टिहरी से ऋषिकेश का मोटरमार्ग यथावत होने में काफि दिन लग गये । तब तक, वेदबंधु और उनके साथ जो महात्मा पुरुष थे, उन्हें टिहरी रुकना पडा । ऋषिकेश पैदल जाना असंभव नहीं था, मगर उनके पास इतना वक्त नहीं था । टिहरीनरेश के रिश्तेदार, जो की टिहरी में अमलदार थे, उन्होंने वेदबंधु के भोजन का प्रबंध किया था । अमलदार खुद नेपाल के राजघराने से तालुक्क रखते थे और उन्हें देवी की साधना में दिलचस्पी थी । स्वयं साधक होने के कारण वे बडे प्यार से दोनों महात्माओं की सेवा करते थे ।
मेरे लिये भोजन का प्रबंध बदरीनाथ मंदिर से होता था, इसका जीक्र मैं आगे कर चुका हूँ । मेरा विचार उत्तरकाशी जाने का था मगर मंदिर के पूजारीओं को मेरा वहाँ जाना पसंद नहीं था । उनकी ईच्छा थी की मैं हमेशा के लिये मंदिर में रहूँ । उन्होंने मुझे आग्रह किया और मेरे लिये एक कमरा सुरक्षित करने का वचन भी दिया, मगर मेरा मन नहीं माना । उत्तरकाशी का आकर्षण मेरे लिये उनके स्नेह से अधिक था अतः मैंने उनका प्रस्ताव अस्वीकार किया ।
मैंने कहा; 'उत्तरकाशी कुछ दिन रहने के बाद मैं वापिस आउँगा । मुझे भी यह जगह पसंद है ।' मगर वे जानते थे की एक दफा यहाँ से निकलने के बाद मैं शायद ही वापिस आउँगा । और सचमुच एसा ही हुआ । टिहरी के बदरीनाथ मंदिर से निकले हुए मुझे कई साल हो गये हैं, मगर मैं वहाँ दुबारा नहीं जा पाया हूँ ।
मेरा विचार टिहरी से पैदल चलकर उत्तरकाशी जानेका था । मगर वेदबंधु के प्रेम और आग्रह के आगे मेरी एक न चली । उनकी ईच्छा मुझे ऋषिकेश ले जाकर, वहाँ से मसूरी के रास्ते उत्तरकाशी भेजने की थी । उनके स्नेहवश होकर मैंने उनके साथ ऋषिकेश जाना स्वीकार किया । उन्होंने सूचना दी; 'उत्तरकाशी में अगर हो सके तो लक्षेश्वर महादेव के स्थान में जो कुटिया है, वहाँ रहना । वह जगा सभी तरह से सुविधाजनक है । उत्तरकाशी में चरणदास करके एक सदगृहस्थ है, उनके पास कुटिया की चाबी रहती है । आपके लिये सारा प्रबंध चरणदास ही करेंगे ।'
टिहरी स्थित बदरीनाथ मंदिर में कभीकभा नाथसंप्रदाय के साधु आते थे । नाथसंप्रदाय अति प्राचीन है ओर वह भगवान शंकर के साथ जुडा है । भगवान शकंर उनके आदि गुरु या प्रणेता है । मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ जैसे महापुरुषों से सुप्रसिद्ध नाथसंप्रदाय योगसाधना पर जोर देता है, या यूँ कहो की योग उसका आधारस्तंभ है । षटक्रिया और खेचरी मुद्रा को वहाँ विशेष प्राधान्य दिया जाता है । आत्मदर्शन उसका प्रमुख लक्ष्य है, मगर नित्य यौवन, नित्य आरोग्य, मृत्युंजय होना तथा लोकोत्तर शक्ति की प्राप्ति करना वहाँ महत्वपूर्ण माना जाता है । वक्त मिलने पर मैं नाथसंप्रदाय के साधुओं से मिलता था और योगसाधना के बारे में चर्चा करता था । हालांकि अब नाथसंप्रदाय में साधना करनेवाले बहुत कम साधु बचे हैं । ज्यादातर साधु तो कान में कुंडल पहनकर, जटा और भस्मादि धारण करके, चिलम का दम लगाकर अलख अलख रटने को साधना की इतिश्री समजतें हैं । मगर