थे और दीर्घ समय तक वहाँ रहे थे । इसका जीक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘एक योगी की आत्मकथा’ के ‘मैं पश्चिम में वापस लौटता हूँ’ प्रकरण अंतर्गत किया है ।
भारत की मुलाकात के बाद जब योगानंदजी अमरिका वापस लौटे तब वहाँ के भक्तों या शिष्यों के लिए कुछ सौगातें लेतें गये ।
उन्होंने मिस्टर डिकीन्स को चांदी का एक प्याला अर्पण किया । उसे देख डिकीन्स ने आनंदोदगार निकाले, ‘आह, इस चांदी के प्याले की मैं पिछले तेंतालीस साल से प्रतीक्षा कर रहा था ।’
योगानंदजी ने पूछा, ‘कैसे ?’
उन्होंने उत्तर दिया, ‘बात बहुत लंबी है और आज पर्यंत दिल में छुपा रक्खी थी । जब मेरी उम्र पाँच साल की थी तब मेरे बडे भाई ने मुझे खेल ही खेल में पंद्रह फीट पानी में धक्का दिया । मैं जब डूबने की तैयारी में था तब मुझे विविध रंगयुक्त प्रकाश दिखाई दिया और उसके बीच शांत प्रसन्न नेत्रोंयुक्त आकृति का दर्शन हुआ । फिर तो मेरे भाई व अन्य दोस्तों की सहायता से मैं बच गया ।’
‘तदनन्तर जब मेरी उम्र सत्रह साल की हुई तब मैं मेरी माता के साथ शिकागो गया – सन १८९३ में । वहाँ सर्वधर्म परिषद चलती थी । एक दिन माता के साथ मुख्य रास्ते से गुजरते हुए मैंने दूसरी बार वह प्रकाश का दर्शन किया । थोडी दूर एक मनुष्य देखा जिसको मैंने बरसों पहले सपने में देखा था । वे सभाखंड की ओर चले और अंदर प्रवेशित हुए ।’
मैंने अपनी माता से कहा, ‘माँ, पानी में डूबते वक्त इसी महापुरुष ने मुझे दर्शन दिया था ।’
हम भी सभाखंड में प्रवेशित हुए । वे मंच पर बैठे थे । हमने जाना की वे स्वामी विवेकानंद थे । उनके प्रेरणादायी प्रवचन के बाद हम उनसे मिलने गये । लंबे अरसे से मानों मुझे पहचानते हों इस तरह मेरी ओर देखकर हँस पडे । मैं उन्हें गुरु बनाना चाहता था पर इस विचार को भाँपकर वे कहने लगे, ‘ना, मैं तेरा गुरु नहीं हूँ । तेरे गुरु को आने में अभी देर लगेगी । वे आएँगें और तुझे चांदी का प्याला देंगे ।’
कुछ देर रुककर फिर से कहा, ‘वे तुझ पर इससे भी ज्यादा कृपा बरसायेंगे ।’
तत्पश्चात हमने शिकागो छोडा और महान स्वामी विवेकानंद की फिर मुलाकात न हो सकी । बरसों बीत गए, कोई गुरु न मिले तब इस्वी सन १९२५ में एक रात को मैंने अत्यंत उत्कट भाव से गुरु के लिए प्रार्थना की । कुछ घंटो के बाद, संगीत के सुमधुर स्वरों के साथ किसीने मुझे नींद से जगाया ।
दूसरे ही दिन जीवन में पहली बार मैंने यहाँ लोस एन्जेलीस में आपका प्रवचन सुना और मुझे विश्वास हो गया कि मेरी प्रार्थना का स्वीकार हुआ है । पिछले ग्यारह बरसों से मैं आपका शिष्य बना हूँ । चांदी के प्याले की बात याद करके मुझे बार-बार अचरज होता । कभी-कभी ऐसा भी लगता कि विवेकानंद के शब्दों का केवल भावार्थ ही ग्रहण करना है, परंतु क्रिसमस की रात को जब आपने चांदी का प्याला दिया तब मेरे जीवन में तीसरी बार मुझे प्रबल प्रकाश का दर्शन हुआ । दूसरे ही क्षण मेरी नजर चांदी के प्याले पर पडी जिसको स्वामी विवेकानंद की दृष्टि ४३ साल पहले देख चुकी थी । विवेकानंद के शब्दों का यथार्थ रहस्य मुझे तभी अवगत हुआ ।’
- श्री योगेश्वरजी