कहाँ साबरमती के तट पर बसा छोटा-सा सरोड़ा और कहाँ बंबई ? एक बिल्कुल साधारण-सा, ज्यादातर अनपढ़ लोगों से बना, पिछड़ा हुआ गाँव तो दूसरा भारत का प्रथम पंक्ति का सुविकसित और आधुनिक शहर ! लेकिन किस्मत की बात निराली है । वह किसीको हजारों मील दूर ले जाती है, अनजान लोगों से मिलाती है, जीवन को अपने ढ़ंग से सँवारती है । समजदार लोग उसे मानते है, जो अहंकारी है वे उसे नहीं मानते । फिर भी दोनों के जीवन चलते है उसकी इच्छा से । किस्मत कोई मनमौजी आदमी की मनभावन कल्पना नहीं बल्कि अपने किये हुए कर्मो का फल है । पुरुषार्थ करके आदमी जो बोता है वह समय आने पर पाता है । किस्मत ने अपनी अजीबोगरीब रीत से मुझे सरोड़ा जैसे छोटे-से गाँव से निकालकर बंबई ला पटक दिया !
बंबई में बाबुलनाथ और चौपाटी के बीच छोटे-से रास्ते पर लेड़ी नोर्थकोट हिंदू ओर्फनेज का मकान था । आश्रम में उस वक्त करीब देढ़सौ छात्र रहते थे । सबको भोजन, वस्त्र तथा पढ़ने की सुविधा दी जाती थी, हालाकि पढ़ने की लिए बाहर जाना पड़ता था । जिन्हें पढ़ने में रुचि न हो उन्हें आश्रम में बहुत सारी चिजें सिखाई जाती थी, जैसे कि संगीत, सिलाईकाम, बैंड़, सुथारीकाम, चित्रकला, व्यायाम तथा छपाई । कोई भी विद्यार्थी उनमें शामिल हो सकता था । सभी विद्यार्थीयों को अपने बरतन व वस्त्र खुद धोने पडते थे । आश्रम में बीस साल तक के छात्रों को ही रखा जाता था ।
छोटे बच्चों के लिए आश्रम में थोडी अलग व्यवस्था थी । उनको पंद्रह-पंद्रह के गुटों में बाँट दिये जाते थे और सब गुटों में एक कप्तान रहता था । विद्यार्थियों की समस्याओं को गृहपति के आगे रखने के लिए एक प्रधान विद्यार्थी नियुक्त किया जाता था । इस तरह आश्रम के संचालन का अच्छा प्रबंध था ।
आश्रम के दैनिक जीवन की झाँकी कर लेना यहाँ गलत नहीं होगा । सुबह पाँच बजे उठ़ना पडता था । शौच, दांत की सफाई व स्नान के बाद साड़े छह बजे दूध मिलता था । बाद में दूध के स्थान पर राब दी जाती थी । सात से साडे सात के बीच संध्या व गीता सिखाने के लिए शास्त्रीजी आते थे । साडा सात से सवा आठ का वक्त व्यायाम का था जिसके लिए व्यायाम शिक्षक आते थे । उसके बाद गृहपति सबके कपडे और दाँत-नाखून-बाल आदि की जाँच करते थे । उसके बाद सब अपनी पढ़ाई करते थे । सवा नौ बजे खाने का घंट बजता था । ब्राह्मण विद्यार्थियों को पहनने के लिए गमछे दिये जाते थे । खाना बनाने का काम बावरची करते थे मगर परोसने का काम छात्रों का था । उसके लिए भी छात्रों की माहवार व्यवस्था बनाई गई थी । खाने के बाद सब अपनी-अपनी स्कूल चले जाते थे । शाम को पाँच बजे सब स्कूल से वापस आते थे । उसके बाद खास कोई कार्यक्रम नहीं रहता था । बड़े विद्यार्थी क्रिकेट जैसे खेल खेलते थे । सवा छ बजे शाम का खाना लगता और साडे सात बजे शाम की प्रार्थना होती थी । उसमें भी सभी छात्र क्रमानुसार गाना गाते थे । रात नौ बजे सबको सोना पड़ता था । रात को पढ़ने की मनाई थी जो सिर्फ परीक्षा के दिनों के लिए हटाई जाती थी । सभी नियम छात्रों के समुचे विकास के लिए बनाये गये थे और काफि हद तक अच्छे थे ।