जब कोई सच्चे साधु से मिलने का सौभाग्य मिलता है तो दिल में खुशी की लहर दौड जाती है । हमें मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, गोपीचंद, भर्तृहरी और गैनीनाथ जैसे महापुरुषो की स्मृति होती है । हमारा मस्तक उनके प्रति आदर-सम्मान से झुक जाता है । नाथ संप्रदाय के साधुओं को हम कहेंगे की उनके लोकोत्तर महापुरुषों से प्रेरणा पाकर वे भी अपना जीवन उज्जवल करें । चिलम, जटा, भस्म, या त्रिशूलादि को सर्वस्व न मानकर उनकी साधना का अनुकरण करें । तभी आप सही मायने वे नाथसंप्रदाय के साधु कहला सकेंगे ।
मंदिर में मिले नाथसंप्रदाय के एक युवान साधु की ईच्छा खेचरी मुद्रा सीखने की थी । मुझे भी खेचरी मुद्रा में दिलचस्पी थी । मुझे ज्ञात हुआ की वेदबंधु खेचरी मुद्रा में प्रवीण है । मुझे लगा की मुझे भी खेचरी-मुद्रा में प्रवीण होना चाहिए । उस वक्त मैं जब किसीको मिलता और उनके अनुभव सुनता तो फौरन ये सोचने लगता की ऐसे अनुभव मुझे क्यूँ नहीं हुए हैं । शायद मुझमें कुछ कमी रही होगी । वेदबंधु ने जब अपने पूर्वजन्म की बात बतायी तब मेरी प्रतिकिया कुछ ऐसी ही थी । ईच्छानुसार समाधि में प्रवेश करने के लिये खेचरी मुद्रा सहायक होती है इसलिये मुझे खेचरी-मुद्रा सीखनी थी । मैंने जब वेदबंधु को कहा तो वे बोले, 'आपको खेचरी-मुद्रा सीखने की क्या आवश्यकता है ? आप तो स्वानुभूति के शिखर पर आसीन है, आप खेचरी-मुद्रा सीखके क्या करेंगे । ये तो साधारण साधकों के लिये है । आप तो स्वयं मुक्त पुरुष हैं ।'
मैंने कहा : 'आप कहतें हैं तो मैं मान लेता हूँ मगर खेचरी-मुद्रा का प्रयोग करने की मेरी दिली तमन्ना है । योगसाधना के सभी आवश्यक प्रयोग करके मुझे अनुभवसंपन्न होना है ताकि आगे चलकर मुझे अफसोस न हो की मैंने इसका प्रयोग क्यूँ नहीं किया ।'
उन्होंने कहा, 'हाँ, ये बात ठीक है मगर आपकी साधना को देखकर लगता नहीं की आपको इसकी कोई आवश्यकता है । आपका मन तो तुरन्त एकाग्र हो जाता है और शान्ति का अनुभव करता है । खेचरी मुद्रा से जो हासिल होता है वो तो आपके पास पहेले-से है । फिर भी अगर आपकी जिज्ञासा है तो उसे शान्त करने के लिये मैं आपको जरुर सीखाउँगा ।'
उनकी संमति मिलने पर मुझे अत्यंत हर्ष हुआ । उनका मेरे प्रति अप्रतिम स्नेह देखकर मैं गदगदित हुआ । वे बाजार में जाकर मेरे लिये कैंची और अन्य आवश्यक सामग्री ले आये । मनुष्य की जिह्वा दो तरह की होती हैं - लंबी और छोटी । लंबी जिह्वा को सर्पजिह्वा कहते हैं । कुछ लोगों की जीभ लम्बी होने से वे उसे आसानी से नासिकाग्र पर लगा सकते हैं और खेचरी-मुद्रा कर सकते हैं । मगर जिसकी जीभ छोटी होती हैं उसे तकलिफों का सामना करना पडता है । सबसे पहले उन्हें अपनी जिह्वा को लम्बी करनी पडती है और उसके लिये घर्षण व दोहन का सहारा लेना पडता है । जिह्वा नीचे की ओर से जिस नाडी से जूडी होती है उसे काटना पडता है । मेरी जिह्वा छोटी थी इसलिये उसे लम्बी करने की आवश्यकता थी । वेदबंधुने एक दिन दोपहर को मेरी जीभ से जुडी नीचे की नाडि को कैंची से काटा और सिंधव, नमक, हरडे का चूर्ण तथा काथा दबाकर आराम करने को कहा । बाद में क्रमशः दो बार मैंने अपनी जीभ से जुडी नाडि को काटा । इसके बारे में विशेष उल्लेख आगे करूँगा ।
