उन दिनों मैं कभीकभा सिनेमा देखने जाता । तब बंबई के न्यु थीयेटर्स में अच्छी पीक्चर लगती थी । प्रभात और बॉम्बे टॉकीझ में भी अच्छे चलचित्र प्रदर्शित होते थे । अब तो उस पीक्चर का नाम ठीक तरह से मुझे याद नहीं पडता मगर शायद वो बोम्बे टोकीझ में लगी थी । उस चलचित्र में स्मशान और चिता का दृश्य था और एक खुबसुरत लडकी के लिए एक गीत था । गीत का मुखडा कुछ ईस तरह था : ‘कंचन की तोरी काया ...’ । गीत का भाव कुछ एसा था की संसार में आकर कई स्त्रीपुरुष इस तरह बिदा हुए है, यहाँ कोई अमर नहीं रहता । तेरी ये कंचन जैसी काया भी एक दिन स्मशान की चिता में जलकर भस्म हो जायेगी, इसलिए उस पर गुमान करना व्यर्थ है । ऐसे नश्वर जगत की प्रीति करने के बजाय ईश्वर में प्रीति कर ।
चिता के वो दृश्य ने मेरे मन में गहरी छाप छोडी । जब मैं वो ब्राह्मिन लड़की को पढाने के लिए उसके पास बैठता तो चिता का वो दृश्य मेरी मन की आँखो के सामने आकर खड़ा हो जाता । वो कुमारी का शरीर सुंदर था मगर वो आखिर में नष्ट ही होगा न ? और शरीर की बाह्य सुंदरता के भीतर क्या पडा है ? उसमें तो हड्डीयाँ, माँस व रुधिर है, मलमूत्र है । चमडी के आवरण से उसे छुपाया गया है ईसलिए ये सुंदर दिखता है, मगर अंदर तो बेसुमार गंदकी पडी हई है, उनमें कई व्याधि छीपे हुए है । और जब ये शरीर वृद्ध हो जायेगा तब क्या अभी जैसा सुंदर दिखेगा ? तब तो उसके दाँत गिर जायेंगे, बाल श्वेत हो जायेंगे, यौवनसहज सुंदरता और मधुरता गायब हो जायेगी । तब वो कितना बेरूप दिखेगा ? और मान लो वो तब भी सुंदर दिखे तो भी उसका अंत तो स्मशान की चिता पर आना निश्चित है । उसे कोन टाल सकेगा ? जब हरकोई व्यक्ति की आखरी मंझिल वही है तो उसमें आसक्ति करके क्यूँ बरबाद होना ? कितने लोगों ने उसमें आसक्ति करके अपने जीवन व्यतीत कर दिये फिर भी उन्हें सुख, शांति और अमृत की प्राप्ति नहीं हुई । मैं उस पथ पर क्यूँ जाउँ ?
एसा सोचने से मेरे मन में अगर थोडा-सा लगाव था वो भी नष्ट हो गया । मेरे मन में वैराग्य की भावना दृढ होती चली । उस लड़की को देखकर मैं सोचता कि ये माँ जगदंबा का चलता-फिरता मंदिर है । उसमें माँ का पावन प्रकाश फैल रहा है । उसको बुरी नजर से नहीं मगर पवित्र दृष्टि से देखना चाहिए । उनके पास बैठने का वक्त माँ जगदंबा की संनिधि के सौभाग्य के बराबर है । उस वक्त में उसके स्थूल शरीर का निरीक्षण करने के बजाय उसमें रहे माँ के दिव्य प्रकाश को निहारना चाहिए । और अगर इसमें दिक्कत आयें तो माँ को सहायता के लिए प्रार्थना करनी चाहिए ।
मैं अक्सर ये भी सोचता की अगर माँ के साधारण अंश समान ये युवती ईतनी संमोहक और खुबसुरत है तो स्वयं माँ कितनी अलौकिक होगी ? माँ का स्वरूप कितना सुखमय होगा और माँ का प्यार मिलने पर कितना आनंद होगा ? ईस युवती के माध्यम से व्यक्त माँ के अलौकिक दर्शन करने के लिए परिश्रम करना चाहिए । माँ जगदंबा मानो उस लड़की का रूप लेकर मेरे पूर्वजन्म के संस्कारो को उजागर कर रही थी । ईतनी छोटी-सी उम्र में मुझे जगज्जननी माँ की दिव्य लीला की प्रतिती हो रही थी ।
जीवन का प्रवाह ईस तरह आगे बहता चला । उस युवती को पढाने मैं कुछ साल तक जाता रहा, मगर वास्तविक रूप में जीवन की पाठशाला में मेरा अभ्यास चल रहा था । सही मायने में मैं एक विद्यार्थी था और वो मेरी अध्यापिका या गुरु । ईसलिए मैं कहता हूँ कि उस युवती का परिचय मेरे लिए बहुत लाभदायी सिद्ध हुआ । उसे देखकर मुझे अपार आनंद मिलता था, लेकिन मुझे ये पता नहिं था की वो मेरे बारे में क्या सोचती थी । वो जानने की जिज्ञासा मुझे कभी नहीं हुई । हाँ, ये जरूर कह सकता हूँ कि मेरे प्रति उसका प्रेम और सदभाव हमेशा था । शायद उसको भी मेरे भाव और विचारों से आश्चर्य हुआ हौगा ।
वो वक्त किशोरावस्था का था और उसमें भावि जीवन की ईमारत का निर्माण हो रहा था । माँ की परम कृपा से उस वक्त में मेरी पवित्रता बनी रही । यह सोचकर आज भी मुझे गर्व और आनंद मिलता है । जब परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो तब मनको निर्मल रखना आसान नहीं होता । बड़े बड़े तपस्वी और सिद्ध उसे नहि कर पाये तो मेरे जैसे आम आदमी की क्या हैसियत ? फिर भी माँ की कृपा से मेरे लिए वो सहज हो गया ।