लेकिन कोई संस्था के नियम अच्छे होने से क्या वह संस्था आदर्श मानी जायेगी ? अगर कीसी संस्था का मकान महल जैसा विशाल हो, उसमें पानी और बिजली की सुविधा हो, उसके कायदे-कानून अच्छे हो, तो क्या यह कहना उचित होगा कि वह संस्था उत्तम है ? किसी संस्था को आदर्श बनाने में ये बातें सहायक जरूर होती है लेकिन सबसे अहम बात उसके संस्थापक या संचालक की कार्यपद्धति है । उसका प्रभाव संस्था और उनमें बसे छात्रों के चरित्र तथा जीवन-विकास पर सबसे ज्यादा पडता है । इसीलिए मेरा मानना है कि संस्था को बहेतर बनाने के लिए केवल अच्छे मकान व सुविधा पर जोर देने के बजाय संचालक की पसंदगी पर भी ध्यान देना चाहिए । गृहपति या संचालक के पद पर ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति होनी चाहिए जो संस्था और उसके बच्चों को अपना मानें । बच्चों के लिए जिनके हृदय में प्यार हो, और उनकी सेवा करना ही जिनकी तमन्ना हो ऐसे व्यक्ति संस्था को आदर्श बना सकेंगे । ऐसा न होने पर विशाल भवनोंवाली संस्था भी आदरणीय नहीं कहलायेगी । आज तो ये देखने में आता है कि जिनको बच्चों के बारे में कुछ पता नहीं, उनके प्रश्नो में कोई दिलचस्पी नहीं, ऐसे लोग अपनी पहोंच के बल से संस्था के गृहपति बन बैठे है । हमारे आश्रम में भी कुछ ऐसा ही था । संस्था आम तौर से अच्छी थी मगर उसको अच्छे गृहपति नहीं मिले थे ।
मेरे आश्रम-जीवन के दौरान मुझे तीन गृहपतियों का अनुभव हुआ । अफसोस की बात यह थी कि तीनों में बच्चों से घुल-मिलकर उनके प्रश्नों को समझने की या सुलझाने की कोई दिलचस्पी नहीं थी । बच्चों से दिल खोलकर बात करना तो दूर रहा, वे उनको नफरत की निगाहों से देखते थे । जब कोई बच्चा गलती करता तब उसकी मुलाकात गृहपति से होती थी । और तो और, बच्चों की भूलों को सुधारने के बजाय गृहपति उनको डाँटते-मारते थे । इसी वजह से बच्चों में उनके प्रति सम्मान की भावना नहीं थी और वे सदैव गृहपति से डरते थे । जब कभी गृहपति संस्था में घुमने निकलते तो तुरंत बात फैल जाती और बच्चे मारे डर के छुप जाते । हालात कुछ ऐसे हो गये थे की गृहपति और बच्चों के बीच प्यार के बजाय चूहे-बिल्ली का रिश्ता बन गया था । अंग्रेजी सल्तनत के गोरे साहबों के जुल्म का मानो यहाँ हमारे लोग अनुकरण कर रहे थे ।
यदि संस्था में बच्चों और गृहपति के बीच मधुर संबंध न हो तो वहाँ से जीवन को उज्जवल बनानेवाले, मानवता के उपासक और प्रेरणाप्रदायक महान पुरुष कैसे पेदा हो सकते हैं ? हाँ, अपने बलबूते पर कोई आगे बढे ये बात ओर है । शायद यही वजह थी की हमारी संस्था में से पढ़कर हजारों छात्र निकले मगर बहुत कम ऐसे थे जो आगे बढ़कर संस्था का नाम रोशन करें ।
गृहपति के पद पर अधिष्ठित व्यक्तियों से मेरा नम्र निवेदन है कि आपको बालकों की सेवा का जो बहुमूल्य अवसर मिला है उसे ईश्वर का अनुग्रह समझें और बच्चों की सेवा में दिनरात जुटे रहें । ऐसा करने से अपने आपकी, अपनी संस्था की और समाज की बहुत बडी सेवा होगी ।
यहाँ पर मैं ओर एक बात कहना चाहूँगा कि वर्तमान समय में अनाथाश्रम बढ़ रहे है । समाज में अनाथों की संख्या बढ़े वो अपने आप में अच्छी बात नहीं है फिर भी जो अनाथ है उनकी सेवा के लिए अनाथाश्रम हो यह बुरा भी नहीं है । अनाथाश्रम शब्द वैसे बूरा नहीं है फिर भी उससे निःसहाय, कंगाल और अनाथ लोगों का खयाल आता है जिससे लोगों में तिरस्कार व दया की वृत्ति पैदा होती है । मैं इसलिए सेवाश्रम, बालाश्रम या किसी अन्य नामाभिधान का समर्थन करता हूँ । जो अनाथाश्रम में पलते हैं उनको मैं यह कहना चाहूँगा कि अपने आपको कमजोर मत समझो । मातापिता की अनुपस्थिति में ईश्वर को अपना पालनहार मानो । ईश्वर सर्व-शक्तिमान है, सब की रक्षा करता है । ईश्वर पर श्रद्धा रखकर मेहनत करो । कई असहाय और निराधार लोग अपनी मेहनत से आगे आये है, तुम भी वैसा कर सकते हो । अपने आप को दीन-हीन व क्षुद्र समझना एक अपराध है ।