सत्संग और साधना के विभिन्न अनुभवों में हमारा वक्त कब गुजर गया, पता नहीं चला । ऋषिकेश के लिये यातायात का मार्ग खुल जाने से मैं उनके साथ ऋषिकेश जाने के लिये चल पड़ा । मंदिर के पूजारी को मैंने वापिस आने का आश्वासन दिया ।
टिहरीनरेश के पहचानवाले अमलदार हमें बसअड्डे तक छोडने आये । मार्ग में पुलीस स्टेशन पडता था । पुस्तकालय में हमें मिलकर विशेष जाँच-पडताल के लिये पुलीस स्टेशन बुलानेवाले ईन्स्पेक्टर थाने के बाहर बैठे थे । हमें देखकर वे खडे हो गये क्योंकि हमारे साथ जो अमलदार थे, वे पुलीस ईन्स्पेक्टर के उपरी अधिकारी थे । हमें उनके साथ देखकर वे अचंबित हो गये । अमलदार ने हमारा उनसे परिचय करवाया तब मैंने नम्रता से कहा, 'अगर मेरे बारे में आपको अधिक जानकारी चाहिए तो लो, मैं आपके सामने ही हूँ ।' उनके क्षोभ की सीमा नहीं थी ।
ऋषिकेश के लिये बस चल पडी । मार्ग में नरेन्द्रनगर आने पर बस कुछ देर तक रूकी । वहाँ हमारी भेंट देवप्रयाग में चंपकभाई की पूछताछ करनेवाले पुलीस अमलदार से हुई । मुझे देखकर उन्होंने कहा, चपंकभाई कहाँ है ? मैंने कहा: 'देवप्रयाग से जाने के बाद वे मुझे नहीं मिले है ?'
वो चंपकभाई को नहीं भूले थे । शायद अब भी उन्हें चंपकभाई की तलाश थी ।
शाम होते हम ऋषिकेश पहूँचे । तकरीबन तीन महिने के बाद ऋषिकेश का दर्शन हुआ । हम भगवान आश्रम में ठहरे । नेपाल के राजकुमार वहाँ ठहरे हुए थे । वे वेदबंधु तथा उनके साथ जो वृद्ध महात्मा थे, उनकी प्रतीक्षा में थे ।
मेरे लिये भोजन का प्रबंध बदरीनाथ मंदिर से होता था, इसका जीक्र मैं आगे कर चुका हूँ । मेरा विचार उत्तरकाशी जाने का था मगर मंदिर के पूजारीओं को मेरा वहाँ जाना पसंद नहीं था । उनकी ईच्छा थी की मैं हमेशा के लिये मंदिर में रहूँ । उन्होंने मुझे आग्रह किया और मेरे लिये एक कमरा सुरक्षित करने का वचन भी दिया, मगर मेरा मन नहीं माना । उत्तरकाशी का आकर्षण मेरे लिये उनके स्नेह से अधिक था अतः मैंने उनका प्रस्ताव अस्वीकार किया ।
मैंने कहा; 'उत्तरकाशी कुछ दिन रहने के बाद मैं वापिस आउँगा । मुझे भी यह जगह पसंद है ।' मगर वे जानते थे की एक दफा यहाँ से निकलने के बाद मैं शायद ही वापिस आउँगा । और सचमुच एसा ही हुआ । टिहरी के बदरीनाथ मंदिर से निकले हुए मुझे कई साल हो गये हैं, मगर मैं वहाँ दुबारा नहीं जा पाया हूँ ।
मेरा विचार टिहरी से पैदल चलकर उत्तरकाशी जानेका था । मगर वेदबंधु के प्रेम और आग्रह के आगे मेरी एक न चली । उनकी ईच्छा मुझे ऋषिकेश ले जाकर, वहाँ से मसूरी के रास्ते उत्तरकाशी भेजने की थी । उनके स्नेहवश होकर मैंने उनके साथ ऋषिकेश जाना स्वीकार किया । उन्होंने सूचना दी; 'उत्तरकाशी में अगर हो सके तो लक्षेश्वर महादेव के स्थान में जो कुटिया है, वहाँ रहना । वह जगा सभी तरह से सुविधाजनक है । उत्तरकाशी में चरणदास करके एक सदगृहस्थ है, उनके पास कुटिया की चाबी रहती है । आपके लिये सारा प्रबंध चरणदास ही करेंगे ।'
