कर्म का त्याग करके एकान्त में बैठकर प्रभुपरायण जीवन व्यतीत करने की शक्ति अर्जुन में न थी । इस समय वो वह जरूर यह कह रहा था कि मैं लडना नहीं चाहता क्योंकि कौरवो की सेना में वह स्वजनों को देख रहा था । परंतु इससे पहले तो उसका लड़ने का विचार था ही । अन्यथा वह गांडीव धारण करके युद्ध के मेदान में आता ही क्यों? युद्ध जैसे भयंकर कार्य से यदि उसे सचमुच वैराग्य उत्पन्न हुआ होता तो युद्ध स्थल में आने की बजाय वह पहले से ही काशी, प्रयाग या हरद्वार की यात्रा को निकल पड़ता । लेकिन क्षात्र कर्म के संस्कार उसके दिल में विद्यमान थे । अपने भाई और द्रौपदी के अपमान के जख्म़ अभी उसके हृदय में हरे थे । बदला लेने की प्रवृत्ति ही उसे युद्ध की तैयारीयों से परिपूर्ण और भीषण धर्मभूमि में खींच लाई । इस हालत में भगवानने उससे कहा कि त्याग एवं ज्ञान का मार्ग भी उत्तम है । किन्तु वह तेरे लिए नहीं है । तेरे लिए तो कर्म का मार्ग ही उत्तम है । कर्म और ज्ञान मित्र हैं, ऐसा मत समझना । ज्ञानपूर्वक कर्म कर और आसक्त हुए बिना तथा त्याग की भावना से कर्म कर । ऐसा करने से दोनों कार्य सिद्ध होंगे । फर्ज का पालन होगा और तेरा मंगल भी होगा ।
भगवान का यह उपदेश अति महत्वपूर्ण है । हमारे यहाँ त्याग होता है और लोग ज्ञान की तलाश में निकल पड़ते है । पर उनके दिलमें पूर्व संस्कार मौजूद रहने के कारण उन्हें सच्चा आनंद नहीं मिल सकता । त्याग के सच्चे आनंद के लिए अंदर के त्याग की आवश्यकता है । उसकी ओर जितना ध्यान दिया जा सके उतना ही कम है । मन में जब तक कामना एवं वासना का अड्डा होता है तब तक बाहर का त्याग या संन्यास क्या फल दे सकता है? और उनका कल्याण भी कैसे हो सकता है?
बद्रीनाथ में एक अवधूत आये थे । वे अलकनंदा किनारे तप्तकुंड के पास रहते थे । उनके त्याग को देखकर लोग दंग रह जाते थे । बद्रीनाथ में कितनी सरदी होती है फिर भी वे तो वहां नग्नावस्था में ही रहते । लंगोटी तक न पहनते । एक बार कुछ धनिक लोग उनके दर्शन के लिए गये । थोडी देर बैठने के बाद कोई सेवा बताने की प्रार्थना उन्होंने कि । पहले तो अवधूतजी आनाकानी करते रहे किन्तु बहुत आग्रह करने पर बोले कि यदि तुम्हारी इच्छा सेवा करने की है तो मैं एक काम बताता हूँ । मुजे ४० तोले सोने की एक मूर्ति बनवा दो । उसके द्वारा मुझे उपासना करनी है । तुम धनिक हो इसलिए मेरी इच्छा आसानी से पूरी कर सकते हो ।
वे धनिक इस मांग के लिए तैयार नहीं थे । उन्होंने सोचा था कि अवधूत क्या मांग सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा तो दो एक महिने का दूध देने के लिए कहेंगे या एक कुटिया बनवाऐंगे । इसलिए उनको तो यह सुनकर बड़ा अचरज हुआ । उन्होने खुद ही तो कोई सेवा बताने को कहा तो अवधूत ने सेवा बताई, लेकिन अब तो वे अपनी असमर्थता बताने के साथ साथ टीका भी करने लगे कि साधु को सोने से क्या काम? जिसने घर छोडा, वस्त्र छोडा, उसे सुवर्ण मूर्ति की क्या ज़रूरत? उनको पता नहीं था कि अवधूत ने बाहर से सब छोडा था किन्तु मन में वासनाएं डेरा जमाए थीं । इसलिए वह एसी मांग करे तो इसमें क्या आश्चर्य? इस मांग के लिए ही वे निंदनीय बनें । ऐसी मांग किस कामकी? त्यागी पुरुष को ईश्वर पर ही भरोसा रखना चाहिए । उसे ऐसी इच्छाओं और आवश्यकताओं को बिलकुल निकाल देना चाहिए, जिससे कि दूसरों का कम-से-कम सहारा लेना पड़े । उपासना और साधना किसी बाहरी साधन बिना भी हो सकती है । दूसरे लोगों को भी विवेकी होने की ज़रूरत है । केवल बाहर की वेशभूषा या रहन सहन देखकर किसीको योगी या सिद्धपुरुष मानना ठीक नहीं । बिना अच्छी तरह जांच किए किसीके आगे समर्पण या किसीको गुरु बना लेना बुद्धिमानी नहीं । अंदर की योग्यता पहचान कर ही किसीको प्रोत्साहन देना चाहिए । बाहर का व्यवहार और वातावरण भी महत्वपूर्ण है इसका इनकार नहीं हो सकता । लेकिन उसे ही सब कुछ समझकर किसी व्यक्ति को सर्टिफिकट दे देने में ग़लती हो सकती है । कर्मयोग का उपदेश देते हुए भगवान हमारा ध्यान इस ओर खींचते हैं और जिस हालत में हम हों उसीमें रहकर अपना कर्तव्यपालन करने तथा मन का त्याग हासिल करने की शिक्षा देते हैं । मन को सुसंस्कृत बनाने का वे आदेश देते है । उज्जवल जीवन की इच्छा रखनेवालें सभी लोगों के लिए यह उपदेश उपयोगी है । कर्मयोग में इस आदेश का स्थान कम महत्वपूर्ण नहीं है ।
- © श्री योगेश्वर (गीता का संगीत)