टिहरी स्थित बदरीनाथ मंदिर में कभीकभा नाथसंप्रदाय के साधु आते थे । नाथसंप्रदाय अति प्राचीन है ओर वह भगवान शंकर के साथ जुडा है । भगवान शकंर उनके आदि गुरु या प्रणेता है । मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ जैसे महापुरुषों से सुप्रसिद्ध नाथसंप्रदाय योगसाधना पर जोर देता है, या यूँ कहो की योग उसका आधारस्तंभ है । षटक्रिया और खेचरी मुद्रा को वहाँ विशेष प्राधान्य दिया जाता है । आत्मदर्शन उसका प्रमुख लक्ष्य है, मगर नित्य यौवन, नित्य आरोग्य, मृत्युंजय होना तथा लोकोत्तर शक्ति की प्राप्ति करना वहाँ महत्वपूर्ण माना जाता है । वक्त मिलने पर मैं नाथसंप्रदाय के साधुओं से मिलता था और योगसाधना के बारे में चर्चा करता था । हालांकि अब नाथसंप्रदाय में साधना करनेवाले बहुत कम साधु बचे हैं । ज्यादातर साधु तो कान में कुंडल पहनकर, जटा और भस्मादि धारण करके, चिलम का दम लगाकर अलख अलख रटने को साधना की इतिश्री समजतें हैं । मगर जब कोई सच्चे साधु से मिलने का सौभाग्य मिलता है तो दिल में खुशी की लहर दौड जाती है । हमें मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ, गोपीचंद, भर्तृहरी और गैनीनाथ जैसे महापुरुषो की स्मृति होती है । हमारा मस्तक उनके प्रति आदर-सम्मान से झुक जाता है । नाथ संप्रदाय के साधुओं को हम कहेंगे की उनके लोकोत्तर महापुरुषों से प्रेरणा पाकर वे भी अपना जीवन उज्जवल करें । चिलम, जटा, भस्म, या त्रिशूलादि को सर्वस्व न मानकर उनकी साधना का अनुकरण करें । तभी आप सही मायने वे नाथसंप्रदाय के साधु कहला सकेंगे ।
मंदिर में मिले नाथसंप्रदाय के एक युवान साधु की ईच्छा खेचरी मुद्रा सीखने की थी । मुझे भी खेचरी मुद्रा में दिलचस्पी थी । मुझे ज्ञात हुआ की वेदबंधु खेचरी मुद्रा में प्रवीण है । मुझे लगा की मुझे भी खेचरी-मुद्रा में प्रवीण होना चाहिए । उस वक्त मैं जब किसीको मिलता और उनके अनुभव सुनता तो फौरन ये सोचने लगता की ऐसे अनुभव मुझे क्यूँ नहीं हुए हैं । शायद मुझमें कुछ कमी रही होगी । वेदबंधु ने जब अपने पूर्वजन्म की बात बतायी तब मेरी प्रतिकिया कुछ ऐसी ही थी । ईच्छानुसार समाधि में प्रवेश करने के लिये खेचरी मुद्रा सहायक होती है इसलिये मुझे खेचरी-मुद्रा सीखनी थी । मैंने जब वेदबंधु को कहा तो वे बोले, 'आपको खेचरी-मुद्रा सीखने की क्या आवश्यकता है ? आप तो स्वानुभूति के शिखर पर आसीन है, आप खेचरी-मुद्रा सीखके क्या करेंगे । ये तो साधारण साधकों के लिये है । आप तो स्वयं मुक्त पुरुष हैं ।'
मैंने कहा : 'आप कहतें हैं तो मैं मान लेता हूँ मगर खेचरी-मुद्रा का प्रयोग करने की मेरी दिली तमन्ना है । योगसाधना के सभी आवश्यक प्रयोग करके मुझे अनुभवसंपन्न होना है ताकि आगे चलकर मुझे अफसोस न हो की मैंने इसका प्रयोग क्यूँ नहीं किया ।'
उन्होंने कहा, 'हाँ, ये बात ठीक है मगर आपकी साधना को देखकर लगता नहीं की आपको इसकी कोई आवश्यकता है । आपका मन तो तुरन्त एकाग्र हो जाता है और शान्ति का अनुभव करता है । खेचरी मुद्रा से जो हासिल होता है वो तो आपके पास पहेले-से है । फिर भी अगर आपकी जिज्ञासा है तो उसे शान्त करने के लिये मैं आपको जरुर सीखाउँगा ।'
उनकी संमति मिलने पर मुझे अत्यंत हर्ष हुआ । उनका मेरे प्रति अप्रतिम स्नेह देखकर मैं गदगदित हुआ । वे बाजार में जाकर मेरे लिये कैंची और अन्य आवश्यक सामग्री ले आये । मनुष्य की जिह्वा दो तरह की होती हैं - लंबी और छोटी । लंबी जिह्वा को सर्पजिह्वा कहते हैं । कुछ लोगों की जीभ लम्बी होने से वे उसे आसानी से नासिकाग्र पर लगा सकते हैं और खेचरी-मुद्रा कर सकते हैं । मगर जिसकी जीभ छोटी होती हैं उसे तकलिफों का सामना करना पडता है । सबसे पहले उन्हें अपनी जिह्वा को लम्बी करनी पडती है और उसके लिये घर्षण व दोहन का सहारा लेना पडता है । जिह्वा नीचे की ओर से जिस नाडी से जूडी होती है उसे काटना पडता है । मेरी जिह्वा छोटी थी इसलिये उसे लम्बी करने की आवश्यकता थी । वेदबंधुने एक दिन दोपहर को मेरी जीभ से जुडी नीचे की नाडि को कैंची से काटा और सिंधव, नमक, हरडे का चूर्ण तथा काथा दबाकर आराम करने को कहा । बाद में क्रमशः दो बार मैंने अपनी जीभ से जुडी नाडि को काटा । इसके बारे में विशेष उल्लेख आगे करूँगा ।
सत्संग और साधना के विभिन्न अनुभवों में हमारा वक्त कब गुजर गया, पता नहीं चला । ऋषिकेश के लिये यातायात का मार्ग खुल जाने से मैं उनके साथ ऋषिकेश जाने के लिये चल पड़ा । मंदिर के पूजारी को मैंने वापिस आने का आश्वासन दिया ।
टिहरीनरेश के पहचानवाले अमलदार हमें बसअड्डे तक छोडने आये । मार्ग में पुलीस स्टेशन पडता था । पुस्तकालय में हमें मिलकर विशेष जाँच-पडताल के लिये पुलीस स्टेशन बुलानेवाले ईन्स्पेक्टर थाने के बाहर बैठे थे । हमें देखकर वे खडे हो गये क्योंकि हमारे साथ जो अमलदार थे, वे पुलीस ईन्स्पेक्टर के उपरी अधिकारी थे । हमें उनके साथ देखकर वे अचंबित हो गये । अमलदार ने हमारा उनसे परिचय करवाया तब मैंने नम्रता से कहा, 'अगर मेरे बारे में आपको अधिक जानकारी चाहिए तो लो, मैं आपके सामने ही हूँ ।' उनके क्षोभ की सीमा नहीं थी ।
ऋषिकेश के लिये बस चल पडी । मार्ग में नरेन्द्रनगर आने पर बस कुछ देर तक रूकी । वहाँ हमारी भेंट देवप्रयाग में चंपकभाई की पूछताछ करनेवाले पुलीस अमलदार से हुई । मुझे देखकर उन्होंने कहा, चपंकभाई कहाँ है ? मैंने कहा: 'देवप्रयाग से जाने के बाद वे मुझे नहीं मिले है ?'
वो चंपकभाई को नहीं भूले थे । शायद अब भी उन्हें चंपकभाई की तलाश थी ।
शाम होते हम ऋषिकेश पहूँचे । तकरीबन तीन महिने के बाद ऋषिकेश का दर्शन हुआ । हम भगवान आश्रम में ठहरे । नेपाल के राजकुमार वहाँ ठहरे हुए थे । वे वेदबंधु तथा उनके साथ जो वृद्ध महात्मा थे, उनकी प्रतीक्षा में थे ।